लालू-राबड़ी से लेकर नीतीश तक, महिलाओं की सियासी पसंद में कितना बदलाव आया?
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लालू-राबड़ी से लेकर नीतीश तक, महिलाओं की सियासी पसंद में कितना बदलाव आया?

बिहार चुनाव में महिला मतदाता फिर केंद्र में हैं। क्या नीतीश कुमार पर महिलाओं का भरोसा कायम रहेगा या बदलाव की लहर इस बार नई कहानी लिखेगी?


Bihar Election 2025: बिहार की सभी 243 सीटों के लिए दो चरणों में मतदान होने जा रहा है। सात करोड़ से अधिक मतदाता उम्मीदवारों (3.25 करोड़) की किस्मत ईवीएम में कैद करेंगे। 14 नवंबर को यानी नतीजे वाले दिन तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाएगी कि मुहर बदलाव पर लगी या व्यवस्था बदलने के लिए। इस दफा एनडीए और महागठबंधन के साथ साथ जनसुराज पार्टी भी मैदान में है और दोनों से खुद को बेहतर विकल्प के तौर पर पेश कर रही है। इन सबके बीच हम बात करेंगे कि महिला मतदाताओं के बारे में।

बिहार में महिला मतदाताओं के बारे में आम धारणा है कि वो मौजूदा सीएम नीतीश कुमार को पसंद करती है। नीतीश कुमार के विरोधी भले ही उनकी कितनी भी आलोचना क्यों ना करें महिलाओं की पसंद वे बने हुए हैं। अगर नीतीश सरकार की सियासत का आंकलन 2005 से लेकर आज की तारीख में करें तो दो दफा (भले ही कम अवधि के लिए) वो महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार बनाए। वो साल 2015 और 2020 का था। सियासी जानकार बताते हैं कि इस दफा का चुनाव नीतीश कुमार के लिए करो या मरो का है, एक तरह से अस्तित्व बचाने की लड़ाई है। दरअसल इसके पीछे सियासी पंडित जेडीयू के गिरते ग्राफ को बताते हैं। अब जेडीयू का ग्राफ भले ही गिरा हो लेकिन जानकार यह भी कहते हैं कि महिलाओं ने नीतीश को कभी नहीं छोड़ा। सवाल यह है कि क्या नीतीश से पहले यानी जब लालू और रबड़ी का शासन था उस समय आधी आबादी के लिए कुछ नहीं हुआ या नीतीश के काम की जरूरत से ज्यादा तारीफ होती है।

जैसा कि हम सब जानते हैं कि 90 के दशक में मंडल-कमंडल की लड़ाई में लालू यादव शोषित, वंचित, दलित और पिछड़ों के मसीहा के तौर पर उभरे। शासन में आने के बाद इस समाज के लिए लालू यादव ने जमीनी स्तर पर काम भी किया। लेकिन आधी आबादी कहीं न कहीं उनके एजेंडे से गायब रही। आपको यह भी पता होगा कि चारा घोटाले की छींट पड़ने के बाद लालू प्रसाद यादव को कुर्सी छोड़नी पड़ी। कमान उन्होंने अपनी पत्नी के हाथ में सौंप दी। उस वक्त बिहार की राजनीति के संदर्भ में इसे बड़ा बदलाव माना गया। रबड़ी देवी के शासन सत्ता के शीर्ष को महिला शक्ति के तौर पर पेश किया गया। लेकिन यह भी हकीकत थी कि पर्दे के पीछे से लालू अपनी राजनीति करते रहे।

द फेडरल देश की टीम जब बिहार के कैमूर से लेकर पश्चिमी चंपारण तक यात्रा कर रही थी। इस सवाल को समाज के अलग अलग तबकों से पूछा। खासतौर से स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों से, उन महिलाओं से जो पढ़ाई लिखाई के मामले में उतनी आगे नहीं थी लेकिन सियासी समझ थी। इसके साथ ही उन महिलाओं से भी जो आर्थिक तौर पर उतनी संपन्न नहीं थीं। कैमूर जिले की सोना देवी, रानी महतो, विमला देवी (जीविका दीदी योजना के तहत लाभार्थी भी)ने कहा कि इसमें दो मत नहीं कि लालू-रबड़ी के शासन में समाज के शोषित वंचितों को बोलने के लिए जुबान मिली। लेकिन आर्थिक तौर वो पुरुषों पर निर्भर रहीं। लेकिन नीतीश कुमार के 2005 से 2010 के शासन में जिस तरह से महिलाओं के लिए बनी स्वयं सहायता समूहों पर ध्यान दिया गया। स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों के साइकिल मिली। लड़कियों को प्राथमिकता के आधार पर वजीफे मिले उसका असर यह हुआ कि महिलाओं को लगा कि अब वास्तविक तौर पर उनकी तरक्की हुई है।

कैमूर की इन महिलाओं की राय को आगे बढ़ाते हुए आरा के वीर कुंवर सिंह यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली, रंजना, सीमा और मेहरुनिसा कहती हैं कि इस समय उनकी उम्र 25 साल है। जिस समय लालू-रबड़ी शासन का अंत हुआ उस वक्त वो चार पांच साल की थी। ऐसे में उस दौर को नहीं देखा है। वो अपने बड़े बुजुर्गों से सुनती हैं कि लालू के शासन के दौरान अपराध चरम पर था। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार के शासन में अपराध नहीं हो रहा है। लेकिन अगर आप अपनी फरियाद लेकर जाते हैं तो कार्रवाई भी होती है। इसके साथ ही साथ महिलाओं के लिए छात्रों के लिए अलग अलग स्कीम को अमल में लाया गया और उसका असर अब दिखता है।

पूर्वी चंपारण की हेमलता, पुष्पा और कमला देवी कहती हैं कि इस समय जीविका दीदी, महिला आंगनबाड़ी कर्मियों के लिए चलाई जा रही योजनाओं से लाभ हुआ है। स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था का फायदा अभी भले ही आम महिलाओं को होता भले ही नजर ना आ रहा है। लेकिन उम्मीद जग गई है कि अब महिलाएं राजनीतिक शक्ति में हिस्सेदार हो सकती हैं। ऐसे में एक सवाल था कि ऐसा नहीं है कि महागठबंधन की तरफ से वादे नहीं किए गए हैं। इस सवाल के जवाब में महिलाओं ने कहा कि देखिए अब जमाना वादा का नहीं है, जनता इस बात को देखती है कि उसे कितना अमल में लाया गया है। हालांकि एक सवाल था कि अगर नीतीश कुमार ने महिलाओं की आर्थिक तरक्की के लिए इतना काम किया है तो विधानसभा, लोकसभा चुनाव में पर्याप्त टिकट क्यों नहीं देते। इस सवाल के जवाब में महिलाएं कहती हैं कि जो भी कुछ मिला है वो सपना था। उन्हें उम्मीद है कि आगे तस्वीर बदलेगी।

इस विषय पर गोपालगंज के स्थानीय पत्रकार वरुण कुमार मिश्र कहते हैं कि देखिए सियासत में जीत के लिए कोई एक फैक्टर जिम्मेदार नहीं होता। ऐसा नहीं है कि नीतीश से पहले की सरकारों ने महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं किया। काम तो हुए लेकिन उससे महसूस करने वाली बात है। उदाहरण के लिए जब नीतीश कुमार ने महिला छात्राओं के लिए साइकिल का प्रबंध किया तो उसका बड़ा फायदा यह हुआ कि जो लाभार्थी थे उनके अंदर उत्साह बढ़ा। उन्हें सीधे सीधे फायदा हुआ। छात्राएं उस साइकिल का इस्तेमाल स्कूल जाने के लिए कर सकती थीं और उनका परिवार अपने घरेलू कामकाज के लिए। इसी तरह जनधन योजना भले ही केंद्र सरकार की रही हो लेकिन राज्य में नीतीश के शासन पर जमीन पर उतारा गया। उसकी वजह से राज्य सरकार को सीधे लाभार्थियों तक बिना किसी बिचौलिये या सरकारी तंत्र तक पहुंचने में आसानी हुई। आप इसे ऐसे समझिए कि लाभार्थी और सरकार के बीच सीधा संवाद स्थापित हो गया। बात जहां तक तेजस्वी यादव द्वारा कम्यूनिटी मोबलाइजर्स को सरकारी ओहदा देने की बात है, 30 हजार रुपए देने की बात है, वो अभी तक सिर्फ बात है। लेकिन जीविका दीदियों के खाते में 10 हजार रुपए का क्रेडिट होना यथार्थ है।

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