
SEZ नीति पर सवाल: भारत की नाकामी और चीन की कामयाबी
भारत ने SEZ मॉडल तो अपनाया, लेकिन सही तरीके से नहीं। न केंद्र और न ही राज्यों ने पर्याप्त तैयारी की। निजी कंपनियां भी नवाचार और तकनीकी विकास में कमजोर रहीं। ऐसे हालात में SEZs से बड़े आर्थिक बदलाव की उम्मीद करना सिर्फ कल्पना साबित हुआ।
वित्त वर्ष 2020-21 से 2024-25 के बीच केंद्र सरकार द्वारा संचालित 466 विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) बंद कर दिए गए। यह संख्या देश के सात केंद्रीय SEZ जोन में चल रहे कुल 5,281 SEZs का लगभग 10 प्रतिशत है। यह जानकारी वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने 8 दिसंबर को लोकसभा में दी। हालांकि, सरकार ने यह नहीं बताया कि इतनी बड़ी संख्या में SEZs बंद क्यों किए गए।
कारणों का आकलन नहीं
तकनीकी रूप से सरकार यह कह सकती है कि सांसद ने सवाल में कारण नहीं पूछा था, लेकिन सच्चाई यह है कि मंत्रालय ने खुद भी कभी इस पर कोई ठोस अध्ययन नहीं किया। अगर कारण पूछे भी जाते तो मंत्रालय के पास देने के लिए कोई स्पष्ट जवाब नहीं होता।
SEZs का बंद होना सवालों के घेरे में
सरकार की ओर से दिए गए आंकड़ों में दो ग्राफ शामिल थे। पहले ग्राफ में सात केंद्रीय SEZ जोन में कुल इकाइयों और पिछले पांच साल में हुए बंदीकरण को दिखाया गया। वित्त वर्ष 2020-21 में सख्त राष्ट्रीय लॉकडाउन के कारण दबाव समझा जा सकता है, लेकिन इसके बाद के वर्षों में भी SEZs का लगातार बंद होना हैरान करता है, जबकि सरकार की ओर से प्रोत्साहन और सस्ती कर्ज सुविधाएं दी जा रही थीं। दूसरा ग्राफ SEZs के प्रदर्शन से जुड़ा था, लेकिन उसमें यह बताने का कोई पैमाना नहीं था कि निवेश, निर्यात और रोजगार के आंकड़े अच्छे हैं या खराब।
SEZ नीति का उद्देश्य और हकीकत
भारत ने 2000 में SEZ नीति बनाई और 2005 में SEZ कानून लागू किया। इसका उद्देश्य निर्यात बढ़ाना, निवेश आकर्षित करना और रोजगार पैदा करना था। यह मॉडल चीन के सफल SEZs से प्रेरित था। SEZs को कई तरह की सुविधाएं दी गईं। जैसे कि सस्ती या लगभग मुफ्त जमीन, ड्यूटी-फ्री आयात और खरीद, पहले 5 साल 100% आयकर छूट, अगले 5 साल 50% टैक्स छूट, MAT और GST से छूट और सिंगल विंडो क्लियरेंस।
SEZ या जमीन का खेल?
केंद्र के सात SEZ जोन के अलावा राज्यों के 17 जोन हैं और कई SEZ निजी कंपनियों द्वारा संचालित हैं। 30 जून 2025 तक देश में 353 SEZ अधिसूचित थे, लेकिन इनमें से कितने वास्तव में चालू हैं, इसकी जानकारी सरकार ने नहीं दी। यह भी साफ नहीं है कि SEZs के लिए कुल कितनी जमीन ली गई। सरकार ने 2017 और 2018 में लोकसभा में बताया था कि 50 से 60 प्रतिशत जमीन खाली पड़ी है। करीब 40 प्रतिशत SEZs गैर-परिचालन (Non-operational) हैं। आज यह आंकड़े और ज्यादा होने की आशंका है।
जमीन का दुरुपयोग
2014 में पेश CAG रिपोर्ट में कहा गया था कि SEZ योजना में जमीन सबसे बड़ा आकर्षण बन गई। रिपोर्ट के अनुसार, जमीन तो SEZ के नाम पर ली गई, लेकिन उसका उपयोग उद्देश्य के अनुसार नहीं हुआ। SEZs धीरे-धीरे उद्योग और निर्यात के बजाय रियल एस्टेट कारोबार बनते चले गए। रिपोर्ट में बताया गया कि आपातकालीन प्रावधानों के तहत जमीन अधिग्रहण कर उसे SEZ के नाम पर आवंटित किया गया, लेकिन बाद में कई जगहों पर उसे व्यावसायिक उपयोग में लगा दिया गया।
रोजगार, निवेश और निर्यात में भारी कमी
CAG की रिपोर्ट के मुताबिक, रोजगार लक्ष्य के मुकाबले औसतन 92% की कमी, निवेश लक्ष्य में 58% की कमी, निर्यात लक्ष्य में 74% की कमी और विदेशी मुद्रा आय में 79% की कमी। IT/ITeS सेक्टर ने SEZs के आंकड़ों को संभाला, जबकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर कमजोर रहा।
SEZ मॉडल क्यों फेल हुआ?
2019 और 2022 की रिपोर्ट्स में पाया गया कि प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण कमजोर रहे। नीतिगत बदलाव असली समस्याओं को हल नहीं कर सके। SEZs के बाद कोई गंभीर मूल्यांकन नहीं किया गया। साल 2019 में सरकार ने SEZ कानून में संशोधन कर ट्रस्ट, REITs और निजी संस्थाओं को अनुमति दी, लेकिन इसके असर का आज तक कोई आकलन नहीं हुआ।
चीन का मॉडल बनाम भारत की हकीकत
विश्व बैंक की 2015 रिपोर्ट के अनुसार चीन, सिंगापुर और मलेशिया में SEZs बेहद सफल रहे। चीन के SEZs GDP का 22%, FDI का 46% व निर्यात का 60% योगदान देते हैं और 3 करोड़ नौकरियां पैदा कर चुके हैं। चीन ने SEZs की शुरुआत छोटे स्तर से की और धीरे-धीरे विस्तार किया, जबकि भारत ने एक साथ बहुत सारे SEZ बना दिए। इसे विश्व बैंक ने “मशरूम अप्रोच” कहा।

