स्वामिमलई की गलियों में आज भी गूंजता है इतिहास, कांस्य मूर्तियों की जीवंत कहानी
तमिलनाडु के मंदिर शहर कुंभकोणम के पास स्थित स्वामीमलाई में, कारीगर कांस्य मूर्तियों को गढ़ने के लिए लुप्त-मोम विधि का उपयोग करते हैं, जिससे चोलों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली पंचलोहा की सहस्राब्दी पुरानी कला जीवित है।;
तमिलनाडु के मंदिरों के शहर कुम्भकोणम से लगभग छह किलोमीटर दूर, स्वामिमलई की संकरी और देहाती गलियाँ पीतल पर चोट करते हथौड़ों की वही आवाज़ गूंजाती हैं, जो पीढ़ियों से यहाँ की पहचान रही है। यह छोटा सा कस्बा चोल सम्राटों की मूर्तिकला परंपरा की आज की अंतिम कड़ी है, जहाँ आज भी कारीगर प्राचीन 'लॉस्ट वैक्स' कांस्य ढलाई (lost-wax bronze casting) की तकनीक से मूर्तियाँ बनाते हैं – वही तकनीक जो दक्षिण भारत के मंदिरों की शान रही है।
यहाँ के मास्टर ब्रॉन्ज वर्कर आज भी पंचधातु (पाँच धातुओं का मिश्रण – पारंपरिक रूप से तांबा, जस्ता, टिन, चांदी और सोना) से मूर्तियों और आभूषणों का निर्माण करते हैं। हर मूर्ति पूर्वजों की शिल्पकला और आध्यात्मिक परंपरा की निशानी होती है। स्वामिमलई की फाउंड्रीज़ या कार्यशालाएँ, इन पवित्र मूर्तियों को गढ़ने की प्रक्रिया का एक अद्भुत झरोखा खोलती हैं। निर्माण प्रक्रिया की शुरुआत होती है खुले आँगनों (स्थानीय भाषा में "मुट्टन") से, जहाँ अधूरी मूर्तियाँ अंतिम रूप पाने के इंतज़ार में होती हैं।
मुरुगन अपने भाले के साथ,
लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान,
कृष्ण बांसुरी लिए,
हनुमान समर्पण की मुद्रा में,
और दक्षिणामूर्ति ज्ञान देने की मुद्रा में।
मोम की मूर्ति से कांस्य की प्रतिमा तक का सफर
लॉस्ट वैक्स (Lost Wax) तकनीक में, पहले एक मोम की प्रतिमा बनाई जाती है जिसे बाद में मिट्टी से ढका जाता है और फिर उसे गर्म करके मोम निकाल दिया जाता है। इस प्रक्रिया में मोम का मूल मॉडल पिघल कर बाहर निकल जाता है, और वही जगह अब पिघले हुए कांस्य से भरी जाती है।
यह तकनीक तमिलनाडु में सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, और चोल काल (10वीं से 13वीं शताब्दी) में इसे अत्यंत परिष्कृत रूप दिया गया। राजन इंडस्ट्रीज़ के मालिक सुरेश राजन बताते हैं, “यह 16-चरणों की बेहद जटिल प्रक्रिया है, जिसमें हर कदम तकनीकी सटीकता मांगता है, एक भी चूक पूरी मूर्ति को बिगाड़ सकती है।
मोम का मॉडल
सबसे पहले कारीगर शुद्ध मधुमक्खी के मोम और गोंद वाले पेड़ की राल को बराबर मात्रा में मिलाकर एक विशेष मिश्रण तैयार करते हैं। इसमें नारियल तेल मिलाकर वह मॉडलिंग के लिए उपयुक्त बनता है। हर बारीक़ी आभूषण, चेहरे के हावभाव, उंगलियों की बनावट को इस चरण में ही गढ़ना होता है क्योंकि बाद में मोम नष्ट हो जाता है। मुख्य शरीर के लिए कम तेल वाला कड़ा मिश्रण, और अलंकरण हेतु अधिक तेल वाला नरम मोम प्रयोग किया जाता है।
ढलाई की तैयारी
मॉडल पर मोम की छड़ियाँ लगाई जाती हैं जो ढलाई के दौरान पिघले धातु के बहाव और वायु निकासी के लिए चैनल बनाती हैं। फिर उस पर विशेष कावेरी नदी के तल की मिट्टी की परतें चढ़ाई जाती हैं, जिनमें प्राकृतिक लवण होते हैं।प्रत्येक परत सूखने के बाद अगली लगाई जाती है, और फिर उसे एक सप्ताह तक धूप में पकाया जाता है — यह समय सीमा पीढ़ियों के अनुभव से निर्धारित की गई है। इससे सांचे में नमी पूरी तरह से निकल जाती है।
लौ में तपता सांचा और पिघलता मोम
पाँचवे चरण में सांचे को गाय के गोबर और सूखी लकड़ियों से बने भट्ठे में तपाया जाता है। गर्मी से मोम पिघलकर बह जाता है और भीतर खोखलापन रह जाता है। इसी को 'लॉस्ट वैक्स' कहा जाता है।चोलों द्वारा इस तकनीक में दक्षता ने इसे 'चोल लॉस्ट वैक्स' के नाम से प्रसिद्ध कर दिया। वे प्रतिमाएँ आज भी मूर्तिकला की सर्वोच्च उपलब्धियों में गिनी जाती हैं।
कांस्य ढलाई: ताप, अनुभव और परंपरा का संतुलन
छठे चरण में सांचे को ज़मीन में गाड़ दिया जाता है या मजबूती से बांधा जाता है ताकि पिघली धातु डालते समय वह हिले नहीं। सातवें चरण में पंचधातु को लगभग 1500°C तापमान पर पिघलाया जाता है। चोल मूर्तियों में अक्सर 90–95% तांबा होता है, जिसे तमिलनाडु से बाहर से मंगाया जाता है।जब तापमान सही हो, तब धातु को सांचे में सावधानीपूर्वक डाला जाता है — न ज़्यादा गर्म, न ज़्यादा ठंडा। तापमान नियंत्रण ही सफलता की कुंजी है।
ठंडा करना और पहली झलक
आठवें चरण में सांचे को धीरे-धीरे ठंडा किया जाता है। आकार के अनुसार इसे घंटों लगते हैं। जल्दबाज़ी करना खतरनाक हो सकता है।नवम चरण में सांचे को तोड़कर मूर्ति निकाली जाती है। यही वह क्षण होता है जब पूरी मेहनत का परिणाम सामने आता है।
कांस्य की मूर्ति में प्राण डालना
इसके बाद मूर्ति की सफाई होती है। फालतू धातु हटाना, पॉलिश करना, बारीकी से काट-तराश कर चमकाना। फिर आती है सबसे जादुई अवस्था चेहरे के भाव, उंगलियों की बनावट, गहनों की नक़्क़ाशी। यही वह पल है जब मूर्ति में मानो प्राण प्रवेश करते हैं।
सौंदर्य और आस्था का संतुलन
अब आती है सोलहवीं और अंतिम प्रक्रिया। पटिनेशन, यानी मूर्ति पर विशेष रंग या प्रभाव देना। इसमें परंपरागत मिश्रण जैसे गाय का गोबर, इमली का लेप, या औषधीय जड़ी-बूटियाँ प्रयोग होती हैं। मूर्ति को या तो ग्रीन पटिना (पुरातन प्रभाव) या वुड पटिना (गर्माहट वाला रंग) दिया जाता है।हर मूर्ति का निर्माण शुभ तिथियों पर शुरू होता है, और अंत में एक विधि-विधान के साथ उसका आधार तय किया जाता है। वही चोल चमक उसमें स्थायी रूप से समाहित हो जाती है।
हर मूर्ति में समय और साधना
एक छोटी मूर्ति में 30–40 दिन, दो फुट ऊँची मूर्ति में 50–60 दिन, और बड़े मंदिर की मूर्तियों में 6 महीने से 1 साल तक लग सकते हैं। कीमतें ₹2,000 से शुरू होकर ₹2 लाख या उससे ऊपर तक जाती हैं। भले ही बाज़ार में सस्ते और शीघ्र बनने वाले नक़ली विकल्प मौजूद हैं, लेकिन स्वामिमलई की असली चोल कांस्य मूर्तियाँ आज भी शुद्ध हस्तकला के उदाहरण हैं — श्रद्धालुओं और कलेक्टरों द्वारा आज भी उतनी ही श्रद्धा से अपनाई जाती हैं।
धरोहर से जीवित संवाद तक
जानी-मानी शोधकर्ता अपरणा जोशी लिखती हैं: “चोल कांस्य मूर्तियाँ समकालीन मूर्तियों से भिन्न हैं, उनकी ढलाई और मिश्रण की विशिष्टता उन्हें अलग बनाती है। प्रसिद्ध कला इतिहासकार विद्या देहेजिया कहती हैं कि भारत में ऐसी प्रतिमाओं की कोई दूसरी मिसाल नहीं। इनकी शारीरिक पूर्णता आध्यात्मिक सौंदर्य और पवित्रता का प्रतिबिंब है।
स्वामिमलई की मूर्तियाँ आज स्मिथसोनियन म्यूज़ियम, न्यूयॉर्क का मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम जैसे वैश्विक संस्थानों की शोभा बनी हुई हैं।आज 2025 में भी, स्वामिमलई कोई संग्रहालय नहीं, बल्कि एक जीवित परंपरा है — जहाँ शिल्पशाला विद्यालय हैं, साधना स्थल हैं, और परंपरा व नवाचार के बीच सतत संवाद है।