दिल्ली की बढ़ती आबादी और कूड़े के पहाड़: समस्या, सच और समाधान
दिल्ली में कूड़े के पहाड़, जिस तरह से राजनीती का मुद्दा बनने के साथ साथ एक परेशानी का सबब भी बन चुके हैं, उन्हें पूरी तरह से हटा पाने की जो कवायद है, क्या वो सफल हो पायेगी?;
Increasing Population And It's Consequencies : आबादी के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. वहीँ अगर भारत की राजधानी दिल्ली की बात करें तो देश भर में जो मेट्रो शहर हैं, उनमें दिल्ली ही है जिसकी आबादी सबसे ज्यादा है. आबादी बढ़ने की बात करें तो एक बड़ा कारण दिल्ली में हर साल आने वाले अप्रवासी भी हैं. दरअसल होता ये है कि जितने अप्रवासी दिल्ली में आते हैं, उनमें से बहुत कम ही ऐसे होते हैं, जो फिर वापस अपने गाँव या शहर लौटते हैं. बाकी यहीं रुक कर काम करते हैं. ऐसे में दिल्ली पर बढ़ती आबादी का जो बोझ है, उसकी वजह से राजधानी का मूलभूत ढांचा भी चरमराता जा रहा है. आलम ये हो गया है कि एक तरफ तो यातायात को सुगम बनाने के लिए फ्लाईओवर ही फ्लाईओवर बनाने के बावजूद भी जाम का नाम ख़त्म नहीं हो रहा है. इससे भी ज्यादा चुनौती दिल्ली के तीन कोनों पर स्थित हो चुके कूड़े के पहाड़ हैं, जिन्हें लेकर राजनीती होती रही है. चुनावी मुद्दा बन जाने के चलते इन पहाड़ों को खत्म करने के वाडे किये गए, सरकार ने काम भी शुरू कराया लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद भी ये पहाड़ खत्म नहीं हो पाए हैं. हाँ, इन पहाड़ों की उंचाई कुछ कम जरुर हुई है. दिल्ली की इस समस्या पर नज़र डालेंगे कि आखिर इसका निवारण कैसे होगा? ये संभव है भी या नहीं? इसके लिए द फ़ेडरल देश ने न केवल तीनों ही साईट पर जाकर जमीनी हकीकत का जायजा लिया बल्कि इस विषय से जुड़े अलग अलग विशेषज्ञों से बात भी की.
ख़त्म हो सकता है कूड़े का पहाड़, बशर्ते कि राजनितिक इक्षाशक्ति और जनसहयोग मिले
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ( CSE ) से सम्बद्ध डॉ त्रिभुवन बिष्ट, जो डंपिंग साइट्स पर रिसर्च कर चुके हैं, का कहना है कि कूड़े के पहाड़ ख़त्म करने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है राजनितिक इक्षाशक्ति और जनसहयोग. देश में ही कुछ शहर ऐसे हैं जिन्होंने ऐसे ही कूड़े के पहाड़ ख़त्म किये हैं, जैसे भुवनेश्वर, इंदौर आदि. दिल्ली की बात करते हैं तो यहाँ पर जनता को जागरूक करने के लिए काफी प्रयास किया गया है, गिला कूड़ा और सूखा कूड़ा अलग अलग डालने के लिए कहा गया है लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा होता देखा नहीं गया है. घर से जो कूड़ा निकलता है, वो मिश्रित रूप में ही फेंका जाता है. यही वजह है कि डंपिंग साईट पर कूड़ा पहुँचता है, उसका सही उपचार होने में बहुत समय लगता है.
कूड़े के पहाड़ के उपचार पर होने वाला खर्चा भी पहाड़ जितना ही बड़ा है
डॉ त्रिभुवन बिष्ट का कहना है कि दिल्ली की तीनों डंपिंग साईट की बात करें तो स्टडी के अंदाजे से ये कहा जा सकता है कि कुल 16 करोड़ किलोग्राम कूड़ा होगा, यानी 1 लाख 60 हजार टन. एक टन कूड़े का उपचार ( remediation ) करने में औसतन 600 से 800 रूपये का खर्च आता है. अब अगर हिसाब लगाया जाए तो इन पहाड़ों को ख़त्म करने के लिए लगभग 10 करोड़ से लेकर 13 करोड़ से ज्यादा खर्च होगा. सरकार की तरफ से काफी तेजी से काम भी किया जा रहा है. ख़ास तौर से स्वच्छ भारत मिशन 2.0 जब से शुरू हुआ है तब से इन कूड़े के पहाड़ों को हटाने के लिए प्रयासों को तेज किया गया है. लेकिन समस्या ये भी है कि अगर प्रतिदिन एक टन कूड़े का उपचार किया जा रहा है, लगभग 1200 किलो कूड़ा फिर से आ जा रहा है. यानी कि 200 किलो ज्यादा. ऐसी परिस्थिति में ये पहाड़ कैसे खतम होंगे. होना ये चाहिए कि जनता गिला कूड़ा अलग डाले और सूखा कूड़ा अलग. ऐसा होता है तो फिर गिला कूड़ा इन पहाड़ों तक लाया ही नहीं जायेगा और फिर कूड़े के पहाड़ जल्द जल्द से ख़त्म हो जायेंगे, ये हम कह सकते हैं.
कूड़े के पहाड़ से बनने वाला कम्पोस्ट लम्बे समय के लिए इस्तेमाल करना नुक्सान दायक
कूड़े के पहाड़ों को खत्म करने के लिए MCD की तरफ से उन कंपनियों को ठेका दिया गया है, जो कूड़े के उपचार का काम करती है. अमूमन कूड़े को उपचार करने के बाद कम्पोस्ट तैयार किया जाता है, जो खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा उपचार के बाद जो कूड़े का इस्तेमाल होता है, वो सड़क आदि या फिर किसी कंस्ट्रक्शन साईट के भराव के काम में लिया जाता है. कूड़े से बने कम्पोस्ट को लेकर डॉ त्रिभुवन बिष्ट का कहना है कि ये जो कूड़े के पहाड़ हैं, इन साईट पर कई वर्षों से कूड़ा डाला हुआ है. इसमें नाइट्रोजन की मात्रा तो काफी अधिक होती है, जो मिट्टी के लिए लाभदायक है, लेकिन अन्य जो प्रदूषित तत्व हैं, वो भी काफी बड़ी मात्रा में हैं, क्योंकि कूड़े में हर तरह का वेस्ट शामिल हैं, जैसे जैविक कूड़ा, अस्पताल आदि से निकला हुआ, केमिकल वाला कूड़ा आदि. ऐसे कूड़े से बना हुआ कम्पोस्ट लम्बे समय तक इस्तेमाल किये जाने पर मिट्टी के लिए नुक्सानदायक साबित होता है.
कूड़े के पहाड़ों के आसपास रहने वालों किन चीजों का होता है खतरा
गाजीपुर लैंडफिल साईट या कूड़े के पहाड़ के आसपास के इलाकों में स्टडी करने वाले डॉ अजय लेखी का कहना है कि स्टडी में पाया गया कि इन कूड़े के पहाड़ों के 3-3 किलोमीटर तक के इलाके का जो पानी ( ग्राउंड वाटर ) दूषित है. कूड़े से कोंडली, घड़ोली डेरी फार्म, गाजीपुर आदि जो इलाके हैं, वहां सबसे बड़ा हेल्थ हजार्ड जो आ रहा है, वो है कैंसरकारक तत्व का बढ़ना. सरकार को भी इस स्टडी से अवगत करवाया गया. वहां का जो पानी है, उसका इस्तेमाल न किया जाए. यहाँ के ग्राउंड वाटर से नहाने से भी स्किन सम्बंधित समस्या हो सकती है. पानी में लेड की मात्रा अधिक पायी गयी थी, जी आरओ से भी साफ़नहीं की जा सकती. हालाँकि सरकार ने वहां हैंडपम्प आदि पर रोक लगाई हुई है लेकिन फिर भी ऐसा हो सकता है कि कुछ लोगों ने अवैध बोरिंग करायी हो. इसके अलावा कूड़े से निकलने वाली गैस, भी हवा में मिक्स होती है, जिससे वहां सांस लेने में तकलीफ होती है और, उससे भी लोगों को तकलीफ होती है. वहां जो गिद्ध, चील आदि मंडराते हैं, वो मांस आदि के टुकड़े भी इन रिहायशी इलाकों में फेंक देते हैं, जिसकी वजह से भी इन्फेक्शन आदि फैलने का खतरा रहता है.
अप्रवासी
अब बात करते हैं कि आखिर अप्रवासी क्यों आते हैं? इसका जवाब अलग अलग श्रेणी के लोगों पर निर्भर करता है. पहला ये कि बड़ी संख्या में छात्र बेहतर शिक्षा के लिए आते हैं, युवा रोज़गार के लिए, जैसे सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए, कॉर्पोरेट नौकरियों के लिए. एक वर्ग ऐसा है, जो मेहनत मजदूरी के बल पर जीवन यापन के लिए दिल्ली आता है.
अप्रवासी समस्या भी हैं और जरुरत भी
जेएनयू के सीएसआरडी ( सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ रीजनल डेवलपमेंट ) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ भास्वती दास का कहना है कि आप्रवासियों को लेकर एक कटु सत्य ये भी है कि जहाँ एक ओर ये किसी शहर की आबादी बढाने के लिए एक समस्या हैं, तो वहीँ दूसरी ओर इनके बगैर किसी बड़े शहर का काम भी नहीं चलता है. दिल्ली देश की राजधानी है. यही वजह है कि यहाँ पर आप्रवासियों का आना बहुत ज्यादा रहता है. दिल्ली में न केवल रोज़गार के अवसर बहुत ज्यादा हैं, बल्कि उच्च और बेहतर शिक्षा के विकल्प भी बहुत हैं. दिल्ली में ही 4 से 5 केन्द्रीय विश्विद्यालय हैं. इसके अलावा बड़े प्राइवेट इंस्टिट्यूट हैं. देश भर से बड़ी संख्या में छात्र यहाँ आते हैं. लेबर क्लास के लोग बहुत ज्यादा संख्या में आते हैं, जो निर्माण कार्य में लगते हैं या दूसरे ऐसे किसी काम में, जो रोज़ मर्रा की जरूरत से सम्बंधित होता है.
जितने अप्रवासी आते हैं, उतने लौटते नहीं
डॉ भास्वती दास का कहना है कि हर साल दिल्ली में बड़ी संख्या में अप्रवासी आते हैं. वैसे तो 2011 के बाद सेन्सस तो नहीं किया गया है, लेकिन एक अंदाजा ये है कि कोविड के बाद से माइग्रेशन में इजाफा हुआ है. दिल्ली सरकार का अपना अनुमान है कि 2021 में दिल्ली की जनसँख्या 2 करोड़ 10 लाख थी. वहीँ अप्रवसियों की बात करें, तो 2020 में जो संख्या 2 लाख 20 हजार थी, वो 2021 में 2 लाख 83 हजार हो गयी. हर साल इसी तरह से वृद्धि होती जा रही है. जितने अप्रवसी आते हैं, उससे बेहद कम संख्या में लोग अपने गाँव वापस लौटते हैं.
आप बेहतर सड़क दे सकते हो लेकिन सबके लिए साफ़ पानी और हवा नहीं
डॉ भास्वती दास का कहना है दिल्ली की भौगौलिक संरचना देखेंगे तो ये पता चलेगा कि यहाँ पर सिमित साधन हैं. फिर चाहे वो जमीन हो या पानी. जिस तरह से जनसँख्या वृद्धि हो रही है, उसे देखते हुए संसाधन कम पड़ते जा रहे हैं. सरकार सड़कें बनाने का काम तो कर रही है लेकिन इतनी संख्या में घर बनाना एक बड़ी चुनौती है. दूसरी बात ये कि यहाँ पर पीने का पानी भी सिमित है, जो हर किसी को उपलब्ध कराना मुश्किल है. इसके साथ ही स्वच्छ हवा भी उपलब्ध कराना मुश्किल है, क्योंकि दिल्ली में वाहनों की संख्या तो ज्यादा है ही, इसके अलावा निर्माण कार्य भी निरंतर जारी हैं. मुंबई भी दूसरा ऐसा शहर है, जहाँ बहुत बड़ी संख्या में अप्रवासी आते हैं. लेकिन वहां पर प्रदूषण हो फिर कूड़े की साईट को लेकर दिल्ली जैसी समस्या नहीं है. वजह ये है कि वहां पर समुद्र है, इसलिए प्रदूषण उतना नहीं होता. इसके अलावा मुंबई के पास इतनी जगह है कि वहां रिहायशी जगह से दूर कूड़े का निस्तारण किया जा सकता है.
यूपी और बिहार से आते हैं सबसे ज्यादा अप्रवासी
डॉ भास्वती दास के अनुसार दिल्ली में जो अप्रवासी आते हैं, उनमें यूपी और बिहार से आने वालों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है. अधिकतर अप्रवासी निर्माण कार्य से जुड़ते हैं.
दिल्ली के बाहरी इलाकों में कामगारों को शिफ्ट किया जा सकता है, जैसा सरकार की योजना भी है लेकिन सरकार को ये भी करना होगा कि इन कामगारों के लिए किफायती दरों पर सार्वजानिक परिवहन की व्यवस्था हो, ताकि ये लोग मुख्य शहर में आकर काम कर सकें.