अरावली बची तो जीवन बचेगा: पहाड़ नहीं ढाल है ये

भूकंप, जल संकट और प्रदूषण से दिल्ली-एनसीआर को बचाने वाली अरावली पर खनन का खतरा, ज़मीनी हकीकत बता रहे अरावली बचाने के लिए कई बार मुहीम चलाने वाले रामावतार यादव.

Update: 2025-12-23 13:32 GMT

Aravalli Mountain Range : गुजरात से दिल्ली तक फैली अरावली पर्वत श्रृंखला एक बार फिर देश की सियासत, न्याय और पर्यावरण चर्चा के केंद्र में है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में खनन को लेकर टिप्पणी करते हुए साफ कहा कि 100 मीटर ऊंचे पर्वतों पर किसी भी तरह की माइनिंग नहीं हो सकती। अदालत की इस टिप्पणी को सिर्फ एक कानूनी निर्देश नहीं, बल्कि प्रकृति के पक्ष में दी गई चेतावनी के तौर पर देखा जा रहा है। इसके बाद केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट किया कि अरावली का संरक्षण उसकी जिम्मेदारी है और सरकार इस दिशा में गंभीर है। सवाल यह है कि क्या यह सख्ती सिर्फ कागजों तक सीमित रहेगी या ज़मीन पर भी असर दिखेगा।


चार राज्यों का सुरक्षा कवच

द फेडरल की एक ग्राउंड रिपोर्ट में अरावली के महत्व को समझने के लिए मानेसर के 79 वर्षीय रामावतार यादव से बातचीत की गई। पूर्व सरपंच रहे यादव पिछले कई दशकों से अरावली संरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे बताते हैं कि अरावली सिर्फ पहाड़ों की श्रृंखला नहीं, बल्कि दिल्ली-एनसीआर और राजस्थान के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच है। चार राज्यों में फैली यह पर्वत श्रृंखला रेगिस्तान के विस्तार को रोकती है, हवा की दिशा को संतुलित करती है और पूरे क्षेत्र के मौसम को प्रभावित करती है। यादव के मुताबिक, अगर अरावली कमजोर हुई, तो इसका असर सिर्फ जंगलों पर नहीं, बल्कि शहरों की सांसों पर भी पड़ेगा।

भूकंप के झटकों से बचाव की ढाल

रामावतार यादव का कहना है कि दिल्ली-एनसीआर सिस्मिक ज़ोन-4 में आता है, जो भूकंप के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील माना जाता है। ऐसे में अरावली एक अदृश्य सुरक्षा दीवार की तरह काम करती है। भले ही इसकी ऊंचाई हिमालय जैसी न हो, लेकिन धरती के भीतर इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। यही वजह है कि यह पर्वत श्रृंखला भूकंप के झटकों को काफी हद तक सोख लेती है। यादव चेतावनी देते हैं कि अगर खनन और ब्लास्टिंग के ज़रिए इन पहाड़ियों की संरचना को कमजोर किया गया, तो इसका खतरा सीधे लाखों लोगों की जान से जुड़ जाएगा।

खनन से उजड़ती पूरी इकोलॉजी

रामावतार यादव खनन को सिर्फ पहाड़ तोड़ने की प्रक्रिया नहीं मानते। उनके शब्दों में, “आज अरावली से छेड़छाड़ पाप करने के बराबर है, चाहे खनन वैध ही क्यों न हो।” ब्लास्टिंग से न सिर्फ चट्टानें टूटती हैं, बल्कि पूरा इकोलॉजिकल सिस्टम बिखर जाता है। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक आवास छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि ये जीव ध्वनि और कंपन के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। इसका असर धीरे-धीरे इंसानों तक पहुंचता है। हवा, पानी और मिट्टी तीनों पर।

सूखते जोहड़ और जल संकट

अरावली से सटे गांवों में कभी जोहड़ और तालाब जीवन की धुरी हुआ करते थे। इन जल स्रोतों में पानी अरावली की पहाड़ियों से रिसकर आता था, जिससे गांवों का जलस्तर संतुलित रहता था। लेकिन खनन और अंधाधुंध निर्माण ने इस प्राकृतिक व्यवस्था को तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि कई जोहड़ सूख गए और कई पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। यादव बताते हैं कि आज जिन इलाकों में पानी के टैंकर दौड़ रहे हैं, वहां कभी सालभर मीठा पानी उपलब्ध रहता था। यह संकट सीधे अरावली की अनदेखी से जुड़ा है।

गलत पेड़, गलत नीतियां

रामावतार यादव वन विभाग की नीतियों पर भी सवाल उठाते हैं। उनका कहना है कि अरावली में ऐसे पेड़ लगाए गए, जो इस क्षेत्र की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं। मस्कट कीकर जैसे पेड़ ज्यादा पानी सोखते हैं, जबकि अरावली के पारंपरिक पेड़ों को बहुत कम पानी की जरूरत होती है। गलत प्रजातियों के कारण जलस्तर और तेजी से गिरा है। यादव मानते हैं कि संरक्षण सिर्फ क्षेत्र घोषित करने से नहीं, बल्कि सही पेड़, सही नीति और स्थानीय समझ से होगा।

कानूनी लड़ाई और अधूरे सवाल

रामावतार यादव ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की मदद से करीब 8500 एकड़ अरावली क्षेत्र को संरक्षित करवाया। इससे पहले उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के कार्यकाल के दौरान बड़े स्तर पर धरना प्रदर्शन करते हुए अरावली के 28 हजार 500 एकड़ हिस्से को बचाया था, जिसमें कई लोगों ने उनका साथ दिया था। इसके लिए उन्होंने सरकार के खिलाफ आवाज उठाई और लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के 100 मीटर ऊंचाई वाले निर्देश के बाद भी भ्रम बना हुआ है। यादव कहते हैं कि पूरे हरियाणा में 100 मीटर से ऊंचा सिर्फ एक पहाड़ है, ऐसे में ऊंचाई मापने और नियम लागू करने की प्रक्रिया साफ नहीं है। उनका मानना है कि अरावली सिर्फ पत्थर नहीं, संस्कृति और जीवन की रीढ़ है—अगर अब भी नहीं बची, तो नुकसान अपूरणीय होगा।


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