India UK FTA: क्या समझौते में छिपा है सस्ती दवाओं पर हमला?
x

India UK FTA: क्या समझौते में छिपा है सस्ती दवाओं पर हमला?

भारत-यूके FTA में IPR प्रावधानों को लेकर चिंता बढ़ गई है। एवरग्रीनिंग’और डेटा एक्सक्लूसिविटी से दवाओं की कीमतें बढ़ने और जनस्वास्थ्य पर खतरे की आशंका है।


24 जुलाई को भारत और ब्रिटेन के बीच एक बहुप्रतीक्षित मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर हस्ताक्षर होने जा रहे हैं। हालांकि ज़्यादातर विवरण पहले ही सार्वजनिक हो चुके हैं, लेकिन बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) से जुड़ा अध्याय अब भी रहस्य बना हुआ है। इसे लेकर गंभीर चिंताएं उठ रही हैं कि यह समझौता आम भारतीयों के लिए जीवनरक्षक दवाओं की उपलब्धता और कीमतों पर गहरा असर डाल सकता है।

संक्षेप में कहानी

भारत-यूके एफटीए: 24 जुलाई को हस्ताक्षर प्रस्तावित; IPR अध्याय अब भी गोपनीय।

IPR को लेकर चिंता: पेटेंट अवधि बढ़ाने, ‘एवरग्रीनिंग’ और ‘डेटा एक्सक्लूसिविटी’ जैसे प्रावधान दवाओं की कीमतें बढ़ा सकते हैं।

बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को फायदा: लीक मसौदे से पता चलता है कि यह समझौता दवा कंपनियों को वैश्विक मानकों (TRIPS) से अधिक सुरक्षा दे सकता है।

पहले से मिसाल मौजूद: मार्च 2024 में भारत और EFTA के बीच हुए TEPA समझौते में ऐसे कई IPR प्रावधान शामिल हो चुके हैं।

IPR अध्याय का रहस्य

इस समझौते का सबसे विवादास्पद पहलू है बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPR) से जुड़ा अध्याय। 15 मई 2024 को ब्रिटेन की सरकार ने 'UK-India Trade Deal: Conclusion Summary' शीर्षक से एक दस्तावेज़ जारी किया, जिसमें यह चेतावनी दी गई थी कि IPR अध्याय भारत के पिछले किसी भी एफटीए से कहीं आगे जाएगा।यह दस्तावेज़ यह तो नहीं बताता कि क्या प्रावधान होंगे, लेकिन 2022 में लीक हुए मसौदे के अनुसार इसमें शामिल हो सकते हैं

पेटेंट की अवधि 20 वर्षों से भी अधिक करना

पहले से ज्ञात दवाओं के “नए उपयोग” पर नया पेटेंट देना (एवरग्रीनिंग)

तीसरे पक्ष को पेटेंट आवेदन से पहले आपत्ति दर्ज करने का अधिकार न देना

डेटा एक्सक्लूसिविटी यानी दवा के परीक्षण डेटा को गोपनीय बनाए रखना

पेटेंट कार्यान्वयन पर नियमित जानकारी देने की बाध्यता को समाप्त करना

इन प्रावधानों का मतलब है कि बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां पुरानी दवाओं पर नए आविष्कार का दावा कर पेटेंट का नवीनीकरण कर सकती हैं — जिससे सस्ती जेनेरिक दवाओं की राह बंद हो जाएगी।

जनता की सेहत पर खतरा

स्वास्थ्य अधिकारों के लिए काम कर रही संस्था Médecins Sans Frontières (MSF) ने चेतावनी दी है कि इस तरह के प्रावधान भारत के जनस्वास्थ्य के लिए भारी खतरा साबित हो सकते हैं। विशेषकर डेटा एक्सक्लूसिविटी का प्रावधान — जिसके चलते नई जेनेरिक दवाओं को बाज़ार में आने के लिए या तो लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ेगा या फिर महंगे क्लिनिकल ट्रायल्स कराने होंगे।

लीना मेंघानी, सार्वजनिक स्वास्थ्य कानून विशेषज्ञ, कहती हैं डेटा एक्सक्लूसिविटी विकसित देशों की रणनीति है जिससे भारत जैसे देशों को सस्ती दवाओं की राह में बाधाएं खड़ी करनी होती हैं। भारत को हर हाल में TRIPS-प्लस जैसे प्रावधानों से बचना चाहिए।"

पूर्व मिसाल: TEPA और पेटेंट नियमों में बदलाव

भारत ने मार्च 2024 में EFTA देशों (स्विट्ज़रलैंड, नॉर्वे आदि) के साथ TEPA समझौता किया था। इसमें भी कई ऐसे प्रावधान शामिल थे। विरोध की प्रक्रिया को कमजोर करना,कार्यान्वयन रिपोर्ट की बाध्यता हटाना,जानकारियों की अनुपस्थिति पर पेटेंट रद्द न होना। इसके केवल पांच दिन बाद, 15 मार्च 2024 को भारत सरकार ने पेटेंट (संशोधन) नियम 2024 को अधिसूचित किया, जिसमें TEPA के प्रावधान शामिल कर लिए गए।

अब यही प्रावधान भारत-यूके एफटीए में भी आने की पूरी संभावना है। अगर इससे आगे की मांगें (जैसे कि डेटा एक्सक्लूसिविटी और पेटेंट की अवधि बढ़ाना) भी शामिल होती हैं, तो इसके लिए मौजूदा पेटेंट अधिनियम 1970 और औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम 1940 में बड़े बदलाव करने होंगे।

दवाओं की पहुंच पर असर

सस्ते जेनेरिक दवाओं के उदाहरण भारत की उपलब्धि रहे हैं। 2012 में भारत ने "अनिवार्य लाइसेंसिंग" का प्रयोग करते हुए Bayer की महंगी कैंसर दवा Nexavar के विकल्प Sorafenib का उत्पादन शुरू किया था।

Nexavar की कीमत: ₹2,84,000 प्रति माह

Sorafenib की कीमत: ₹8,800 प्रति माह

यह कदम हज़ारों कैंसर रोगियों के लिए जीवनदायी साबित हुआ था। लेकिन नए पेटेंट नियमों के तहत ऐसी लाइसेंसिंग अब मुश्किल होगी।

"एवरग्रीनिंग" का बोलबाला

अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 72% फार्मास्युटिकल पेटेंट ऐसे हैं जो पहले से मौजूद दवाओं में मामूली बदलाव के लिए दिए गए हैं। यह "एवरग्रीनिंग" की प्रवृत्ति दर्शाता है, जिससे दवाओं की कीमतें कम नहीं हो पातीं।

मूल्य बनाम मूल्यांकन

सितंबर 2022 में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में 2009–2018 के बीच अमेरिका में स्वीकृत 60 नई दवाओं की कीमतों और उनकी चिकित्सकीय गुणवत्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं पाया गया।

कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के एक पेपर के अनुसार एक नई दवा को बाज़ार में लाने की लागत $1 से $3 बिलियन तक होती है, लेकिन अमेरिकी दवा उद्योग का 2019 में कुल राजस्व $490 बिलियन था। इससे साफ है कि मुनाफा लागत से कई गुना अधिक है — और दवाओं की कीमत का निर्धारण बाज़ार के दबाव और पेटेंट की सुरक्षा पर आधारित है, न कि मरीजों की जरूरत पर।

भारत को सतर्क रहने की ज़रूरत

भारत को इस समझौते में TRIPS-प्लस जैसे प्रावधानों को खारिज करना चाहिए जो सस्ती दवाओं तक लोगों की पहुंच को सीमित करते हैं। स्वास्थ्य अधिकार, सस्ती दवाओं की उपलब्धता, और न्यायपूर्ण पेटेंट प्रणाली ही भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए — न कि बड़ी दवा कंपनियों के मुनाफे की सुरक्षा।

Read More
Next Story