मैंने सपनों के लिए नौकरी छोड़ी थी, अब पछता रहा हूं, फेलोशिप बंद का असर
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पिछले साल, अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए राष्ट्रीय फेलोशिप (एनएफओबीसी) के विद्वानों ने कहा था कि उन्हें नौ महीने से अधिक समय से वेतन नहीं मिला है। प्रतिनिधि छवि: iStock

'मैंने सपनों के लिए नौकरी छोड़ी थी, अब पछता रहा हूं', फेलोशिप बंद का असर

अलीगढ़ से लेकर दिल्ली तक, पूरे देश में सैकड़ों रिसर्च स्कॉलर आर्थिक तंगी और सरकारी उदासीनता के चलते अपनी शिक्षा और सपनों के साथ समझौता करने को मजबूर हैं।


पश्चिम बंगाल से ताल्लुक रखने वाले सानी प्रिंस का सपना अकादमिक क्षेत्र में शोध करना था। पोस्ट-ग्रेजुएशन के बाद आर्थिक विवशता ने उन्हें उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ स्थित एक निजी कॉलेज में नौकरी करने को मजबूर किया। लेकिन जब उन्हें मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप (MANF) के लिए पात्रता मिली, तो उन्होंने राहत की सांस ली।

35,000 रुपए की नौकरी छोड़ AMU (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) में एजुकेशन विभाग में पीएचडी में दाख़िला ले लिया।लेकिन आज छह महीने से फेलोशिप की राशि न मिलने के बाद, प्रिंस अपने फैसले पर पछता रहे हैं। मैं 8,000 रुपए प्रति माह किराए के मकान में रह रहा हूं, जनवरी से किराया नहीं दे पाया। मकान मालिक घर खाली करने के लिए दबाव डाल रहा है। मेरे पिता की सर्जरी टल गई है क्योंकि दिसंबर के बाद फेलोशिप की कोई राशि नहीं मिली, उन्होंने The Federal को बताया।

अल्पसंख्यक स्कॉलर्स के लिए संकट गहराता

प्रिंस अकेले नहीं हैं। देश भर के MANF, NFSC और NFOBC जैसे फेलोशिप के सैकड़ों लाभार्थी फंड में देरी, कटौती और सूची से नाम हटाए जाने की मार झेल रहे हैं। 2025 के बजट में अल्पसंख्यक और एससी/ओबीसी छात्रों की फेलोशिप योजनाओं की राशि में कटौती की गई है।

MANF- 45.08 करोड़ रुपए (2024) → 42.84 करोड़ रुपए (2025)

ST स्कॉलरशिप- 240 करोड़ रुपए → 0.02 करोड़ रुपए

NFSC (SC छात्रों के लिए) के कई पात्र छात्रों को नौ-नौ महीने तक भुगतान नहीं मिला।

NFOBC के स्कॉलरों को भी पिछले साल बड़ी देरी का सामना करना पड़ा।

फेलोशिप बंद, विकल्प नहीं

सरकार ने 2022 में MANF को यह कहकर बंद करने का निर्णय लिया कि यह अन्य योजनाओं से "ओवरलैप" कर रही है। फिर भी वादा किया गया था कि पहले से चयनित छात्र अपनी अवधि पूरी होने तक फेलोशिप पाते रहेंगे। फिर भी आज JRF और SRF को उनकी तय राशि (37,000 रुपए और 42,000 रुपए क्रमशः) नहीं मिल रही है।

JNU के अरबी-अफ्रीकी अध्ययन केंद्र के छात्र अबू सुफ़ियान कहते हैं कि हम पूरी तरह फंसे हुए महसूस कर रहे हैं। हमने MNC की जॉब ऑफर छोड़ रिसर्च चुनी थी। हॉस्टल रूम मिल गया है, लेकिन मैस और पीएचडी खर्चों के लिए पैसे नहीं हैं। कोई सुन नहीं रहा।”

लिस्ट से नाम कटे, जीवन की दिशा बदली

मेरठ के सरदार वल्लभभाई पटेल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के छात्र प्रेमनाथ एधिगल्ला कहते हैं कि NFSC की पहली सूची में 865 छात्र थे, पर 2 मई को आई दूसरी सूची में यह संख्या घटाकर 805 कर दी गई। मैंने 140 स्कोर किया जबकि कटऑफ 138 था, फिर भी नाम नहीं आया। हमने NSFDC और NTA से संपर्क किया, पर कोई समाधान नहीं।

गुजरात की पारिका राठौड़ भी इस सूची से बाहर कर दी गईं। मैंने ICHR फेलोशिप इंटरव्यू तक नहीं दिया था क्योंकि NFSC की राशि ज्यादा थी। अब मेरे पास कोई फेलोशिप नहीं है, उन्होंने कहा।तमिल साहित्य में पीएचडी का सपना देखने वाले मद्रास विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र जे संतोसशिवन ने भी फेलोशिप खोने के बाद एक अस्थायी शिक्षक की नौकरी स्वीकार कर ली। “मेरे पिता रिटायर हो चुके हैं। इस स्थिति ने मुझे मजबूर कर दिया,” उन्होंने बताया।

सरकारी चुप्पी और छात्र संगठनों का संघर्ष

JNU स्टूडेंट यूनियन, ऑल इंडिया रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन और इंडियन रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन जैसे छात्र संगठनों ने सरकार से कई बार मांग की है कि इन फेलोशिप्स की स्थिति स्पष्ट की जाए। लेकिन अब तक UGC के कार्यकारी अध्यक्ष और उच्च शिक्षा सचिव विनीत जोशी की ओर से कोई जवाब नहीं मिला है।

शोध के क्षेत्र में दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए यह समय बेहद कठिन है। सरकारी नीतियों की अस्पष्टता और उदासीनता ने न केवल उनका करियर रोका है, बल्कि उनके आत्म-सम्मान और भविष्य की संभावनाओं पर भी गहरा प्रहार किया है।

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