क्या सस्ती दवाओं का दौर खत्म हो रहा है? सवालों के घेरे में UK के साथ FTA
FTA में शामिल ‘स्वैच्छिक लाइसेंस’ की प्राथमिकता निजी बाजार को बढ़ावा देना चाहती है, पर विशेषज्ञों की चेतावनी है कि इससे ख़ास करके आपात स्थिति में सस्ती दवाओं तक लोगों की पहुंच कम हो सकती है।;
हाल ही में भारत और यूके ने जो मुक्त व्यापार समझौता (FTA) किया है, उसमें दवाओं के वैकल्पिक लाइसेंस (voluntary licensing) को प्राथमिकता देने के कारण चर्चा तेज हो गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे भारत की जरूरत पड़ने पर कमजोर वर्गों के लिए सस्ता इलाज उपलब्ध कराने के लिए अनिवार्य लाइसेंस (compulsory licensing) देने की क्षमता प्रभावित हो सकती है।
यह समझौता 24 जुलाई 2025 को लंदन में हुआ था। समझौते में स्पष्ट रूप से लिखा है कि दवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका स्वैच्छिक लाइसेंसिंग और तकनीकी ट्रांसफर के जरिए ही है। इसके तहत उन दवाओं पर कंट्रोल रखा जा रहा है, जिनके मौजूदा पेटेंट हैं। FTA की धारा 13.6 के अनुसार, ‘स्वैच्छिक लाइसेंसिंग’ को दवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने का सबसे उपयुक्त तरीका बताया गया है।
वाणिज्य मंत्रालय का रुख
हालाकि, वाणिज्य मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि यह समझौता भारत की अनिवार्य लाइसेंस देने की संप्रभुता को प्रभावित नहीं करता है। भारत की Patents Act, 1970 के तहत नागरिकों और जेनेरिक दवा निर्माताओं के हित सुरक्षित रहेंगे। भारत ने पेटेंट की अवधि बढ़ाने (20 वर्ष से अधिक) और डेटा एक्सक्लूसिविटी जैसी मांगों को स्वीकार नहीं किया। ‘स्वैच्छिक लाइसेंस’ को वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के रूप में माना गया है।
विशेषज्ञों की चिंता
GTRI जैसे विचारक समूहों ने चेतावनी दी है कि इस FTA में शामिल कुछ IP प्रावधान भारत के अनिवार्य लाइसेंसिंग अधिकार को प्रभावित कर सकते हैं। ‘स्वैच्छिक’ लाइसेंस को प्राथमिकता देने से सरकार द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य कदम उठाने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। FTA में लंबी अवधि के पेटेंट या डेटा एक्सक्लूसिविटी पर निर्भर अनुपस्थिति की स्थिति स्पष्ट नहीं है। पिछले समझौतों की तरह, इसमें कुछ प्रावधान ऐसे हैं जो रैखिक प्रक्रिया वाले सुरक्षा उपायों को कमजोर कर सकते हैं। जैसे:- पेटेंट चुनौतियों के लिए शुल्क लगाना, पेटेंट पर काम करने की जानकारी (working disclosure) हर तीन साल में देनी होगी। पेटेंट आवेदनकर्ता से सूचना मांगने की जिम्मेदारी पेटेंट नियंत्रक को सौंपी गई है। ये बदलाव चुनौतियों को कम कर सकते हैं और स्वस्थ मामले की तफ्तीश को भारी बना सकते हैं। Prof. Biswajit Dhar और K.M. Gopakumar जैसे विशेषज्ञों का कहना है कि ये धारा भारत के सार्वजनिक हित की रक्षा करने वाले नियमों को कमजोर कर रहे हैं।
अनिवार्य लाइसेंस
1970 के Patents Act के तहत भारत सरकार ऐसी स्थिति में बिना पेटेंटधारी की अनुमति के सस्ती दवा बनाने की अनुमति दे सकती है, जब किसी आविष्कारक दवा की कीमत अत्यधिक हो, वह जनता के लिए सुलभ न हो या भारत में उसकी उत्पादन सुविधा बाकी ज़माने तक न बनाई गई हो। Patents Act, 1970 के तहत भारत सरकार अगर कोई दवा अत्यधिक महंगी है, जनता के लिए उपलब्ध नहीं है या पेटेंटधारी ने भारत में तीन साल में उत्पादन सुविधा स्थापित नहीं की तो अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती है—जिससे जेनेरिक दवा निर्माताओं को सस्ती दवा बनाने का अधिकार मिलता है। उदारहरण के लिए साल 2012 में Natco Pharma को कैंसर की दवा Sorafenib के लिए यह लाइसेंस देने से दवा की कीमत ₹2.84 लाख/महीना से घटाकर ₹8,800 प्रति माह कर दी गई थी।
कमी कहां?
भारत ने 1995 में WTO के अंतर्गत TRIPS समझौते के तहत इन अधिकारों को स्वीकार किया था। लेकिन स्वैच्छिक लाइसेंसिंग पर लगी इस नई प्राथमिकता से ऐसा कोई अधिकार सीमित महसूस हो सकता है। अगर आपात स्थिति में सरकार सस्ती दवाओं तक पहुंच देने में सक्षम नहीं रहे तो इसका उल्टा असर होगा।
मरीजों और कार्यकर्ताओं की लड़ाई
केरल और कर्नाटक में मरीजों ने कोर्ट में आवेदन कर रखा है कि उन्हें महंगी दवाओं (जैसे Ribociclib, Abemaciclib, Risdiplam, Trikafta) के लिए अनिवार्य लाइसेंस मिले। स्वास्थ्य कार्यकर्ता Gopakumar का कहना है कि सरकार इन दवाओं पर स्थायी कंपल्सरी लाइसेंस नहीं दे रही—जिसे तकनीकी रूप से सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य हित के लिए जरूरी बता रही है।