‘मोदी का दोस्त’ ट्रंप, 50% टैरिफ लगाकर भारत की विदेश नीति में सेंध
ट्रंप की टैरिफ नीति ने भारत को कूटनीति की सबसे बड़ी परीक्षा के सामने ला खड़ा किया है। अब यह भारत के नेतृत्व पर निर्भर करेगा कि वह अपने रणनीतिक हितों, आर्थिक स्थिरता और वैश्विक पहचान को कैसे संतुलित करता है।;
शीत युद्ध के बाद से भारत की कूटनीति पर शायद अब तक का सबसे बड़ा दबाव देखने को मिल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय वस्तुओं पर 50% तक टैरिफ लगाने का फैसला मोदी सरकार के लिए एक अप्रत्याशित झटका है और यह स्पष्ट संकेत है कि अब भारत को अपनी विदेश नीति में कठिन और स्पष्ट विकल्प चुनने होंगे।
अमेरिका की चेतावनी
जहां तक वैश्विक स्तर पर लागू पारस्परिक टैरिफ का सवाल था, भारत को ज़्यादा आपत्ति नहीं थी। लेकिन जब ट्रंप ने भारत और कुछ अन्य देशों—जैसे ब्राज़ील को निशाना बनाना शुरू किया तो यह स्पष्ट हो गया कि भारत अब ट्रंप और पुतिन दोनों के साथ एक साथ नहीं चल सकता।
बदलती भू-राजनीति
सोवियत संघ के पतन के बाद भारत ने अमेरिका के साथ रिश्ते मजबूत किए, लेकिन रूस के साथ ऐतिहासिक संबंधों को भी बरकरार रखा। हालांकि, बीते दो दशकों में चीन के उदय और रूस की पश्चिम विरोधी नीति ने समीकरण बदल दिए। पुतिन के सत्ता में आने के बाद रूस ने फिर से अमेरिका और नाटो को चुनौती देना शुरू किया।
रिश्तों में उतार-चढ़ाव
भारत के लिए मुश्किल तब और बढ़ी, जब रूस ने पाकिस्तान के साथ रक्षा सहयोग की बात की—जो कि अतीत में कभी नहीं हुआ था। यह संकेत था कि भारत अगर पश्चिम की ओर झुकेगा तो रूस विकल्प तलाशेगा। इसके बाद भारत ने रूस को फिर से प्राथमिकता दी और विशेष साझेदारी बनाए रखने की कोशिश की। यूक्रेन युद्ध के बाद, जब अमेरिका और यूरोप ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तब भारत ने रूसी तेल खरीद में जबरदस्त इज़ाफा किया—2% से बढ़ाकर लगभग 35% तक। अमेरिका ने इसे अनदेखा किया, लेकिन अब ट्रंप की सरकार इसे भारत पर दबाव बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
पिछले तीन दशकों में भारत ने अमेरिका के साथ संबंधों को कई गुना बढ़ाया है—आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और रक्षा क्षेत्रों में। चीन के खिलाफ अमेरिका की रणनीति में भारत को एक "स्ट्रैटेजिक पार्टनर" की भूमिका दी गई। भारत क्वाड समूह में शामिल हुआ और दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी हितों के रक्षक की भूमिका निभाने लगा।
ट्रंप ने तोड़ा भ्रम
लेकिन ट्रंप के आक्रामक रवैये ने भारत की अमेरिका के प्रति ‘विशेष संबंधों’ की धारणा को चकनाचूर कर दिया। यह संदेश स्पष्ट है: अमेरिका तभी तक साथ है जब तक भारत उसके लिए उपयोगी है। जैसे ही भारत ने अमेरिका की अनौपचारिक "लाल रेखा" पार की, यह दोस्ती महज़ एक भ्रम साबित हुई।
चीन की ओर एक और नजर
रिपोर्टों के अनुसार, अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात साल बाद चीन यात्रा की योजना बना रहे हैं। हाल के वर्षों में भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव में कमी आई है। लेकिन यह मान लेना कि चीन इस संकट में भारत की मदद करेगा, जोखिम भरा हो सकता है—क्योंकि चीन पाकिस्तान का करीबी सहयोगी है और किसी भी मदद के बदले उसकी अपनी शर्तें होंगी।
भारत की दुविधा
भारत के सामने अब गंभीर कूटनीतिक दुविधा है। वह ट्रंप को नाराज़ नहीं कर सकता और पुतिन को नज़रअंदाज़ करना भी भारी पड़ सकता है। अगर भारत रूस से तेल खरीद जारी रखता है तो अमेरिका और कड़ा रवैया अपना सकता है। अगर भारत तेल खरीद बंद करता है तो रूस इसे विश्वासघात मानेगा। यह भारत के रणनीतिक हितों और दशकों पुराने भरोसे के रिश्तों को खतरे में डाल सकता है।
सरकार का रुख
भारत सरकार ने कहा है कि वह "राष्ट्रीय हित" में निर्णय लेगी और टैरिफ के खिलाफ डटकर मुकाबला करेगी। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि यह एक बड़ा संकट है, जिसमें भारत को अनचाही जटिलताओं और अप्रत्याशित दबावों का सामना करना पड़ सकता है।
आने वाले महीने निर्णायक
आने वाले कुछ महीने तय करेंगे कि भारत इस कूटनीतिक भूचाल को कैसे संभालता है—क्या वह एक स्वतंत्र विदेश नीति को कायम रख पाएगा या वैश्विक शक्तियों के दबाव में नीतिगत झुकाव दिखाएगा।