कैसे एक आदमी असम के गरीब बच्चों को पढ़ाई का मौका दे रहा है
कोरोना के समय जब लोग मुश्किल में थे, खान ने अपने ज़मीन पर ही यह स्कूल बनवाया। उन्होंने बताया, इन इलाकों के बच्चों के लिए स्कूल नहीं थे।;
जपुर, असम के रहने वाले 66 साल के तबीबुल्लाह खान पिछले 34 सालों से हर दिन स्कूल जाते हैं। वो कहते हैं, "छुट्टी के दिन भी मैं स्कूल आता हूँ। यह मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गया है। यहाँ बैठता हूँ, किताबें पढ़ता हूँ, और लोग मुझसे मिलने भी आते हैं।"
खान ने अब तक तीन स्कूल शुरू किए हैं। उनका नया स्कूल "पूरबांचल जातीय विद्यालय" है, जो 2022 में खुला और तेजपुर के पास नापाम गाँव में है। यह गाँव जिया-भाराली नदी के पास है, जहाँ बहुत से गरीब परिवार नदी के टापुओं (चपोरी) में रहते हैं।
कोरोना के समय जब लोग मुश्किल में थे, खान ने अपने ज़मीन पर ही यह स्कूल बनवाया। उन्होंने बताया, "इन इलाकों के बच्चों के लिए स्कूल नहीं थे। उनके माँ-बाप गरीब हैं और स्कूल की अहमियत नहीं समझते। इसलिए मैं खुद उनके घर-घर जाकर उन्हें मनाता कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजें।"
इस स्कूल में अब सातवीं तक पढ़ाई होती है। यहाँ हर महीने सिर्फ ₹200-300 की फीस ली जाती है, ताकि गरीब बच्चे पढ़ाई कर सकें।
खान कहते हैं, "हम बहुत कम फीस लेते हैं। इसी से स्कूल चलता है और शिक्षकों को थोड़ी तनख्वाह (₹2,000 महीना) मिलती है।" इस स्कूल में सभी महिला टीचर हैं और इनमें से ज्यादातर मुस्लिम हैं। ये अपने घरों में पहली बार पढ़ी-लिखी महिलाएँ हैं। वे चाहती हैं कि समाज में बदलाव आए।
स्कूल की इमारत भी बहुत साधारण है—टिन की छत, ईंट की दीवारें और बाँस से बने कमरे।
चपोरी इलाकों में स्कूलों की कमी है। यहाँ लोग बहुत गरीब हैं और ज़्यादातर अनपढ़। हर साल बाढ़ और ज़मीन कटने की वजह से यहाँ के लोग और भी परेशान हो जाते हैं।
खान कॉलेज के समय में एक राजनीतिक संगठन से जुड़े थे और हमेशा चाहते थे कि सबको बराबरी का हक़ मिले। वे कहते हैं, "शिक्षा ही असली ताक़त है। मैंने गरीब मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल खोलने का फैसला किया।"
उन्होंने 1991 में पहला स्कूल खोला था और अब तक कई बच्चों को पढ़ाया है। उनका पुराना स्कूल अब सरकारी हो चुका है, लेकिन खान को पेंशन नहीं मिलती क्योंकि वे सरकारी कर्मचारी नहीं थे।
आज इलाके में कई स्कूल हैं, लेकिन सबसे पहले पहल करने वाले खान ही थे।
तेजपुर यूनिवर्सिटी की एक प्रोफेसर कहती हैं कि खान का स्कूल अब एक भरोसेमंद जगह बन चुका है, जहाँ अच्छे से पढ़ाई होती है।
सरकार ने कई पुराने स्कूलों को ‘वेंचर स्कूल’ कहा था, जो बिना सरकारी मदद के चलते थे। अब इनमें से कई बंद हो चुके हैं।
खान ने रिटायरमेंट के बाद भी हार नहीं मानी और एक नया स्कूल शुरू किया। वह कहते हैं, "हमारे इलाके के बच्चों को और स्कूल चाहिए।"
पास के एक गाँव के लोगों ने बताया कि उनके स्कूल में बस एक ही टीचर है, जबकि 50 बच्चे हैं। सब चाहते हैं कि सरकार स्कूल में और टीचर भेजे या इसे बड़ा स्कूल बनाए।
इन इलाकों के लोग बहुत ही गरीब हैं। स्कूल और अस्पताल की सुविधा बहुत कम है। ऊपर से, चूंकि ये लोग बंगाली मुसलमान हैं, कई बार इन पर शक किया जाता है।
एक बुजुर्ग किसान ने कहा, "हम भी भारतीय हैं। सरकार को चाहिए कि हमारे बच्चों के लिए अच्छे स्कूल बनाए।"
असम में पिछले 23 सालों में ब्रह्मपुत्र नदी के चपोरी इलाकों में स्कूलों की संख्या बहुत घट गई है। पहले 218 हाई स्कूल थे, अब सिर्फ 102 बचे हैं।
यहाँ टीचरों की भी कमी है। कुछ स्कूलों में तो साइंस या कॉमर्स की पढ़ाई का विकल्प भी नहीं है। इसके कारण बच्चों को बाहर जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है।
पूरबांचल स्कूल की टीचर नरगिस खातून कहती हैं, "मैं चाहती हूँ कि ये बच्चे पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े हों।" दूसरी कक्षा की एक बच्ची फ़हीमा कहती है, "मैं भी अपनी मैडम जैसी टीचर बनना चाहती हूँ।"