बिछड़े सभी बारी बारी- क्या से क्या हो गये ‘आप’!
सियासत में लोग साथ आते हैं बिछड़ते हैं इसमें कोई नई बात नहीं। लेकिन कोई राजनीतिक दल अपने आपको अलहदा बताए तो हैरानी होती है। यहां हम बात आम आदमी पार्टी की करेंगे।
Aam Aadmi Party: 21वीं सदी का दूसरा दशक यानी 2010 से लेकर 2020 का पहला पांच साल भारत की सियासत में बड़ा बदलाव लेकर आया। केंद्र की गद्दी पर कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए-2 की सरकार थी वहीं दिल्ली में शीला दीक्षित (Sheila Dixit) की अगुवाई में कांग्रेस की साबूत सरकार। साबूत शब्द इस वजह से कि किसी की बैसाखी पर शीला की सरकार नहीं थी। लेकिन शायद ही किसी को पता रहा होगा कि 2010 से जिस तरह से घोटाले सामने आने लगे उसका असर यह होगा कि किसी नई पार्टी आम आदमी पार्टी का उदय होगा और वो बहुत कम अवधि में सत्ता का स्वाद चखेगी।
2013 में दिल्ली की गद्दी पर आम आदमी पार्टी काबिज हुई मुखिया अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) बने। उनके साथ साथ कदमताल करने वालों को यकीन था कि एक नई व्यवस्था केजरीवाल देने जाने रहे हैं। लेकिन हकीकत यह कि संघर्ष के दिनों में साथ देने वाले कुछ खास चेहरे उनसे अलग हो गए। जिनमें अन्ना हजारे (Anna Hazare) प्रशांत भूषण (Prashant Bhushan), योगेंद्र यादव (Yogendra Yadav), कुमार विश्वास (Kumar Vishwas), किरण बेदी (Kiran Bedi), नवीन जयहिंद (Naveen Jaihind), प्रोफेसर आनंद कुमार (Anand Kumar) का नाम खास है। बाद के दिनों में कपिल मिश्रा, कैलाश गहलोत, राज कुमार आनंद ने भी अलग राह पकड़ ली।
केजरीवाल से अलग हुए ये चेहरे
- अन्ना हजारे
- प्रशांत भूषण
- किरण बेदी
- योगेंद्र यादव
- प्रोफेसर आनंद कुमार
- कुमार विश्वास
- कपिल मिश्रा
- कैलाश गहलोत
- नवीन जयहिंद
आखिर क्यों इतनी बढ़ी दूरी
सवाल यह है कि व्यवस्था बदलने की बात करने वाली इंडिया अगेंस्ट करप्शन (India Against Corruption) का क्या हुआ। जनलोकपाल की बात करने वाले नेता खामोश क्यों हो गए। भ्रष्टाचार के मामलों को जनता के सामने पेश करने वाले केजरीवाल के खासमखास लोगों को क्यों यह लगने लगा कि जिस शख्स के साथ वो जुड़े हुए हैं उसका मकसद कुछ और ही था। हालांकि एक धड़ा यह भी कहता है यह भी संभव है कि केजरीवाल के साथ चलने वालों का अपना एजेंडा रहा हो और जब उन्हें लगा कि केजरीवाल उनके इशारों पर नहीं चलने वाले हैं तो मौके और नजाकत की हिसाब से अपने लिए अलग रास्ता तय कर लिया। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि जिन लोगों ने केजरीवाल के साथ लंबी दूरी नहीं तय की उन लोगों की पहचान क्या थी।
2010 का वो माहौल
2010 के बाद न्यूज पेपर और टीवी स्क्रीन पर सिर्फ भ्रष्टाचार की ही खबर प्रमुखता से छपती और दिखती थी। लोगों का भरोसा कांग्रेस से तेजी से उठ रहा था और उसे धार देने का काम इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने किया। इसके बैनर तले अन्ना हजारे महाराष्ट्र से चलकर दिल्ली के जंतर मंतर पर आ बैठे। उनकी पाक साफ छवि में केजरीवाल की टीम को आगे का रास्ता नजर आया। देश में जनलोकपाल का खुमार था। लोगों को लगने लगा था कि अरविंद केजरीवाल के पास जादू की छड़ी है और यदि उन्हें मौका मिलता है तो करप्शन के कैंसर से आजादी मिल जाएगी। लेकिन अन्ना हजारे का मानना था कि पार्टी राजनीति का हिस्सा बनने का मतलब उसी रोग का शिकार आंदोलन हो जाएगा जिसके खिलाफ वो अभियान चला रहे हैं। और इस तरह से पार्टी गठन के मुद्दे पर अन्ना हजारे और केजरीवाल के नजरिए में फर्क दिखा। अंतिम नतीजा यह रहा कि अन्ना ने खुद को इस टीम से अलग कर लिया।
केजरीवाल का अहम या कार्यसंस्कृति में खराबी
अन्ना के बाद प्रशांत भूषण, किरण बेदी, योगेंद्र यादव और कुमार विश्वास को आम आदमी पार्टी की कार्यसंस्कृति में खामी नजर आई। आप की सियासत पर नजर रखने वाले कहते हैं कि केजरीवाल का अधिनायकवादी नजरिया इन लोगों को पसंद नहीं आया। कुमार विश्वास को छोड़कर इन तीनों लोगों ने खुलकर आलोचना नहीं की। लेकिन पंजाब विधानसभा चुनाव के समय कुमार विश्वास ने खुद केजरीवाल पर गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि जिस मकसद को लेकर इस पार्टी का गठन हुआ था वो अपने मकसद से फिसल चुकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि अरविंद केजरीवाल ने ऐसा क्या किया।
इस सवाल का जवाब आप ऐसे समझ सकते हैं, आम आदमी पार्टी जिसके लिए जन लोकपाल, भ्रष्टाचार अहम मुद्दा था उसे वो बिसार चुकी है। जो पार्टी रेवड़ी कल्चर के खिलाफ थी उसे रेवड़ी बांटने और ऐलान करने में संकोच नहीं है। शीला दीक्षित के खिलाफ केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ आरोप लगाते थे। लेकिन खुद वो शराब स्कैम में तिहाड़ जेल जा चुके हैं। यहीं नहीं उनके मंत्रिमंडल के सदस्य रहे सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया तक को जेल जाना पड़ा। मंत्रिमंडल से सदस्य हटाने पड़े।