तीन मिलकर बने महायुति सब मिले तो प्रचंड बहुमत, जीत की ये हैं पांच बड़ी वजहें

महाराष्ट्र में महायुति की प्रचंड जीत चर्चा में है। आपको उन पांच बड़ी वजहों के बारे में बताएंगे जिसका फायदा देवेंद्र फणनवीस, एकनाथ शिंदे और अजित पवार के धड़े को मिला।

By :  Lalit Rai
Update: 2024-11-24 05:35 GMT

Mahayuti Performance in Maharashtra:  23 नवंबर का दिन महाराष्ट्र के चुनावी इतिहास में महायुति के लिए खास है। हो भी क्यों नहीं महायुति ने 288 में से 235 सीटों पर जीत का झंडा गाड़ दिया जबकि महाविकास अघाड़ी को सिर्फ 49 सीटों से संतोष करना पड़ा। अगर महायुति के घटक दलों की बात करें तो बीजेपी के खाते में 129 सीट, शिवसेना शिंदे गुट को 55, एनसीपी शरद पवार गुट (NCP Sharad Pawar)को 55 सीटें मिलीं। जबकि महाविकास अघाड़ी (Maha Vikas Aghadi)में शिवसेना यूबीटी को 21, एनसीपी शरद पवार को 11 और कांग्रेस के खाते में 16 सीटें आईं। अगर इसे और सुक्ष्म स्तर पर देखें तो बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीटों का फासला आठ गुना, एनसीपी अजित पवार और शरद पवार के बीच का फासला तीन गुना, शिवसेना शिंदे और उद्धव ठाकरे गुट (Shiv Sena UBT ) के बीच का फासला ढाई गुना है। इसके साथ ही शिवसेना शिंदे गुट के खाते में महाविकास अघाड़ी के कुल घटक दलों से अधिक सीट आई है। अब सवाल यह है कि महायुति ने यह करिश्मा कैसे कर दिखाया। 

महाराष्ट्र को सियासी तौर पर पांच बड़े हिस्सों में बांटा गया है। विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र, कोंकण- मुंबई रीजन। 2024 के नतीजों से साफ है कि इस दफा महायुति का जादू हर रीजन में चला है। खास बात यह है कि महायुति के घटक दलों ने महाविकास अघाड़ी के गढ़ में सेंध लगा दी है। शरद पवार (Sharad Pawar)का जिस पश्चिम महाराष्ट्र में जोर चला करता था वहां एनसीपी अजित पवार गुट ने बेहतर प्रदर्शन किया है। कोंकण- मुंबई रीजन में जहां शिवसेना यूबीटी का जोर था वहां शिंदे वाली शिवसेना ने कमाल कर दिया है। विदर्भ- मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र में जहां कांग्रेस का सिक्का चला करता था वहां बीजेपी ने साफ कर दिया। इसका अर्थ यह कि राज्य का सभी समाज एकजुट होकर महायुति के साथ आगे के सफर पर निकल पड़ा। 

आरक्षण वाली बात कुंद पड़ी

आम चुनाव 2024 में दलित समाज आरक्षण के नाम महायुति से किनारा कस लिया था। लेकिन नतीजों से पता चलता है कि इस समाज ने महायुति में भरोसा जताया। इसके पीछे वजह यह बताई जा रही है कि आम चुनाव के समय जिस तरह से महाविकास अघाड़ी ने कैंपेन के जरिए नैरेटिव सेट किया उसका तोड़ महायुति नहीं निकाल पायी। लेकिन इस दफा दलित समाज को महायुति यह समझाने में कामयाब रहा कि आरक्षण की दुश्मन कांग्रेस है। खासतौर से कानून मंत्री किरन रिजिजू ने नव बौद्धों को अपनी बात समझाने में कामयाब हुए। इसके साथ ही एससी-एसटी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित मतों में विभाजन भी हुआ।

मराठा आरक्षण का मुद्दा हल्का रहा 

मराठा आरक्षण भी अहम मुद्दा रहा है। इस मुद्दे का जिक्र होते ही मनोज जरांगे का नाम जेहन में आता है। आपको याद होगा कि वो कहा करते थे कि देवेंद्र फणनवीस दोहरा खेल खेल रहे हैं। यानी कि फणनवीस आरक्षण की बात तो करते हैं लेकिन जमीन पर उतरने नहीं देना चाहते हैं। चार नवंबर की नाम वापसी से ठीक एक दिन पहले तक जरांगे 25 उम्मीदवारों को चुनाव लड़ा रहे थे। लेकिन किसी भी दल से स्पष्ट समर्थन नहीं मिलने की सूरत में नाम वापस करा लिए। इससे बड़े स्तर पर संदेह हुआ कि वो खुद राजनीतिक का शिकार हो रहे हैं। ऐसी सूरत में मराठा वोट भी बंटा जिसका फायदा महायुति को मिला। 

ओबीसी, महायुति के पक्ष में लामबंद

महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर रखने वाले कहते हैं कि मराठा आरक्षण को लेकर मनोज जरांगे जितना सक्रिय हुए और जिस तरह से बीजेपी के खिलाफ खड़े हुए उसका फायदा महायुति को हुआ। मराठा आरक्षण का तकनीकी पेंच यह रहा कि कोई भी राज्य सरकार 50 फीसद से आरक्षण नहीं दे सकती। जबकि जरांगे इस विषय पर भूख हड़ताल के जरिए शिंदे सरकार पर दबाव बना चुके थे। शिंदे सरकार यानी डिप्टी सीएम फणनवीस इस विषय पर कुछ आगे बढ़े। लेरिन जरांगे ने मौजूदा 27 फीसद आरक्षण में सब कोटे की बात की तो महायुति की प्रतिक्रिया ओबीसी धड़े के समर्थन में रही है और उसका फायदा बीजेपी को इस चुनाव में मिलता हुआ नजर आ रहा है। 

सोयाबीन, कपास नहीं बन सका मुद्दा

आम चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में प्याज किसानों(Farmers Issue in Maharashtra) की अपनी दिक्कत थी। केंद्र सरकार की तरफ से एक्सपोर्ट पर बैन हटाया गया। लेकिन फैसला लेने में देरी हुई और उसका खामियाजा भुगतना पड़ा। इस दफा सोयाबीन और कपास को लेकर नाराजगी थी। हालांकि इस दफा समय पर रहते हुए केंद्र की तरफ से एमएसपी का ऐलान किया गया और उसका फायदा चुनाव में मिलता नजर आ रहा है। यह बात अलग है कि महाविकास अघाड़ी की तरफ से विदर्भ और उत्तर महाराष्ट् के इलाकों में इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की गई। लेकिन नतीजों से पता चलता है कि विपक्ष की बात पर किसानों ने भरोसा ना के बराबर किया। 

जमीन पर भी साथ नजर आए तीनों दल

आखिरी सबसे बड़ी वजह महायुति के घटक दलों का समर्थन सिर्फ बंद कमरों तक सीमित नहीं थी। बल्कि जमीन पर कार्यकर्ताओं में भी एका नजर आया। सीट बंटवारे के समय थोड़ी बहुत जो अनबन थी वो प्रचार अभियान के जोर पकड़ते ही कमजोर होने लगा। महायुति के घटक दलों यह महसूस कर रहे थे कि अगर विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सके तो कार्यकर्ताओं के जोश को बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा। फिर पांच साल तक गोदावरी में कितना पानी बह चुका होगा उसके बारे में सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। यही नहीं राज्य में बड़ा चुनाव 2029 (General Election 2029) में होता और कार्यकर्ताओं के मनोबल बनाए रखने की चुनौती होती। 

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