
बढ़त या भ्रम? भारत की जीडीपी पर उठे सवाल
भारत की जीडीपी पर सवाल गहराए हैं। अरविंद सुब्रमण्यम ने दावा किया कि 2012-17 में आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए गए। असमानता और अनौपचारिक क्षेत्र सबसे बड़े शिकार बने।
भारत की आर्थिक वृद्धि पर अक्सर गर्व किया जाता है, लेकिन इसके आंकड़ों की सच्चाई लंबे समय से विवादों में रही है। जून 2019 में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने बड़ा खुलासा किया कि 2012 से 2017 के बीच भारत की जीडीपी वृद्धि दर को हर साल 2.5 से 3.7 प्रतिशत अंक तक बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया था। उन्होंने यह निष्कर्ष 17 हाई-फ्रिक्वेंसी इंडिकेटर्स (HFIs) के आधार पर निकाला था। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM) ने इस दावे को खारिज करते हुए इसे “सनसनी फैलाने की कोशिश” कहा, लेकिन वादा करने के बावजूद इसका खंडन कभी पेश नहीं किया। बाद में 2019-20 की आर्थिक समीक्षा में “क्या भारत की जीडीपी वृद्धि दर बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई है? नहीं!” शीर्षक से एक अध्याय छपा, जिसे ‘अनाम’ लेखक ने लिखा — भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के इतिहास में शायद पहली बार।
जीडीपी आंकड़ों पर सवाल
सुब्रमण्यम का कहना था कि जीडीपी का असल डेटा सार्वजनिक नहीं किया जाता, इसलिए बाहरी लोग केवल आंकड़ों की विश्वसनीयता की जांच कर सकते हैं। पीसी मोहनन, पूर्व कार्यवाहक अध्यक्ष (NSC), ने कहा कि भारत ने पहली बार 2011-12 श्रृंखला में ऐसे आंकड़े अपनाए जो सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं थे। इसी बदलाव से जीडीपी को लेकर संदेह और गहरे हो गए।
2015 में भारत ने दावा किया कि वह चीन से आगे निकलकर सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। बाद में वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ ने इसी डेटा के आधार पर भारत को 2023 में ब्रिटेन को पछाड़कर पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताया और अनुमान लगाया कि जल्द ही जापान को भी पीछे छोड़ेगा।
औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र की खाई
द फ़ेडरल ने जांच की कि क्या जीडीपी की रफ्तार वास्तव में औपचारिक क्षेत्र के संकेतकों (HFIs) से तेज़ है। तुलना में पाया गया कि वित्त वर्ष 2023 से 2026 की पहली तिमाही तक जीडीपी वृद्धि दर औपचारिक संकेतकों से 2.3 से 4.3 प्रतिशत अंक ज्यादा बताई गई।
यह चौंकाने वाला है क्योंकि भारत की आधी से अधिक जीडीपी अनौपचारिक क्षेत्र से आती है। नोटबंदी, जीएसटी और महामारी लॉकडाउन ने करोड़ों श्रमिकों को खेती और छोटे कामों की ओर धकेल दिया। नतीजा यह हुआ कि खेती में काम करने वालों की संख्या बढ़ी (2018-19 में 42.5% से बढ़कर 2023-24 में 46.1%), लेकिन आय का हिस्सा घटा (18.5% से गिरकर 14.4%)। यही वजह है कि महामारी के बाद की रिकवरी और भी ज्यादा K-शेप्ड रही — यानी औपचारिक क्षेत्र तेज़ी से बढ़ा और अनौपचारिक क्षेत्र पिछड़ गया।
19 संकेतक और असली तस्वीर
जीडीपी की तुलना जिन 19 HFIs से की गई, उनमें शामिल थे: FMCG बिक्री, बैंक ऋण, एफडीआई प्रवाह, बिजली, सीमेंट, स्टील, औद्योगिक उत्पादन, वाहन और ट्रैक्टर बिक्री, रेलवे-समुद्री माल ढुलाई, पेट्रोलियम खपत, जीएसटी संग्रह, आयात-निर्यात आदि। ये वही संकेतक हैं जिन्हें वित्त मंत्रालय और रिज़र्व बैंक अपनी रिपोर्टों में इस्तेमाल करते हैं।
विसंगतियों की जड़
सुब्रमण्यम ने 2019 में तीन मुख्य कारण बताए थे:
वॉल्यूम आधारित माप से वित्तीय खातों पर शिफ्ट
सेवाओं को मैन्युफैक्चरिंग डिफ्लेटर से घटाना-बढ़ाना
अनौपचारिक गतिविधियों को औपचारिक आंकड़ों से दिखाना
इसके साथ ही MCA-21 डेटाबेस (कंपनियों द्वारा स्वयं भरे गए आंकड़े) को आधार बनाना भी बड़ा कारण रहा। NSSO ने 2019 में पाया कि MCA डेटाबेस में 45% यूनिट्स या तो अस्तित्व में नहीं थीं या गलत दर्ज की गई थीं।
आंकड़ों में हेरफेर और विश्वास का संकट
पिछले कुछ वर्षों में बार-बार पिछले आंकड़ों में संशोधन कर जीडीपी को ऊँचा दिखाने की प्रवृत्ति ने इसकी विश्वसनीयता पर गहरी चोट की है। 2019 में 108 अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने सार्वजनिक अपील जारी की कि आंकड़ों को “दबाना बंद किया जाए” और सांख्यिकी की ईमानदारी बहाल की जाए।
उपभोग और असमानता
वित्त वर्ष 24 में उपभोग (PFCE) का हिस्सा जीडीपी का 56% था, लेकिन इसकी वृद्धि दर आधी रह गई। बाद में आंकड़ों को संशोधित कर इसे 3% से 5.6% तक बढ़ा दिया गया। इस बीच, उच्च जीडीपी वृद्धि के बावजूद 80 करोड़ से ज्यादा लोग मुफ्त राशन, 10 करोड़ परिवार नकद सहायता, 10 करोड़ परिवार सब्सिडी वाला LPG और करोड़ों लोग मनरेगा पर निर्भर हैं। “विकसित भारत” के दावे और ज़मीनी सच्चाई में यही बड़ा विरोधाभास है।
संक्षेप में, भारत की जीडीपी कहानी केवल आर्थिक उपलब्धियों की नहीं है, बल्कि आंकड़ों की जटिलता, विसंगतियों और राजनीतिक दबावों की कहानी भी है।