1971 struggle: कैसे शेख मुजीब का छह-बिंदु चार्टर बना स्वतंत्रता की बुलंद आवाज

छह सूत्र पूर्वी पाकिस्तान के आम लोगों के लिए केवल राजनीतिक मांग नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक सम्मान और आत्मनिर्णय की आशा का प्रतीक बने। यह आंदोलन बंगाली पहचान और उनके अधिकारों के लिए एक नए युग की शुरुआत था।;

Update: 2025-08-16 07:10 GMT

15 अगस्त 1975 को नवगठित राष्ट्र बांग्लादेश एक गहरे झटके से हिल गया। एक सैन्य तख्तापलट ने उस आवाज़ को हमेशा के लिए खामोश कर दिया, जिसने कभी आज़ादी के लिए गरजकर पुकार की थी और इसी के साथ बांग्लादेश के स्थापत्य निर्माता, राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर रहमान की हत्या कर दी गई। इस काले दिन की 50वीं वर्षगांठ पर शेख मुजीब के जीवन, उनकी अमर विरासत और उनके करिश्माई नेतृत्व पर केंद्रित चार भागों की विशेष श्रृंखला की यह दूसरी कड़ी है।

पहला भाग, उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालता है, जिसे समझे बिना शेख मुजीब के एक प्रतीक बनने की यात्रा को नहीं जाना जा सकता। उनके अपने मोहभंग ने पाकिस्तान में रहने वाले बंगाली मुसलमानों के भीतर उपजे असंतोष का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया,और उनकी निष्ठावान राजनीतिक साधना, बंगालियों की स्वतंत्रता की आकांक्षा का प्रतीक बन गई।

1949 तक शेख मुजीबुर रहमान अपनी अथक सरकार विरोधी आवाज़ और जनहित के मुद्दों पर बेबाक सवालों के कारण पूर्वी बंगाल में एक जानी-पहचानी शख्सियत बन चुके थे। विशेषकर अपने गृह जिला फरीदपुर में, उनका तेजस्वी व्यक्तित्व और जनसंवाद की कला उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाती जा रही थी।

एक स्वाभाविक जननेता के तौर पर शेख मुजीब की भाषण देने की शैली में जन-उकसावे की शक्ति थी। 11 अक्टूबर 1949 को ढाका के अर्मनीटोला मैदान में आयोजित एक जनसभा में — उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली ढाका में मौजूद थे — शेख मुजीब ने उस समय के भीषण खाद्य संकट पर सरकार को आड़े हाथों लिया।

उन्होंने जनसभा में गरजते हुए पूछा कि एक हत्यारे की सज़ा क्या होनी चाहिए? भीड़ ने जवाब दिया — “फांसी दो!” फिर उन्होंने पूछा कि और उन लोगों का क्या, जिनकी वजह से हजारों लोग मर रहे हैं? भीड़ फिर बोली — उन्हें भी फांसी दो! मुजीब ने उसी जोश में कहा — “नहीं! उन्हें गोली मार देनी चाहिए!” इसके बाद उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि “चलिए हमारे साथ और लियाकत अली को दिखाते हैं कि पूर्वी बंगाल की जनता क्या चाहती है।”

यह वही दौर था, जब पाकिस्तान में सत्ता का केंद्र पश्चिमी हिस्से में था और पूर्वी बंगाल लगातार राजनीतिक उपेक्षा, आर्थिक असमानता और प्रशासनिक भेदभाव का शिकार हो रहा था। शेख मुजीब के उग्र लेकिन स्पष्टवादी तेवर जनता के असंतोष को स्वर देने लगे थे।

शेख मुजीबुर रहमान के राजनीतिक जीवन के बाद के वर्षों में एक नया रूप देखने को मिला—बेहद संतुलित, परिपक्व, राजनीतिक रूप से सजग और जनसंपर्क में कल्पनाशील। हालांकि उन्होंने अपनी सहज ज़मीन से जुड़ी शैली कभी नहीं छोड़ी, लेकिन उनका अंदाज़ पहले से कहीं ज़्यादा सूझबूझ भरा हो गया था। उनकी राजनीति अब अपने पुराने गुरु और पश्चिमी पाकिस्तान के सत्ताधारी तबकों से समझौता करने वाले नेता हुसैन शहीद सुहरावर्दी से बिल्कुल अलग दिखने लगी थी। मुजीब ने हमेशा सुहरावर्दी के प्रति स्नेह बनाए रखा, लेकिन उनका राजनीतिक दृष्टिकोण पूरी तरह जनता-केंद्रित रहा।

जनता थी उनके राजनीतिक दर्शन का मूल

1940 के दशक के अंत तक ही शेख मुजीब और उनकी पार्टी अवामी लीग ने सूबे को स्वायत्तता दिलाने की मांग के साथ-साथ लोकतंत्र की स्थापना की मांग को भी अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल कर लिया था। पार्टी के पहले घोषणा-पत्र में यह मांग स्पष्ट रूप से शामिल थी कि लोकतंत्र की स्थापना तभी संभव है जब पूर्वी बंगाल को पर्याप्त स्वायत्तता मिले।

भाषा आंदोलन ने खोली धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की राह

1952 का भाषा आंदोलन, जिसने धर्म के बजाय भाषा को राष्ट्र की पहचान का आधार बनाया, ने उस धर्मनिरपेक्ष बंगाली राष्ट्रवाद की नींव रखी जिसे आगे चलकर शेख मुजीब और अवामी लीग ने मजबूती से अपनाया। दिसंबर 1963 में सुहरावर्दी के निधन से शेख मुजीब को गहरा व्यक्तिगत आघात जरूर लगा, लेकिन इसी के साथ उन्हें अपने पूर्ववर्ती के मध्यमार्गी प्रभाव से भी मुक्ति मिली। अब वह पूरी तरह अपने राजनीतिक विचारों और कार्यशैली को बिना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ा सके।

‘मुस्लिम’ से ‘अवामी’ बनी पार्टी

1949 में नवगठित पार्टी अवामी लीग तब तक स्वयं को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष नहीं कह पाई थी, लेकिन 1955 के अंत तक पार्टी ने अपने नाम से ‘मुस्लिम’ शब्द हटा दिया, जिससे उसकी विचारधारा का व्यापक और समावेशी रूप उभर कर सामने आया। 1950 और विशेष रूप से 1960 के दशक में, यह स्पष्ट हो गया कि अवामी लीग के नेतृत्व में उभरता बंगाली राष्ट्रवाद अब केवल भाषाई और सांस्कृतिक पहचान तक सीमित नहीं था, बल्कि यह लोकतंत्र और प्रांतीय स्वायत्तता की मांग के साथ एक राजनीतिक आंदोलन का रूप ले चुका था।

1954 के प्रांतीय विधानसभा चुनाव ने पूर्वी बंगाल में विपक्षी राजनीति के उत्थान का स्पष्ट संकेत दिया। मुस्लिम लीग, जो एक समय पूरे पाकिस्तान की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक ताकत थी, लगभग पूरी तरह पराजित हो गई। 309 सीटों वाली विधानसभा में उसे मात्र 9 सीटें ही मिल सकीं। दूसरी ओर, विपक्षी गठबंधन ‘यूनाइटेड फ्रंट’ ने 223 सीटें जीतीं, जिसमें अकेले अवामी लीग ने 140 सीटों पर कब्जा किया।

केंद्रीय सरकार ने लोकतंत्र को बनाया निशाना

कराची स्थित केंद्रीय सरकार ने इस लोकतांत्रिक जनादेश को स्वीकार करने के बजाय बहानेबाज़ी और सत्ता-संरचना के दांव-पेंच से जनभावना को कुचलने की कोशिश की। परिणामस्वरूप, शेख मुजीब और अवामी लीग को एक बार फिर विपक्ष की भूमिका में लौटना पड़ा। अक्टूबर 1958 में जनरल अयूब खान द्वारा सत्ता हथियाए जाने के बाद पूरे पाकिस्तान में राजनीतिक गतिविधियों पर चार वर्षों के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। यह राजनीतिक विराम आगे चलकर बांग्लादेश आंदोलन के लिए निर्णायक साबित हुआ।

आर्थिक असमानता बनी आंदोलन की आधारशिला

1960 के दशक की शुरुआत में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच संसाधनों के असमान बंटवारे को ढाका के प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने अपने शोध का विषय बनाना शुरू किया। इनमें डॉ. ए सदक़, डॉ. नुरुल इस्लाम, डॉ. हबीबुर रहमान, डॉ. अखलाकुर रहमान, डॉ. मोशर्रफ हुसैन, अब्दुर रज्जाक, प्रो. एम एन हुडा, प्रो. ए एफ ए हुसैन और रहमान सोभान जैसे नाम प्रमुख रहे। इनमें से कुछ, जैसे कि रहमान सोभान तो ज़मींदारी व्यवस्था पर सीधा प्रहार करते हुए भूमि सुधार की आवश्यकता तक की बात करने लगे, जिससे पश्चिमी पाकिस्तान के सत्तारूढ़ ज़मींदार वर्ग में भारी असंतोष उत्पन्न हुआ। कई अर्थशास्त्रियों ने तो संसाधनों के असमान बंटवारे की समस्या का एकमात्र समाधान प्रांतीय स्वायत्तता को बताया — एक विचार जो उस समय केंद्रीय सत्ता को नागवार गुजरा।

राजनीतिक प्रतिबंध में भी सक्रिय रहा मुजीब का संवाद

राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध के कारण शेख मुजीब जैसे नेता, जिनके पास समय था, ने इन अर्थशास्त्रियों से गहरे संवाद बनाए। इन विद्वानों के शोध और विचारों ने शेख मुजीब और अवामी लीग के वैचारिक आंदोलन को बौद्धिक आधार प्रदान किया। 1969 तक, पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान ने इन आर्थिक असमानताओं और पूर्वी पाकिस्तान के शोषण की बातों को या तो नजरअंदाज़ किया या फिर बंगाली अर्थशास्त्रियों की आलोचना को राजनीतिक पूर्वाग्रह मानकर खारिज कर दिया। जब अंततः पश्चिमी पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं ने इस असंतुलन को गंभीरता से समझना शुरू किया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

1960 के दशक में शेख मुजीब के नेतृत्व में अवामी लीग की प्रतिबद्धता प्रांतीय स्वशासन के लिए मजबूती से उभरी और इसे एक समाजवादी दृष्टिकोण से जोड़ा गया। केंद्रीय सरकार और पश्चिमी पाकिस्तान के राजनेताओं के साथ उनकी बातचीत — चाहे वह अयूब खान के शासनकाल में हो या याह्या खान के दौर में, और यहां तक कि 25 मार्च 1971 की उस काली रात से पहले तक — हमेशा एक अनुभवी अर्थशास्त्रियों की टीम के गहन विश्लेषण और समर्थन के साथ होती थी। नूरुल इस्लाम और रहमान सोभान जैसे विद्वानों ने पार्टी को प्रांतीय स्वायत्तता की व्यवहार्यता और इससे संभव होने वाली समाजवादी अर्थव्यवस्था के पक्ष में मजबूत तर्क उपलब्ध कराए।

अयूब खान के दौर का लोकतंत्र और 1965 का युद्ध

अयूब खान के वर्षों में लोकतंत्र की आड़ में चल रही दिखावटी राजनीति और 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद उत्पन्न कठिनाइयों ने पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में असंतोष की स्थिति पैदा कर दी। पूर्वी बंगाल में युद्ध से उपजी अलगाव और असुरक्षा की भावना ने स्वायत्तता की आकांक्षाओं को और प्रबल कर दिया।

मुजीब की समझ और साहस

जनता की नब्ज पर पकड़ रखने वाले मुजीब जानते थे कि कब निर्णायक वार करना है। दिसंबर 1963 में सुहरावर्दी के निधन ने भले ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से झटका दिया, लेकिन इससे उन्हें अपने मध्यम मार्गदर्शक की सीमाओं से मुक्त होकर और अधिक साहसिक राजनीति करने का अवसर मिला। 1966 में शेख मुजीब एक दूरदर्शी राजनेता के रूप में उभरे जब उन्होंने अपने छह सूत्रीय मांग पत्र (जिसे बंगाली में "छोई छह डप्हा" कहा जाता है) को पेश किया, जो प्रांतीय स्वायत्तता का एक मॉडल था।

लाहौर में विपक्षी नेताओं की बैठक

1966 के फरवरी में लाहौर में विपक्षी नेताओं की एक सभा में जब मुजीब ने यह चार्टर पेश किया तो पश्चिमी पाकिस्तान के राजनेता प्रभावित नहीं हुए। सभी पूर्वी बंगाल के नेता भी इसके समर्थक नहीं थे। मोलाना भासानी, जिनके राजनीतिक रूख समय-समय पर उलटफेर करते रहे, ने इसे "सीआईए दस्तावेज़" तक कह डाला। हालांकि, छह सूत्रीय मांग पत्र पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के बीच तुरंत लोकप्रिय हो गया। मांगों को समझाने वाले पर्चे पूरे प्रदेश में वितरित किए गए। मुजीब फिर से एक उग्र तूफान की तरह पूरे प्रदेश में दौड़ पड़े, जबकि कानून प्रवर्तन एजेंसियां उनके पीछे-पीछे थीं।

अभियान के पहले तीन महीनों में, उन्होंने ढाका, चिटगांव, जैसोर, माइमेंसिंग, सिलहट, खुलना, पाबना और फरिदपुर में रैलियां आयोजित कीं और आठ बार गिरफ्तार हुए। 8 मई की आधी रात को नरायणगंज की रैली के बाद उन्हें ढाका में गिरफ्तार किया गया। इस बार गिरफ्तारी लंबी रही और वे 22 फरवरी 1969 तक रिहा नहीं हुए। अवामी लीग के अन्य नेता, जिनमें मुजीब के करीबी सहयोगी ताजुद्दीन अहमद भी शामिल थे, उन्हें भी जेल में डाल दिया गया।

सैन्य तानाशाही का दबदबा

सैन्य तानाशाही सहमति से नहीं बल्कि जबरदस्ती शासन करती थी। यदि वह प्रांतीय स्वायत्तता पर चर्चा को स्वीकार करती भी, जो छह सूत्रों की मांग थी, तो क्या वह सीधे-सीधे पृथक्करण को मंजूरी देने जैसा नहीं होता? इस भय ने अंततः पाकिस्तान को विभाजित करने में अहम भूमिका निभाई, क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान अब उपनिवेश की तरह व्यवहार किए जाने से इंकार कर रहा था।

1966 में जब शेख मुजीब ने अपने छह सूत्रीय मांग पत्र के तहत प्रांतीय स्वायत्तता की मांग उठाई तो यह आम पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के लिए क्या अर्थ रखता था? खासकर उन हाशिए पर पड़े हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए इसका क्या मतलब था? इसके उत्तर के लिए हमें कवि निर्मलेन्दु गुन की यादों की किताब अत्मकथा एकत्तोर (माई स्टोरी ’71) में देखना होगा। 1966 में गुन 21 साल के थे और माइमेंसिंग के आनंदमोहन कॉलेज में बी.एससी. की पढ़ाई कर रहे थे। 1964 के साम्प्रदायिक दंगों के कारण उन्हें ढाका विश्वविद्यालय की नई फार्मेसी डिपार्टमेंट में प्रवेश नहीं मिल पाया, भले ही उन्होंने प्रवेश परीक्षा पास की थी।

1965 में उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान विश्वविद्यालय ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी की प्रवेश परीक्षा भी पास की, लेकिन मौखिक परीक्षा में फेल हो गए। उन्होंने इंटरव्यू के दौरान कहा था कि उनका बड़ा भाई भारत में है, जिससे उन्हें प्रवेश नहीं मिला। उस समय भारत नया दुश्मन माना जाता था और पूर्वी बंगाल के हिंदू पाकिस्तान के “अनौपचारिक दुश्मन” माने जाते थे।

छह सूत्रों का महत्व

छह सूत्र उनके लिए पूर्वी पाकिस्तान की उन नौकरियों और अवसरों की बेकार कड़ी कैद से बाहर निकलने का रास्ता थे, जो युवाओं के लिए बंद हो चुकी थीं। 7 जून 1966 को अवामी लीग के आह्वान पर पूर्वी पाकिस्तान में आम हड़ताल हुई, जिसमें शेख मुजीब और अन्य नेताओं की रिहाई की मांग थी। ढाका में पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग की, जिससे कई घायल और मृतक हुए। हड़ताल के दौरान सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए, जिनमें रोजमर्रा के कामकाज में लगे लोग भी शामिल थे। उस दिन गुन ने माइमेंसिंग स्टेशन पर ढाका से आने वाली एक खाली ट्रेन देखी, जो उस हड़ताल की सफलता का प्रतीक थी। उन्होंने लिखा, "उस खाली ट्रेन में मैं भविष्य के बांग्लादेश को देख सकता था।"

1969 की लोकप्रिय जनता की आवाज

दिसंबर 1968 तक वह हवा एक आंधी में बदल चुकी थी। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र संगठन डीयूसीएसयू ने दिसंबर में सभी दलों का छात्र संघर्ष परिषद बनाया, जिसने 11 सूत्रीय मांग पत्र जारी किया, जिसमें मुजीब के छह सूत्र भी शामिल थे। छात्र और राजनीतिक दल एक साथ आकर लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष कर रहे थे। अवामी लीग नेताओं की जेल भेजने की रणनीति काम नहीं आई। मुजीब की गिरफ्तारी ने उन्हें जन-प्रियता दिलाई, खासकर अगर्तला षड्यंत्र केस में जनवरी 1968 से उनके कैद होने के बाद। उस केस की सुनवाई के दौरान उनके बयान को जनता ने बहुत सहानुभूति से सुना और उन्हें समर्थन दिया।

ढाका में दमन के खिलाफ विद्रोह

1969 की शुरुआत में ढाका सुलग उठा। दो दशकों से चली आ रही आर्थिक उपेक्षा, लोकतंत्र की हत्या, असहमति दबाने की कोशिशें और सांस्कृतिक आजादी पर रोक ने ऐसा दबाव बनाया जिसे सहना मुश्किल हो गया था। सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिए जैसे सुपिया कमाल, संजीदा खातून, वाहिदुल हक ने असहमति को जीवित रखा था। कवि शमसुर रहमान और अन्य युवा कवि जैसे गुन ने विद्रोह को काव्य रूप दिया। विश्वविद्यालयों ने नए विचारों को बढ़ावा दिया, जिससे बंगाली भाषा और साहित्य की रक्षा हुई।

सांस्कृतिक उत्सवों में विद्रोह की अभिव्यक्ति

बंगाली नववर्ष, टैगोर जन्मोत्सव, नाटकों और कविताओं के जरिए बंगाली असहमति ने एक सांस्कृतिक क्रांति को जन्म दिया। ढाका की सड़कों पर अलपना बनाकर भी लोग अपनी असहमति जता रहे थे। जनवरी-फरवरी 1969 में लोग कर्फ्यू की अवहेलना करते हुए सड़कों पर उतर आए, गोलियों की परवाह न करते हुए मंत्री, न्यायाधीशों के आवास और सरकारी अखबारों के दफ्तर जला दिए। शेख मुजीब और अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए बड़े-बड़े रैलियां हुईं।

आखिरी मुकाम

अयूब खान दबाव में आकर विपक्षी नेताओं से बातचीत करने को तैयार हुए, लेकिन छात्र संघर्ष परिषद ने जेल में बैठे नेताओं से संवाद से मना किया। अंततः सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा किया गया और अगर्तला षड्यंत्र केस बंद कर दिया गया। 22 फरवरी 1969 को शेख मुजीब आखिरी बंदी के रूप में कुरीमटोला छावनी से रिहा हुए। उन्होंने सुनिश्चित किया कि अन्य सभी आरोपी भी आज़ाद हो जाएं। 22 फरवरी 1969 को कुरीमटोला छावनी से रिहा होने के बाद, अगले दिन शेख मुजीब ने छात्र संघर्ष परिषद द्वारा रामना रेसकोर्स में आयोजित एक जनसभा को संबोधित किया। यह सभा उस समय की राजनीतिक गर्माहट में एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हुई।

1971 में दिया गया उनका मार्च 7 का प्रसिद्ध भाषण विश्व के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक भाषणों में गिना जाता है, लेकिन 23 फरवरी 1969 का दिन भी ख़ुशी और उत्साह का एक अनोखा प्रतीक था। उस दिन सेना शासित तानाशाही को जनता की इच्छा के सामने झुकना पड़ा था, और ढाका ने पिछले दो महीनों के आंदोलनों की सफलता को आत्मसात किया था। स्वतंत्रता की उम्मीद हवा में थी।

बंगबंधु का खिताब

करीब दस लाख लोगों की उपस्थिति वाली उस सभा में, कवि निर्मलेन्दु गुन के अनुसार, छात्र नेता तोफाएल अहमद ने शेख मुजीब को “बंगबंधु” का उपनाम दिया, जिसे भारी ताली और उत्साह के साथ भीड़ ने स्वीकार किया। गुन उस दिन रामना काली मंदिर के पास थे और उन्होंने उस विशाल मैदान में उमड़ती भीड़ को देखकर बाढ़ के पानी की तरंगों जैसा अनुभव किया।

भाषण की खासियत

मुजीब ने भाषण में बंगालियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने संघर्ष को जारी रखने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। उन्होंने मजाकिया किस्से और कहानियां सुनाकर लोगों को हंसाया, साथ ही यह भी जताया कि पूर्वी बंगाल के लोग टैगोर को अपने दिल के करीब रखने का पूरा अधिकार रखते हैं। गुन की कहानी बताती है कि महान नेता की पहचान धमकियों या गर्व से नहीं, बल्कि हास्य और सहजता से होती है। मुजीब के तीखे व्यंग्य ने लंबे समय तक लोहे के हाथों से राज करने वाले शासकों की मज़ाक उड़ाई, जिससे जनता को एक नई आज़ादी का एहसास हुआ।

अपनी कमजोरियों को व्यक्त करना

भीड़ की पूरी चुप्पी के बीच, मुजीब ने उस रात की कहानी भी सुनाई जब उन्हें जनवरी 1968 की ठंडी रात में ढाका सेंट्रल जेल से बाहर निकाला गया था, और फिर अगर्तला केस के तहत जेल के बाहर ही पुनः गिरफ्तार किया गया। सचमुच निडर लोग ही अपनी कमजोरियों को छुपाते नहीं हैं। 1971 में, जब मुजीब को पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में फांसी की धमकी दी गई, तब भी उन्होंने आग्रह किया था कि उनकी देह को बांग्लादेश में दफनाया जाए। उन्होंने सभा को बताया कि उस रात उनका दिल भय से धक-धक कर रहा था, लेकिन उन्होंने बंगाल की मिट्टी की एक मुठ्ठी लेकर अपने माथे पर लगाई और डी एल रॉय के गीत की अपनी पसंदीदा पंक्ति का जाप किया— "अमर एई देशेतेई जन्मो, जेनो एई देशेतेई मोरी" (इस जन्मभूमि में मेरी पैदाइश हुई, यहां मेरी अंतिम सांस भी हो।) कवि गुन के लिए, जो मुजीब के जीवनभर के अनन्य प्रशंसक थे, यह कहानी किसी प्रेमी द्वारा अपने प्रियतम के कान में फुसफुसाई गई एक भावुक दास्तान की तरह थी। मुजीब और उनके श्रोताओं के बीच एक साझा भाषा और समझ थी।

आगे की कहानी

अगले भाग में उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का चित्रण होगा जिसने सुनिश्चित किया कि मार्च 25, 1971 की रात जब टैंकों ने सैन्य छावनियों से कदम रखा, तब पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली पहले से ही खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र मानते थे।

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