'मेड इन इंडिया' का नया दौर: ट्रंप की नीति से बढ़ी स्वदेशी सोच
जो बहिष्कार और हाथ से बुने कपड़े के उपनिवेश-विरोधी औज़ार के रूप में शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे आर्थिक राष्ट्रवाद और आत्मनिर्भरता के व्यापक मुहावरे में विकसित हो गया है।
इस वर्ष गर्मियों में अचानक स्वदेशी यानी घरेलू उत्पादों को प्राथमिकता देने की पुरानी मांग फिर Trend बनने लगी और इसकी वजह थी डोनाल्ड ट्रंप की वापसी और भारत-विदेश व्यापार पर उनकी नई नीतियां। इस घडी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बड़े जोर से “मेड‑इन‑इंडिया” का नारा दिया, यह कहते हुए कि निवेश तो विदेश से आ सकता है, लेकिन जो मेहनत होगी, वो हमारी ही होगी।
मेड इन इंडिया — नए संदर्भ में पुनरुत्थान
मोदी सरकार वर्षो से Make in India और Atmanirbhar Bharat जैसे अभियान चला रही है, ताकि घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा मिले। लेकिन इस बार ये नारा सिर्फ नीति के रूप में नहीं बल्कि ग्लोबल व्यापार दबाव के जवाब के रूप में सामने आया। RSS प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में नागपुर में विजयदशमी भाषण में कहा कि स्वदेशी केवल आर्थिक नहीं बल्कि आत्मसम्मान, सामाजिक एकता और राष्ट्रीय चरित्र से जुड़ा है। उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे और अधिक देसी उत्पादों का उपयोग करें।
स्वदेशी आंदोलन की यात्रा
7 अगस्त 1905 को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसमें विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने की अपील हुई थी। उस समय से यह आंदोलन न सिर्फ आर्थिक रहा, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वरूप भी ले चुका है। भारत में कालातीत में वस्त्र उद्योग एक प्रमुख क्षेत्र था। बंगाल की मशहूर मुसलीन इतनी महीन थी कि साड़ी को अंगूठी से निकाला जा सकता था। लेकिन औपनिवेशिक नीतियों और विदेशी वस्त्र आयात ने इस हस्तकला को लगभग भुला दिया।
मशीन वस्त्रों का प्रकोप
ब्रिटिश काल में गुजरात की कपास मुंबई (तब बॉम्बे) की नीलामी मंडियों से मशीनरी उद्योगों को कच्चा माल देती थी, खासकर कोयला एवं स्टीम इंजन युग में। इस प्रवाह ने भारतीय हस्तशिल्प जैसे ज़रदोसी, चिकनकारी, पाट्टचित्र, इकट जाकंटे, पायथानी, कांचीवरम आदि को भारी क्षति पहुंचाई। स्वदेशी आंदोलन सिर्फ आंदोलन था नहीं — वह पुनरुत्थान की दिशा में कदम था। विदेशी वस्त्रों को आग लगाना, खादी-चालन केंद्र खोलना, स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी जैसे प्रयास ऐसी ही पहलें थीं।
आलोचना, विवाद और विचार
स्वदेशी को लेकर मतभेद रहे। हार्ड लाइन वाले नेताओं ने इसे राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्ष का हिस्सा माना। मध्यमार्ग वालों ने विधायी सुधारों पर बल दिया, लेकिन लोकप्रियता और जन-उत्साह ने उन्हें इस बड़े आंदोलन में खींच लिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने घरे-ब़ैरे में इस आंदोलन की अम्बीवैलेंस (द्विविधा) को उजागर किया — देशभक्ति और मानवतावाद के बीच संतुलन पर सवाल उठाया। गांधीजी ने इसे न केवल रणनीति बल्कि नैतिक जीवनशैली माना — उन्होंने खादी और ग्राम उद्योग को आत्मनिर्भरता के प्रतीक में बदला।
नया दौर, नए रूप
आज स्वदेशी का स्वरुप बदल गया है। अब यह न सिर्फ कपड़ा या खादी पर केंद्रित नहीं, बल्कि डिजिटल स्वराज, सप्लाई-चेन निर्भरता और स्थानीय तकनीक पर जोर दे रहा है। उदाहरण के लिए Arattai नामक मैसेजिंग ऐप को मंत्री समर्थन मिलने पर डाउनलोड बढ़ने लगा। भारतीय टेक्नोलॉजी कंपनियां जैसे MapmyIndia, Zoho, Freshworks आदि “स्वदेशी विकल्प” बनकर सामने आई हैं।
स्वदेशी का क्रांति-सा प्रतीक
इतिहास सिखाता है कि स्वदेशी आंदोलन ने समय-समय पर अलग-अलग रूप लिया है — कभी विरोध आंदोलन, कभी नैतिक जीवन दर्शन, कभी आर्थिक रणनीति। आज यह “वोकल फॉर लोकल” और “आत्मनिर्भर भारत” जैसे नारे लेकर लौटा है, लेकिन उसे स्थिरता और परिणाम देना होगा — सिर्फ शो नहीं, वाकई बदलाव।