COP30: भारत के जलवायु शमन के वादे ज़्यादातर बयानबाज़ी हैं, हकीकत में बहुत कम काम हुआ है
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भारत के ब्राज़ील में राजदूत दिनेश भाटिया ने 8 नवंबर को ब्राज़ील के बेलम शहर में आयोजित COP30 नेताओं के शिखर सम्मेलन में भारत का “राष्ट्रीय वक्तव्य” प्रस्तुत किया। | फोटो: X/@indiainbrazil

COP30: भारत के जलवायु शमन के वादे ज़्यादातर बयानबाज़ी हैं, हकीकत में बहुत कम काम हुआ है

भारत ने अपने पर्यावरणीय संरक्षण कानूनों को कमजोर कर दिया है, घने वनों की बड़े पैमाने पर कटाई को अनुमति दी है, और हरित ऊर्जा (ग्रीन एनर्जी) की दिशा में इसका परिवर्तन कागज़ों पर ज़्यादा, ज़मीन पर बहुत कम दिखता है।


शनिवार (8 नवंबर) को भारत के ब्राज़ील में राजदूत दिनेश भाटिया ने बेलम में आयोजित COP30 नेताओं के शिखर सम्मेलन में भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं का सार प्रस्तुत किया — जो 2014 से अब तक की उपलब्धियों पर आधारित था।

उन्होंने अपने भाषण में चार बड़े दावे किए:

1. 2005 से 2020 के बीच भारत ने अपनी GDP की उत्सर्जन तीव्रता (Emission Intensity) में 36% की कमी की।

2. गैर-जीवाश्म ऊर्जा (Non-fossil power) भारत की कुल स्थापित क्षमता का 50% से अधिक हिस्सा बन चुकी है — यानी भारत ने अपनी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित प्रतिबद्धता (NDC) का लक्ष्य तय समय से पाँच साल पहले हासिल कर लिया। इसके साथ ही, लगभग 200 गीगावॉट की स्थापित नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता के साथ भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादक बन गया है।

3. 2005 से 2021 के बीच भारत में वन और वृक्ष आच्छादन में सुधार हुआ है, जिससे 2.29 बिलियन टन CO₂ समकक्ष का नया कार्बन सिंक जोड़ा गया।

4. भारत की पहल अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance) अब 120 से अधिक देशों को एकजुट करती है और सस्ती सौर ऊर्जा व दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देती है।

वास्तविकता क्या कहती है

भारत का उत्सर्जन: दुनिया में सबसे तेज़ वृद्धि

भारत ने जो आँकड़े दिए, वे केवल 2005 से 2020 तक के हैं। भारत की पहली NDC प्रतिबद्धता, अगस्त 2022 में घोषित, कहती है कि देश 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता में 45% की कमी करेगा।

यहाँ उत्सर्जन से मतलब उन ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) से है जो ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचाती हैं — जैसे कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), मीथेन (CH₄), नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) और अन्य गैसें जैसे हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs), परफ्लोरोकार्बन (PFCs) तथा सल्फर हेक्साफ्लोराइड (SF₆)।

भारत ने COP30 में जो आँकड़े दिए, वे पाँच साल पुराने हैं (2020 तक)। अब तक की वास्तविक कमी कितनी हुई — यह जानकारी साझा नहीं की गई।

UNEP (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) की Emissions Gap Report 2025 — जो 4 नवंबर 2025 को जारी हुई — बताती है कि 2024 में दुनिया में उत्सर्जन की सबसे अधिक वृद्धि भारत में दर्ज की गई। रिपोर्ट के अनुसार, भारत के उत्सर्जन में 3.6% की वृद्धि हुई, जो इंडोनेशिया (4.6%) के बाद दूसरी सबसे ऊँची दर थी।

रिपोर्ट में भारत के उत्सर्जन का विस्तृत मानचित्र भी शामिल किया गया है।

भारत दुनिया के छह सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जक देशों में शामिल है। बाकी देश हैं—चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ (EU), रूस और इंडोनेशिया। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की रिपोर्ट बताती है कि चीन का उत्सर्जन अब धीमा हो रहा है (2024 में केवल 0.5 प्रतिशत की वृद्धि) और जल्द ही नीचे की ओर जाएगा; अमेरिका और यूरोपीय संघ का उत्सर्जन कई वर्षों से लगातार घट रहा है; रूस का उत्सर्जन बढ़ रहा है लेकिन भविष्य में गिरावट की संभावना है; जबकि इंडोनेशिया का उत्सर्जन अभी भी बढ़ रहा है। भारत के लिए राहत की बात यह है कि इन छह देशों में इसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सबसे कम है।

हरित ऊर्जा क्षमता 50 प्रतिशत से अधिक, लेकिन वास्तविक उत्पादन सिर्फ 22.5 प्रतिशत

भारत ने दावा किया है कि उसने 2025 तक हरित ऊर्जा से बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता का 50 प्रतिशत से अधिक हासिल कर लिया है — जो 2030 की तय समयसीमा से पांच वर्ष पहले है — और 200 गीगावॉट की क्षमता स्थापित की जा चुकी है। यह दावा सही है, लेकिन जो भारत ने नहीं बताया वह यह कि जनवरी 2025 तक हरित स्रोतों से वास्तविक बिजली उत्पादन कुल उत्पादन का केवल 22.4 प्रतिशत है। यह जानकारी नए और नवीकरणीय ऊर्जा राज्य मंत्री श्रीपाद नाइक ने 11 मार्च 2025 को राज्यसभा में दी थी। कम उत्पादन का मुख्य कारण है — अत्यंत कमजोर ट्रांसमिशन, वितरण और भंडारण ढांचा — जिसके चलते बड़ी मात्रा में स्थापित क्षमता निष्क्रिय पड़ी रहती है।

दूसरी ओर, कोयला मंत्रालय के 4 अप्रैल 2025 के बयान में कहा गया कि देश की कुल बिजली उत्पादन का “74 प्रतिशत से अधिक” कोयले से आ रहा है — जबकि इसकी स्थापित क्षमता कुल का केवल 49.2 प्रतिशत है। भारत ने यह भी घोषणा की है कि वह 2032 तक 80 गीगावॉट नई कोयला-आधारित बिजली परियोजनाएँ जोड़ेगा — जबकि 2018 की राष्ट्रीय विद्युत योजना ने स्पष्ट कहा था: “चूंकि 47,855 मेगावॉट की परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं और 2017–22 के दौरान पूरी हो जाएँगी, इसलिए अतिरिक्त क्षमता की आवश्यकता नहीं है।”

भारत ने यह भी घोषणा की कि वह वित्त वर्ष 2026 तक कोयला निर्यातक देश बन जाएगा और 2022 में कोयला खनन अनुबंधों की अवधि 30 वर्ष बढ़ा दी गई है — यानी अब ये अनुबंध 2052 तक चलेंगे।

ग्लासगो में हुए COP26 (2021) में भारत ने “कोयले का चरणबद्ध अंत (phase-out)” करने से इनकार कर दिया था (चीन के साथ यह कहते हुए कि विकास के लिए सस्ती ऊर्जा की आवश्यकता है)। इसका मतलब था कि भारत नए कोयला खदानों या कोयला-आधारित बिजली परियोजनाओं को मंजूरी नहीं देगा।

2023 में वॉशिंगटन पोस्ट ने भारत की नीति पर टिप्पणी की थी: “भारत में ‘कोयले का चरणबद्ध घटाव (phase-down)’ वास्तव में कोयला खनन के तेज विस्तार का प्रतीक है।”

COP28 (2023) में भारत की “जीत”, लेकिन दुनिया की “हार”

COP28 (2023) में भारत को बड़ी कूटनीतिक जीत मिली जब अंतिम प्रस्ताव में कोयले के “phase-out” (पूर्ण रूप से समाप्त करने) शब्द को हटा दिया गया और उसकी जगह “phase-down” (निर्भरता कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने) शब्द रखा गया। लेकिन इस सौदे में असली हार दुनिया की हुई — क्योंकि इसी प्रस्ताव में तेल और गैस के लिए भी “phase-down” और “phase-out” दोनों शब्द हटा दिए गए।

COP28 में भारत ने ऊर्जा के डिकार्बोनाइजेशन, मीथेन गैस उत्सर्जन में कटौती और कूलिंग से जुड़ी ग्रीनहाउस गैसों को कम करने जैसी प्रतिज्ञाओं से भी दूरी बनाई।

जंगल और पेड़ों के दावों की सच्चाई

भारत ने यह दावा किया कि उसने 2005 से 2021 के बीच जंगल और वृक्ष आवरण में तेज वृद्धि की है, जिससे कार्बन सिंक बढ़ा है। लेकिन यह दावा भी भ्रामक है।

सबसे पहला सवाल यह उठता है कि जब State of Forest Report (SFR) 2023 दिसंबर 2024 में जारी हो चुकी थी, तो COP30 में 2021 तक के ही आंकड़े क्यों साझा किए गए?

SFR 2023 के अनुसार भारत का

वन क्षेत्र 7.15 लाख वर्ग किलोमीटर (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.76%) और वृक्ष क्षेत्र 8.27 लाख वर्ग किलोमीटर (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3.41%)

है — यानी कुल हरित आवरण 25.17% हो गया है।

रिपोर्ट ने यह भी दावा किया कि भारत का कार्बन स्टॉक 2.29 अरब टन का लक्ष्य पहले ही हासिल कर लिया गया है, जबकि भारत की NDC प्रतिबद्धता 2030 तक 2.5–3.0 अरब टन की है।

पूर्व नौकरशाहों की आपत्तियाँ

60 पूर्व सिविल सेवकों के समूह “Constitution Conduct Group” ने पर्यावरण मंत्रालय (MoEFCC) को एक तीखा पत्र लिखा और कहा कि यह रिपोर्ट “त्रुटियों से भरी हुई” है। उनके मुख्य आपत्तियाँ थीं:

• बाग-बगीचे, नारियल, तेल पाम और रबर के बागानों को “जंगल” गिना गया है — जबकि ये वास्तविक जंगल नहीं हैं।

• 1996 से 2023 के बीच विकास परियोजनाओं के लिए 3 लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि काटी गई, लेकिन रिपोर्ट में इसका उल्लेख नहीं।

• रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2021 के बाद से 1,488 वर्ग किलोमीटर “unclassed forests” खो दिए, जो वास्तव में जंगलों में कमी दिखाता है, जबकि रिपोर्ट दावा करती है कि जंगल 1,445.81 वर्ग किलोमीटर बढ़े हैं।

• 2013 से 2023 के बीच 14.9 लाख हेक्टेयर पेड़ नष्ट हुए।

• राज्यों के “unclassed forests” के आंकड़ों में भारी उतार-चढ़ाव हैं — जो यह दर्शाता है कि डेटा भरोसेमंद नहीं है।

संसद और मीडिया की रिपोर्टें

अगस्त 2024 में पर्यावरण मंत्रालय ने संसद में बताया कि पिछले 10 वर्षों में 1,734 वर्ग किलोमीटर जंगल विकास गतिविधियों में खत्म हुए हैं।

यह विरोध नया नहीं है। SFR 2021 के आने के बाद भी विशेषज्ञों ने इसे खारिज कर दिया था।

इंडियन एक्सप्रेस ने ज़मीनी जांच में पाया कि रिपोर्ट में कई “असंभव जगहों” को भी जंगल माना गया है — जैसे निजी बागान (जो आरक्षित जंगलों पर अतिक्रमण कर बनाए गए हैं), चाय और सुपारी के बागान, गांव के घरों के पेड़, सड़क किनारे पेड़, शहरी आवासीय इलाके,

वीआईपी बंगले (जैसे लुटियंस दिल्ली) और यहाँ तक कि आरबीआई बिल्डिंग, एम्स, और आईआईटी जैसे संस्थानों के परिसर भी “फॉरेस्ट एरिया” में गिने गए।

20 वर्षों का विश्लेषण: अजीब उलटफेर

Reporters’ Collective ने 20 वर्षों के SFR डेटा का विश्लेषण कर पाया कि हर दो साल में औसतन 2,594 वर्ग किमी घने जंगल झाड़ी या बंजर भूमि में बदल गए, और लगभग 1,907 वर्ग किमी झाड़ी या गैर-जंगल भूमि अचानक “घने जंगल” में तब्दील हो गई।

उन्होंने पूछा — “सिर्फ दो साल में कोई लगभग बंजर ज़मीन कैसे बेहद घने जंगल में बदल सकती है?”

भारत में तेजी से बढ़ता वनों का दोहन

ब्रिटेन स्थित एक कारोबारी समूह ने 2023 में रिपोर्ट दी थी कि भारत विश्व स्तर पर वनों की कटाई में “दूसरे स्थान” पर है, और हाल के वर्षों में 6.68 लाख हेक्टेयर जंगल खो चुका है।

अब तो वन अधिकार कानून (Forest Rights Act) और PESA जैसे संवैधानिक संरक्षणों को भी दरकिनार कर दिया गया है, और विकास परियोजनाओं के नाम पर बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई को मंजूरी देना आम बात हो गई है।

अब तक “नो-गो एरिया” कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य — जो भारत के कुछ शेष बचे घने और निरंतर फैले प्राकृतिक वनों में से एक है — को 23 कोल ब्लॉकों में बांट दिया गया है। अडाणी समूह ने इनमें से चार खदानों के लिए 1,898 हेक्टेयर (लगभग 19.98 वर्ग किमी) वनभूमि पहले ही काट दी है।

इसी तरह का हाल ग्रेट निकोबार द्वीप का भी होने वाला है, जहाँ एक बड़े ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, एयरपोर्ट, पॉवर प्लांट और टाउनशिप प्रोजेक्ट के लिए 130.75 वर्ग किमी जंगलों को काटने की मंजूरी दी जा चुकी है।

भारत ने अपनी 2022 की NDC प्रतिज्ञा में जंगलों (कार्बन सिंक) की सुरक्षा या वनों की कटाई में कमी के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई। सरकार का कहना था कि भारत में “वन और वृक्ष आवरण तेजी से बढ़ रहा है”, इसलिए ऐसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं।

भारत प्लास्टिक में डूबा हुआ है

बहुत कम लोगों को याद होगा कि अक्टूबर 2018 में प्रधानमंत्री मोदी को संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान — UNEP Champion of the Earth — दिया गया था, सौर गठबंधन को बढ़ावा देने (फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ) और 2022 तक सिंगल-यूज़ प्लास्टिक (SUP) समाप्त करने की “ऐतिहासिक प्रतिज्ञा” के लिए।

लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत की “ग्रीन ट्रांजिशन” केवल कागज़ों में ही दिखती है। UNEP को शायद यह नहीं पता कि भारत आज प्लास्टिक में डूब रहा है।

1 जुलाई 2022 को, जब तक प्लास्टिक पूरी तरह खत्म करने की समयसीमा थी, उससे कुछ ही महीने पहले एक औपचारिक “बैन” की घोषणा कर दी गई — लेकिन ज़मीनी असर लगभग शून्य रहा।

इंडिया टुडे ने अपने जून 2025 के अंक में लिखा —“भारत प्लास्टिक में डूब रहा है” और “भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक बन गया है।”

भारत के पास न तो प्लास्टिक के व्यावहारिक विकल्प हैं, न ही कोई प्रभावी कचरा प्रबंधन नीति।

भारत के “नो-गो” क्षेत्र: कोयला, जंगल और कृषि

COP30 में भारत के “राष्ट्रीय वक्तव्य” ने यह नहीं बताया कि उसके पास तीन “नो-गो एरिया” हैं — कोयला, जंगल और कृषि। कोयला और जंगलों को लेकर भारत का रुख स्पष्ट है, लेकिन उसने मीथेन गैस पर भी कुछ नहीं कहा — न अपनी NDC में, न COP28 में।

यह चुप्पी इसलिए गंभीर है क्योंकि मीथेन जीवाश्म ईंधनों के बाद जलवायु संकट की सबसे बड़ी वजह है। कृषि और पशुपालन मीथेन के मुख्य स्रोत हैं — और दोनों ही भारत में राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दे हैं।

भारत ने हरित सुरक्षा कानूनों को कमजोर किया

पिछले कुछ वर्षों में भारत ने पर्यावरण की रक्षा करने वाले लगभग सभी प्रमुख कानूनों को कमजोर किया है, जिससे दशकों की मेहनत पर पानी फिर गया है। इनमें शामिल हैं:

PESA अधिनियम 1996 — जो आदिवासी क्षेत्रों को अनियंत्रित विकास और खनन से बचाता है। वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) — जो आदिवासियों को अपने पारंपरिक वनों पर अधिकार देता है और उद्योगों को दूर रखता है।

इन दोनों को Forest (Conservation) Rules 2022 द्वारा दरकिनार कर दिया गया है ताकि वन स्वीकृतियाँ देना आसान हो जाए। यह कदम संविधान के विपरीत है — क्योंकि किसी “नियम” के ज़रिए किसी कानून को बदला नहीं जा सकता।

फिर आया Forest Conservation (Amendment) Act 2023, जिसने पर्यावरण मंज़ूरियों से व्यापक छूटें दे दीं —अंतरराष्ट्रीय सीमा से 100 किमी के भीतर के क्षेत्रों को, सुरक्षा ढांचे के लिए 10 हेक्टेयर तक, नक्सल-प्रभावित इलाकों में 5 हेक्टेयर तक, “फॉरेस्ट्री प्रोजेक्ट्स” जैसे ज़ू, वाइल्डलाइफ़ सफारी, और निजी वृक्षारोपण व पुनर्वनीकरण परियोजनाओं को भी।

इन सभी प्रावधानों ने भारत की पर्यावरण सुरक्षा व्यवस्था को बुरी तरह कमजोर कर दिया है — और “हरित विकास” के नाम पर वनों की अंधाधुंध कटाई को वैधता प्रदान कर दी है।

जन विश्वास (संशोधन) अधिनियम 2023 ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1986, और जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1974 के उल्लंघनों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यानी अब इन पर्यावरणीय कानूनों के उल्लंघन को अपराध नहीं माना जाएगा।

इसी तरह का एक और कानून आने की तैयारी में है — जो पर्यावरण को और भी नुकसान पहुंचाएगा।

भारत COP30 में क्या करने जा रहा है

भारत ने मेज़बान ब्राज़ील की “ट्रॉपिकल फॉरेस्ट्स फॉरएवर फैसिलिटी (TFFF)” स्थापित करने की पहल का स्वागत किया है — जिसका उद्देश्य विश्व के उष्णकटिबंधीय वनों की रक्षा करना है। भारत ने बहुपक्षवाद (multilateralism) और पेरिस समझौते (COP21, 2015) की मूल संरचना को बचाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है।

पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति-पूर्व स्तर से 1.5°C तक सीमित रखना, और सभी देशों द्वारा अपनी राष्ट्रीय स्तर की प्रतिज्ञाएँ (NDCs) प्रस्तुत करना शामिल है। लेकिन इन घोषणाओं को शब्दशः नहीं लिया जाना चाहिए।

वास्तव में, भारत की कोई भी जलवायु शमन (climate mitigation) प्रतिज्ञा — जिसमें 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य भी शामिल है — को शाब्दिक रूप से सच नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यवहारिक नीतियों और अमल में भारत का रुख अक्सर इन दावों के उलट दिखाई देता है।

हरित ऊर्जा क्षमता बढ़ाने को छोड़कर, भारत की नीतियाँ पर्यावरण संरक्षण के बजाय उसे और कमजोर करती दिखती हैं।

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