क्या इन्हीं वजहों से हारी विपक्षी ताकत? महागठबंधन हुआ आउट
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क्या इन्हीं वजहों से हारी विपक्षी ताकत? महागठबंधन हुआ आउट

महागठबंधन की हार नेतृत्व विवाद, जातीय गणित की ग़लत पढ़ाई, कमजोर संगठन, लाभार्थी वोट बैंक और एनडीए की आक्रामक रणनीति के कारण तय मानी जा रही है।


Bihar Election Result 2025: बिहार विधानसभा चुनाव की मतगणना से जो तस्वीर सामने आ रही है उससे एक बात तो साफ है कि लोगों का भरोसा एनडीए में बरकरार है। रुझानों में एनडीए मे लैंडस्लाइन जीत दर्ज की है और महागठबंधन का आंकड़ा 50 के नीचे है। ऐसे में तेजस्वी यादव को अब 2030 का इंतजार करना होगा। सवाल यह है कि करीब 22 फीसद मत पाने वाले तेजस्वी सत्ता की रेस से क्यों बाहर हो गए। महागठबंधन की पराजय के लिए क्या कांग्रेस जिम्मेदार है। या एनडीए का प्रदर्शन ही बेहतर रहा।

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि राज्य की राजनीति में हवा कब और कैसे बदल जाए, यह तय करना बेहद मुश्किल है। महागठबंधन जिसमें आरजेडी, कांग्रेस, वाम दल और कुछ क्षेत्रीय दल शामिल थे ने इस बार चुनाव में खास उम्मीदों के साथ उतरकर जीत का दांव लगाया था। लेकिन परिणाम इसके उलट आए और एनडीए ने एक बार फिर सत्ता में वापसी कर ली। महागठबंधन की हार के कई कारण हैं, जिनमें रणनीतिक गलतियां, संगठनात्मक कमजोरी, उम्मीदवार चयन से जुड़ी दिक्कतें, और मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताएँ प्रमुख हैं।

नेतृत्व का विभाजन और स्पष्टता की कमी

चुनाव जीतने के लिए एक ही दिशा में चलने वाला एकजुट नेतृत्व सबसे अहम होता है, लेकिन महागठबंधन इस मामले में पिछड़ गया। आरजेडी और कांग्रेस के बीच सीटों को लेकर आखिरी समय तक चली खींचतान ने विपक्षी कैंप को कमजोर ही नहीं, बल्कि मतदाताओं को भ्रमित भी किया।

तेजस्वी यादव भले ही गठबंधन के चेहरे थे, लेकिन कांग्रेस का रुख शुरू से ही स्पष्ट नहीं रहा। सीट बंटवारे और कैंपेन रणनीति पर तालमेल का अभाव महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में सामने आया।

जातीय समीकरण की गलत गणित

बिहार की राजनीति जातीय संतुलन पर आधारित होती है। पिछड़े, अतिपिछड़े, दलित, मुस्लिम और ऊँची जातियों के समीकरणों का सही आकलन ही चुनावी जीत तय करता है।

महागठबंधन ने मान लिया कि मुस्लिम–यादव (MY) समीकरण ही पर्याप्त होगा। लेकिन इस बार अतिपिछड़ी जातियों (EBC) और गैर–यादव ओबीसी का झुकाव बड़े पैमाने पर एनडीए की ओर चला गया।

प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता, नीतीश कुमार का ओबीसी और ईबीसी पर पकड़ और बीजेपी की सामाजिक इंजीनियरिंग ने महागठबंधन की इस आधार रणनीति को ध्वस्त कर दिया।

उम्मीदवार चयन में बड़े झोल

कई सीटों पर महागठबंधन ने ऐसे उम्मीदवार उतारे जो जमीनी स्तर पर कमजोर साबित हुए।आरजेडी ने युवा चेहरों और बाहरी प्रत्याशियों पर दांव लगाया, जो स्थानीय समीकरणों को सही से साध नहीं सके। कांग्रेस ने कई ऐसे उम्मीदवार दिए जिनकी जीत की संभावना न्यूनतम मानी जाती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि कई सीटें महागठबंधन के हाथ से बहुत आसान परिस्थितियों में निकल गईं।

एनडीए की आक्रामक और एकजुट कैंपेनिंग

दूसरी ओर, एनडीए पूरी तरह मैदान में एकजुट उतरा। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर नीतीश कुमार और भाजपा के स्टार प्रचारकों ने हर तबके को साधने की कोशिश की।एनडीए ने विकास, सड़क-बिजली-रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा और केंद्रीय योजनाओं के लाभार्थियों को टारगेट कर सटीक कैंपेन किया।इसके मुकाबले, महागठबंधन की रैलियाँ भले ही भीड़ खींच रही थीं, लेकिन उनका संदेश मतदाताओं तक उतनी मजबूती से नहीं पहुँच पाया।

बीजेपी की लाभार्थी वोट बैंक रणनीति

बीते एक दशक में केंद्र सरकार की योजनाओं उज्ज्वला, आयुष्मान, पीएम आवास, 5 किलो मुफ्त अनाज ने एक स्थायी लाभार्थी वर्ग तैयार किया है। यह वर्ग जाति से ऊपर उठकर स्थायित्व, सुरक्षा और योजनाओं के निरंतर लाभ की उम्मीद में भाजपा और एनडीए को वोट करता है।

महागठबंधन इस लाभार्थी वर्ग की ताकत का सही आकलन नहीं कर सका। उसका एजेंडा नौकरी, आर्थिक असमानता और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर केंद्रित था, लेकिन लाभार्थियों के लिए ‘योजनाओं का निरंतरता’ अधिक महत्वपूर्ण थी।

मुस्लिम वोटों का ओवर-कॉन्फिडेंस

महागठबंधन ने मुस्लिम वोटों को ‘कंसॉलिडेटेड’ मान लिया था, लेकिन कई सीटों पर यह समीकरण टूट गया।कई जगह मुस्लिम वोटों में विभाजन हुआ कुछ (AIMIM), कुछ स्वतंत्र उम्मीदवारों की ओर चले गए।इसके अलावा, एनडीए की तरफ से भी कुछ क्षेत्रों में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे जाने से माहौल बदला।

बेरोज़गारी मुद्दे पर तैयारी की कमी

तेजस्वी यादव ने 2020 में जो 10 लाख नौकरियों का वादा किया था, उसने उन्हें युवाओं में जबरदस्त लोकप्रियता दी थी।2025 तक आते–आते इस वादे की विश्वसनीयता कमजोर पड़ गई, क्योंकि जनता ने आरजेडी के 17 महीने के कार्यकाल को भी याद किया, जिसमें कोई बड़ी भर्ती प्रक्रिया नज़र नहीं आई।एनडीए ने इसका फायदा उठाते हुए विपक्ष पर “वादे से मुकरने” और “अनुभवहीनता” का आरोप लगाया।

नीतीश कुमार का शांत लेकिन प्रभावी रोल

भले ही नीतीश कुमार की लोकप्रियता पहले जैसी नहीं रही हो, लेकिन ओबीसी–ईबीसी में उनका प्रभाव आज भी मजबूत है। उम्रदराज मतदाताओं और महिला वोटर ने उन्हें स्थिरता और सुरक्षा का प्रतीक माना। महागठबंधन की लहरें नीतीश के इस स्थिर वोट बैंक को डिगा नहीं सकीं।

हिंदुत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा का इमोशनल कार्ड

बीजेपी ने अपने पारंपरिक हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के कार्ड इस चुनाव में भी बखूबी इस्तेमाल किया।रक्षा, सीमा सुरक्षा, पाकिस्तान–चीन मुद्दे, और ‘डबल इंजन सरकार’ का नैरेटिव ग्रामीण वोटरों में प्रभावी रहा।महागठबंधन इस भावनात्मक अपील का प्रभावी जवाब नहीं दे सका।

जमीन पर संगठनात्मक कमजोरी

महागठबंधन का सबसे बड़ा संकट यह था कि बूथ स्तर पर संगठन मजबूत नहीं था। एनडीए के मुकाबले विपक्ष के "पन्ना प्रमुख" और बूथ प्रभारी नेटवर्क काफी कमजोर रहे।कई सीटों पर आरजेडी कार्यकर्ता कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए और कांग्रेस कार्यकर्ता आरजेडी प्रत्याशियों के लिए पूरी ताकत से नहीं उतरे।यह अंदरूनी असहमति कई सीटों की हार की वजह बनी।

सोशल मीडिया और नैरेटिव की लड़ाई में हार

आज की राजनीति में सोशल मीडिया एक मुख्य युद्धक्षेत्र है।एनडीए के पास एक सुसंगठित, आक्रामक और 24x7 सक्रिय सोशल मीडिया इकोसिस्टम था।महागठबंधन ने कुछ मुद्दों को उठाया, लेकिन वह बड़े नैरेटिव को सेट करने में नाकाम रहा। विकास बनाम वादा, स्थिरता बनाम अराजकता जैसे नैरेटिव में एनडीए भारी पड़ा।

महागठबंधन की हार एक वजह से नहीं, बल्कि कई स्तरों पर हुए सामूहिक चूक का नतीजा है।नेतृत्व की अस्पष्टता, सीटों पर खराब तालमेल, जातीय समीकरणों के गलत आकलन, कमजोर संगठन, और लाभार्थी वर्ग के महत्व को न समझ पाना इन सबने मिलकर विपक्ष को मात दे दी।बिहार की राजनीति में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि दीर्घकालिक रणनीति, जमीनी काम, और मजबूत नेतृत्व के बिना चुनावी सफलता मुश्किल है।

महागठबंधन के लिए यह हार एक सबक है कि सिर्फ विरोध की राजनीति काफी नहीं, बल्कि एक ठोस और भरोसेमंद विकल्प बनने के लिए लंबे और निरंतर काम की जरूरत होती है।

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