
सोशल मीडिया की पॉप साइकोलॉजी: जागरूकता या भ्रम का खतरनाक खेल?
सोशल मीडिया की पॉप साइकोलॉजी और ‘साइबरकॉनड्रिआ’ लोगों को मानसिक बीमारियों का वहम दे रही है, जिसका सबसे बड़ा असर बच्चों और युवाओं पर पड़ रहा है।
What is Pop Psychology: इन दिनों सोशल मीडिया और इंटरनेट पर बीमारी और डॉक्टरी की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। एक तरफ समाज छोटे-छोटे बच्चों और किशोरों द्वारा आत्महत्या अथवा खुद को शारीरिक चोट पंहुचाने का साक्षी बन रहा है तो दूसरी तरफ मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति भी इंटरनेट पर पॉप साइकोलॉजी के पैरोकारों और इन्फ्लुएंसर्स (Social Media Influencers) के बहकावे में आ रहा है। वह उनके रीलों को स्क्रॉल करते और उनके द्वारा बताए गए हर एक लक्षण को अपने व्यक्तित्व के साथ मैच करके खुद को किसी ना किसी मानसिक समस्या से ग्रस्त समझने की नादानी कर रहा है।
पॉप साइकोलॉजी के प्रभाव ने ना सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व के लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। हालत ये हो गई है कि इन्फ्लुएंसर्स के रीलों को स्क्रॉल करते करते हर एक लक्षण को खुद में देखते देखते कब व्यक्ति खुद को बीमार और किसी ना किसी मानसिक परेशानी से ग्रस्त समझने लगे पता ही नहीं चलता। ऐसा ही कुछ रोमिला (नाम बदला हुआ) के साथ हुआ। उनकी चौदह वर्षीय बेटी मानसिक स्वास्थ्य , आटिज्म , लर्निंग डिसेबिलिटी, और बॉयपोलर डिसऑर्डर से संबंधित रील्स देखते-देखते उस दुनिया में इतना खो गई कि उसे लगने लगा कि उसमें हर एक के लक्षण मौजूद हैं। वह इतनी बेचैन, चिंतित और अवसाद में रहने लगी की रोमिला को लेकर मनोचिकित्सक के पास जाना पड़ा। थोड़ी ही देर की बातचीत में पता चला की वह मानकर बैठी है की वो बॉयपोलर डिसऑर्डर से ग्रस्त है और अब उसका कुछ नहीं हो सकता।
तमाम जर्नल इस तरह के शोधों से भरे पड़े हैं जो ये साबित करते हैं कि पॉप साइकोलॉजी अपने आप में एक खतरा है। ये मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के नाम पर उन्हें मानसिक समस्याओं से ग्रस्त करता जा रहा है। सोशल मीडिया के जमाने में भ्रमित करने वाले अकाउंट की कमी नहीं है। 28 दिन में एंग्जायटी दूर करने के दावे से लेकर एडीएचडी के पांच लक्षण बताने वाले अकाउंट भरपूर संख्या में मौजूद हैं। एक तरफ क्लीनिकल साइकोलॉजी है जो लम्बे गहन शोधों पर टिकी है और इसके अंतर्गत कभी-कभी किसी समस्या को पहचानने में महीनों का समय लग सकता है, वहीं दूसरी तरफ पॉप साइकोलॉजी के पैरोकार कुछ लक्षणों और नामी गिरामी साइकोलोजिस्ट के वन लाइनर्स के भरोसे लाइक, कमेंट, और शेयर की चाहत में भ्रान्ति फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
'साइबरकॉनड्रिआ'
हालत तो ये है की शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर भी इंटरनेट पर बहुत सर्च होता है और मरीज डॉक्टर से अपनी बीमारी के लक्षण बताने के बजाय बीमारी का नाम बताते हुए दवाई की मांग करने लगे हैं। हाल के दिनों में ये एक महामारी का रूप ले चुका है जिसके लिए एक फैंसी सा नाम भी ईजाद किया गया है 'साइबरकॉनड्रिआ' (Cyberchondria)। शोधकर्ता और डॉक्टर इस शब्द का प्रयोग उन व्यक्तियों के संदर्भ में करते हैं जो बार-बार बीमारियों के लक्षण को इंटरनेट पर सर्च करते रहते हैं और दिन-प्रतिदिन चिंतित होते चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अक्सर अपना ध्यान सबसे बदतर परिणामों पर रखते हैं नतीजतन वे किसी ना किसी मानसिक समस्या जैसे अवसाद इत्यादि से ग्रस्त हो जाते हैं।
हाल के दिनों में समाचार पत्रों में 'साइबरकॉनड्रिआ' के बारे में खूब लिखा-पढ़ा गया है। तमाम ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां किसी ना किसी इन्फ्लुएंसर अथवा फर्जी ऑनलाइन डॉक्टर की गिरफ्त में आकर लोगों ने अपना कीमती समय ही नहीं गंवाया बल्कि आर्थिक नुकसान भी झेला है। इनसे सबसे अधिक खतरा अगर किसी को है तो वो है हमारा युवा वर्ग। क्योंकि इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इसी वर्ग का बोलबाला है। यह ऐसा वर्ग है जो मानसिक रूप से काफी अस्थिर, विद्रोही, और अपनी पहचान की तलाश में रहता है। ऐसे में यही वर्ग इन्फ्लुएंसर्स और पॉप साइकोलोजिस्ट के निशाने पर रहता है। इस तरह की एक रील यदि किसी ने देख ली तो अल्गोरिदम पर चलने वाली सोशल मीडिया की दूकान उसे उसी तरह के रील्स दिखाने लगती है और व्यक्ति एक अंधे कुंए में गिरता चला जाता है।
जहां तक सवाल किशोर युवकों और बच्चों का है, उन्हें इस स्थिति से बचाने के लिए कोई त्वरित उपाय नहीं है। एक समाज के रूप में एक दीर्घकालिक, सहयोगी, सामूहिक प्रयास से ही बच्चों को इनकी गिरफ्त में आने से बचाया जा सकता है। बच्चों को ही क्यों? वयस्क भी मामले की गंभीरता को समझें और लक्षणों को ऑनलाइन सर्च करने की बजाय पेशेवर के पास जाएं और परामर्श लें तो बहुत सी समस्याओं का निदान हो जाएगा। यहां ये बताना भी जरूरी है की मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बदलती सोच के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में मानसिक चिकित्सा से संबंधित स्वास्थ्य सेवाएं जरूरत के मुकाबले बहुत कम हैं।
ऐसे में जरूरत है ढांचागत बदलावों की और स्कूलों में कुछ ऐसा माहौल देने की जहां बच्चे खुद को सुरक्षित महसूस करें। जहां बगैर ये सोचे की शिक्षक, या उनके दोस्त इसके बारे में क्या सोचेंगे, वे खुलकर अपने मनोभावों को व्यक्त कर पाएं। जब आसपास के माहौल में सकारात्मकता होगी तो सोशल मीडिया के फर्जीवाड़े से बचना आसान हो जाएगा।

