10 फीसद वोट में फंसा अखिलेश यादव की जीत या हार, किसका होगा कन्नौज ?

कन्नौज लोकसभा समाजवादी पार्टी परंपरागत सीट रही है. लेकिन 2019 में यह मिथक टूट चुका है. इस सीट से सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनावी मैदान में हैं

By :  Lalit Rai
Update: 2024-05-04 06:21 GMT

Kannauj  Loksabha  News :  उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में कन्नौज को इत्र नगरी के नाम से भी जाना जाता है. इत्र का इस्तेमाल कहां कहां होता है हम सबको पता है. लेकिन 2024 के आम चुनाव में इत्र की खूशबू कौन बिखेरेगा अहम सवाल है. दरअसल कन्नौज की सीट पर समाजवादी पार्टी का कब्जा रहा है. ऐसा माना जाता था कि कन्नौज और समाजवादी पार्टी एक दूसरे के पूरक हैं. यानी आप अलग नहीं देख सकते. लेकिन 2019 के चुनावी नतीजों में वो मिथक टूटा जब बीजेपी ने अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को हरा दिया. 2019 का नतीजा बीजेपी की जीत से अधिक समाजवादी पार्टी की हार थी. पांच साल बाद जब कन्नौज एक बार फिर चर्चा में दो वजहों से आया.

सुब्रत पाठक पर बीजेपी का भरोसा बरकरार

बीजेपी ने अपने प्रत्याशी के नाम का ऐलान कर दिया था. सुब्रत पाठक पर एक बार फिर भरोसा जताया. लेकिन समाजवादी पार्टी की तरफ से उम्मीदवार के ऐलान में देरी हुई. जब तेज प्रताप यादव का नाम सामने आया तो कन्नौज में पार्टी के लोग उदासीन दिखे. सवाल यह था कि अखिलेश यादव चुनाव लड़ेंगे या नहीं. दरअसल मीडिया में इस तरह की खबरें भी आ रही थीं कि वो चुनाव नहीं लड़ने वाले हैं. हालांकि सभी कयासो को दरकिनार करते हुए अखिलेश यादव चुनावी समर में हैं. नामांकन के बाद उन्होंने कहा कि कन्नौज के प्रति लगाव सिर्फ राजनीतिक नहीं है बल्कि भावनात्मक तौर पर भी है.

बीजेपी और सपा दोनों के लिए कन्नौज अहम

राजनीति के जानकार भी कहते हैं कि कन्नौज का नतीजा ना सिर्फ समाजवादी पार्टी बल्कि बीजेपी के लिए भी अहम है. सबसे पहले यहां मतदाताओं की संख्या और जातीय समीकरण की बात करते हैं. कन्नौज में कुल मतदाताओं की संख्या 19 लाख के करीब है. पुरुष वोटर्स और महिलाओं के बीच फासला कम है. इसके साथ ही अगर आप जातीय समीकरण देखें तो दलित 23 फीसद, यादव 16 फीसद, ब्राह्मण 11 फीसद, मुस्लिम 10 फीसद, क्षत्रिय 7 फीसद, वैश्य 3 फीसद, गैर यादव पिछड़ी जातियां 19 फीसद और अन्य जातियां 11 फीसद हैं. अब आप 2019 के नतीजों को देखें तो सपा और बसपा का गठबंधन था यानी कि 39 फीसद वोट बैंक पुख्ता तौर पर डिंपल यादव के साथ था. जबकि 61 फीसद मतों में बंदवारा हो रहा था. अगर मतों की संख्या देखें तो सुब्रत पाठक को 5 लाख 63 हजार और डिंपल यादव को 5 लाख 50 हजार मिले थे और वो 13 हजार के अंतर से चुनाव हार गईं. 2014 के चुनाव में डिंपल यादव ने सुब्रत पाठक को करीब 20 हजार मतों से हराया था. उस वक्त सपा और बसपा के बीच गठबंधन नहीं था. इसका अर्थ क्या है. उसे समझने की जरूरत है.

इस वजह से सपा की राह में मुश्किल

राजनीति के जानकार कहते हैं कि अगर आप 2014 के चुनावी नतीजों को देखें तो उस वक्त सूबे में अखिलेश यादव की सरकार थी. इस तरह के आरोप भी लगे कि प्रशासनिक मशीनरी ने डिंपल यादव को चुनावी जीत में मदद की. हालांकि 2019 में तस्वीर बदल चुकी थी. सवाल यह है कि अब जब बीएसपी का गठबंधन सपा के साथ नहीं है तो क्या होगा. इस सवाल के जवाब में स्थानीय प्रशांत शुक्ला बताते हैं कि आप अगर देखें तो बीएसपी में मुस्लिम कैंडिडेट इमरान बिन जफर को मौका दिया है. इसका अर्थ यह है कि मायावती ने लड़ाई को दिलचस्प बना दिया. बीएसपी के कोर वोट पार्टी को छोड़कर नहीं जाएंगे. ऐसे में अगर इमरान बिल जफर मुस्लिम मतों में सेंधमारी करने में नाकाम रहे तो अखिलेश यादव के सामने मुश्किल आ सकती है. 

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