2014-2019 में यूपी को किया फतह, अब BJP की सोशल इंजीनियरिंग क्यों हुई फेल

नरेंद्र मोदी तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुए हैं. लेकिन यूपी के नतीजे हैरान करते हैं. सवाल यही कि क्या इस दफा बीजेपी का सामाजिक समीकरण बेपटरी तो नहीं हो गया था.

By :  Lalit Rai
Update: 2024-06-10 04:40 GMT

BJP Defeat in Uttar Pradesh: बात 10 साल पुरानी है. देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का राज था. वहीं केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार आरोपों का सामना करते हुए पस्त हो चुकी थी. 2014 में देश आम चुनाव की तरफ बढ़ रहा था और राजनीतिक दलों की निगाह यूपी की 80 लोकसभा सीट पर थी. समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बीजेपी के रणनीतिकार किसी तरह से 80 सीटों में से ज्यादातर सीटों पर अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहते थे. उस समय बीजेपी में निराशा का माहौल था. यूपी के समीकरण उसे अपने पक्ष में नजर नहीं आ रहे थे. इन सबके बीच चाणक्य के नाम से पहचान बना चुके अमित शाह को कमान सौंपी गई. उन्होंने करीब तीन महीने तक यूपी के सभी जिलों का दौरा किया और निष्कर्ष पर पहुंचे की यूपी में जीत बिना सामाजिक समीकरणों के साधे नहीं हो सकती.

जब अमित शाह ने कर दिया था कमाल
अमित शाह से छोटे छोटे दलों को अपने पाले में करना शुरू किया जिनका सामाजिक आधार था. आम चुनाव 2014 के जब नतीजे आए तो हर कोई हैरान था बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और सहयोगियों के साथ 70 से अधिक सीटों पर कब्जा जमा लिया. एक तरह से बीजेपी के पक्ष में जाने वाला यह नतीजा शोध का विषय बन गया. पांच साल बाद जब 2019 में फिर आम चुनाव हुए तो बीजेपी के सीट संख्या में कमी तो आई लेकिन उस वक्त यूपी के दो बड़े दल सपा और बसपा एक साथ मिलक चुनाव लड़े थे. लेकिन 2024 के नतीजे ना सिर्फ बीजेपी बल्कि राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों को भी हैरान कर रहे हैं, आखिर इसके पीछे की वजह क्या है.

  • 2014 में बीजेपी ने लोकसभा की 73 सीट पर जीत दर्ज की.
  • 2017 विधानसभा चुनाव में 403 में से 312 सीट और सहयोगियों के साथ 325 सीट पर जीत
  • 2019 लोकसभा में 62 सीट पर जीत हासिल
  • 2014 में नरेंद्र मोदी, अमित शाह प्रमुख चेहरा
  • 2017 में नरेंद्र मोदी, अमित शाह के साथ योगी आदित्यनाथ भी चेहरा

सामाजिक समीकरण कमजोर नहीं लेकिन..

यूपी की सियासत को समझने वाले कहते हैं कि देखिए इस दफा भी बीजेपी का सामाजिक समीकरण कमजोर नहीं था. ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारत समाज पार्टी, संजय निषाद की निषाद पार्टी और अपना दल एस की अनुप्रिया पटेल बेहतर नतीजे दे सकती थीं लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दरअसल इन नेताओं को लेकर यह धारणा बनी कि ये लोग पूरी तरह से परिवारवाद की राजनीति कर रहे हैं. इसके साथ ही ये लोग वैसे दल के साथ हैं जो संविधान बदलने और आरक्षण हटाने की बात कर रही है. उसका असर यह हुआ कि ये लोग अपने जाति समूहों को उस हद तक ट्रांसफर नहीं करा सके जितना हो सकता था. उदाहरण के लिए आपको घोसी और संतकबीर नगर के नतीजों को समझने की जरूरत है.

घोसी- संतकबीर नगर में हारे राजभर- निषाद
घोसी संसदीय क्षेत्र में ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरुन राजभर सुभासपा के टिकट पर चुनाव लड़ रह थे जिसे बीजेपी का समर्थन हासिल था. लेकिन पूरे इलाके में इनको लेकर रोष था.खुद उनके समाज के ही लोग सवाल किया करते थे कि क्या राजभरों में और कोई नेता नहीं है. दरअसल यह सवाल पूछने की बड़ी वजह समाजवादी पार्टी का टिकट वितरण था. समाजवादी पार्टी ने अपने टिकट वितरण में सिर्फ पांच यादवों को उम्मीदवार बनाया जबकि 27 चेहरे गैर यादव थे. कुछ इसी तरह की स्थिति संजय निषाद के बेटे प्रवीन निषाद को लेकर रही. बता दें कि प्रवीन निषाद को भी जीत नहीं मिली. उनकी हार पर संजय निषाद कहते हैं कि हम संविधान बदलने और आरक्षण समाप्त करने वाली बात नहीं आम लोगों को नहीं समझा सके. 2024 के नतीजों को अगर देखें तो बीजेपी के पक्ष में वोट करने वाली गैर यादव ओबीसी जातियां भी दूर चलीं गईं और उसका असर बीजेपी की सीट संख्या में नजर आया.

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