राष्ट्रपति का न्यायपालिका से टकराव? सुप्रीम कोर्ट को भेजे संदर्भ पर उठे सवाल
राज्यपालों और राष्ट्रपति के आचरण को विनियमित करने के लिए न्यायालय के अधिकार पर राष्ट्रपति का संदर्भ, लोगों की इच्छा को विफल करने के मूल मुद्दे को अस्पष्ट करने का एक प्रयास है.;
“युद्ध केवल जनरलों पर नहीं छोड़ा जा सकता”— फ्रांसीसी नेता जॉर्ज क्लेमन्सो का यह कथन भारत की वर्तमान संवैधानिक स्थिति पर भी सटीक बैठता है। ठीक उसी तरह, संवैधानिक मर्यादा को केवल कानूनी विशेषज्ञों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसी संदर्भ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए 14 सवालों और तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की कार्यप्रणाली पर आई कोर्ट की टिप्पणी को समझना आवश्यक हो जाता है।
मामला
तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को राज्यपाल आरएन रवि ने वर्षों तक न तो मंजूरी दी, न ही उन्हें अस्वीकार किया और न ही राष्ट्रपति को भेजा। कोर्ट ने इसे संविधान के मूल लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना और स्पष्ट किया कि राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक चुप नहीं बैठ सकते।
कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की दो न्यायाधीशों की पीठ जस्टिस पारदीवाला और महादेवन ने इस मामले में राज्यपाल की निष्क्रियता को गैर-संवैधानिक करार दिया और स्पष्ट समयसीमा तय कर दी:
समयसीमा का विवरण
- राज्यपाल को 1 महीने के भीतर यह बताना होगा कि वह विधेयक को मंजूरी देंगे या नहीं।
- 3 महीने के भीतर विधेयक को या तो संशोधन के लिए लौटाना होगा या राष्ट्रपति के पास भेजना होगा।
- यदि विधानसभा फिर से उसी विधेयक को पास कर देती है तो राज्यपाल को 1 महीने के भीतर मंजूरी देनी होगी।
- यदि विधेयक राष्ट्रपति के पास जाता है तो राष्ट्रपति को भी 3 महीने में निर्णय देना होगा।
इस प्रकार किसी भी विधेयक पर 6 महीने के भीतर अंतिम निर्णय अनिवार्य कर दिया गया है।
क्या कहता है संविधान?
अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल के पास विधेयक को मंजूरी देना, संशोधन हेतु लौटाना या राष्ट्रपति को भेजना यह तीन ही विकल्प हैं। यदि विधेयक संशोधन के बाद दोबारा पास हो जाता है तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी होती है— वह उसे अस्वीकार नहीं कर सकते।
क्या सुप्रीम कोर्ट इतनी शक्ति रखता है?
कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर निर्देश देने का अधिकार है या नहीं। इस पर बहस छिड़ी है कि क्या यह निर्णय न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र बढ़ा रहा है? लेकिन न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत स्पष्ट किया कि वह पूर्ण न्याय के लिए कोई भी आदेश दे सकता है और यह आदेश पूरे भारत में लागू होते हैं। यही अनुच्छेद राम मंदिर केस में भी लागू किया गया था।
राष्ट्रपति के 14 सवाल और उनकी गंभीरता
भारत के राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे हैं, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या अनुच्छेद 142 के तहत अदालत ऐसा आदेश दे सकती है जो संविधान के विपरीत हो? विशेषज्ञों के अनुसार, यह सवाल या तो किसी अनाड़ी लेखक ने तैयार किया है या किसी स्कूली छात्रने! यह सवाल न केवल व्याकरणिक रूप से त्रुटिपूर्ण है, बल्कि इसका मर्म भी संविधान की गलत व्याख्या करता है।
जनता की भावना ही सर्वोच्च
विवाद का असली केंद्र यही है: क्या राज्यपाल को जनता की निर्वाचित सरकार द्वारा पारित विधेयकों को मनमाने ढंग से रोकने का अधिकार है? कोर्ट ने साफ कहा — नहीं। जब कोई राज्यपाल राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते विधायिका की इच्छा को रोकने का प्रयास करता है, तब न्यायपालिका का दखल आवश्यक और संवैधानिक बन जाता है।
क्या दो जजों की पीठ पर्याप्त थी?
कुछ लोगों का कहना है कि यह मामला कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंपा जाना चाहिए था। लेकिन जस्टिस पारदीवाला और महादेवन ने पूर्व में बड़ी पीठों के निर्णयों का सहारा लेकर निर्णय सुनाया है। इसलिए यह पूरी तरह वैध और तार्किक है।