यूपी की राजनीति में क्या है 'इटावा' प्रयोग, 2019 में दिखा रंग लेकिन..

यूपी की सियासत में 1993 का साल अहम साबित हुआ.एक तरफ राम मंदिर आंदोलन उफान पर था, लेकिन सियासी तौर जाति आधारित राजनीति का असर सत्ता पर कब्जे में नजर आया.

By :  Lalit Rai
Update: 2024-05-14 04:54 GMT

2019 में समाजवादी पार्टी(एसपी) और बीएसपी में गठबंधन क्यों हुआ. करीब 26 साल के बाद दोबारा गठबंधन हुआ तो आम चुनाव के कुछ महीनों के बाद टूट क्यों गया. एसपी और बीएसपी के बीच दोस्ती का जो हाथ बढ़ा था वो 1993 के यूपी विधानसभा चुनाव में नजर आया. लेकिन 1995 स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों दलों में दूरी इतनी बढ़ी कि उसे पाटने में 26 साल लग गए. लेकिन विश्वास का धागा कमजोर निकला और दोनों दलों की राह अलग अलग है. इन सबके बीच एक खास प्रसंग का जिक्र करेंगे जिसका नाता मुलायम सिंह यादव के गृह जिले इटावा से है.

यह वाक्या करीब 30 से 35 साल पुराना है. बीएसपी के संस्थापक कांशीराम, मायावती के साथ यूपी के जिले जिले घूमते थे और दलित समाज को संदेश दे रहे थे कि इकट्ठा होकर ही अपने हक की बात कर सकते हो. यात्रा के क्रम में वो इटावा जिले जा पहुंचे. इस जिले की एक खासियत यह है कि यहां पर पांच नदियों यमुना, चंबल, सिंद, कावरी और पहुजा का संगम होता है. किसी ने जब यह बात कांशीराम को बताई. यह जान उन्होंने कहा कि अगर दलित समाज के साथ साथ दूसरे पिछड़े समाज एक साथ आ जाएं तो तस्वीर बदल जाए. राजनीतिक पहिया घूमता रहा और वो समय आ गया जब यूपी की राजनीति में समाजवादी पार्टी और बीएसपी दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया.

1993 में विधानसभा का चुनाव होना था. उससे पहले यूपी में यह सामान्य सी धारणा बनी कि मंडल की आंधी में कमंडल टिक नहीं पाएगा. इस तरह की धारणा सच भी साबित हुई.सपा और बसपा सरकार बनाने में कामयाब हुए. मुलायम सिंह समझौते के तहत ढाई साल के लिए सीएम बने, हालांकि जब सत्ता हस्तांतरण की बारी आई तो वो अपने वादे से मुकर गए और 1995 में जो कुछ हुआ उसके बाद यह तय हो गया कि इटावा एक्सपेरिमेंट की मियाद एक्सपायर हो चुकी है. बीजेपी की मदद से मायावती सत्ता में काबिज हुईं.

सियासत के जानकार बताते हैं कि सामाजिक समीकरण को साधने की दिशा में वो एक अच्छा कदम था. लेकिन सत्ता सुख समाजवादी के लिए प्राथमिकता बना और उसका हश्र पूरी दुनिया ने देखा. 1995 की घटना को मायावती ने दिल पर लिया था और उसके पीछे वजह भी थी. कहा जाता है कि अगर बीजेपी के कुछ नेता समय पर स्टेट गेस्ट हाउस नहीं पहुंचे होते तो कुछ अनहोनी हो जाती. उस घटना के बाद मायावती ने ऐलान कर दिया कि अब आगे की राजनीति समाजवादी पार्टी के साथ नहीं करने वाली हैं. लेकिन सियासी फैसले कभी टिकाऊ नहीं होते.

2014 के बाद देश और यूपी की राजनीति में बड़ा बदलाव लाया. 2014 में नरेंद्र मोदी देश की सत्ता पर काबिज हो चुके थे. तीन साल के बाद यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बंपर जीत दर्ज की. उस जीत का असर यह हुआ कि सपा- कांग्रेस औक बीएसपी को लगने लगा कि बीती बात भुलाकर आगे बढ़ने की जरूरत है. 2017 के कड़वे अनुभव के बाद सपा और कांग्रेस 2019 में एक साथ तो नहीं आए. लेकिन 2019 में सपा और बीएसपी में गठबंधन हुआ.

2019 के एसपी और बीएसपी गठबंधन से सियासी जानकारों का लगा कि एक बार फिर सामाजिक न्याय की राजनीति काम करती नजर आएगी. लेकिन 2019 के नतीजों से उस सोच को गलत साबित कर दिया. सपा की मदद से 10 सीट हासिल करने वाली मायावती ने भी अपने रास्ते अलग कर लिए और आगे की राह अकेले चलने की ठानी. 

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