नई UGC नीतियों को लेकर दक्षिणी राज्यों का विरोध, यूनिवर्सिटी की क्वालिटी गिरने की आशंका!
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नई UGC नीतियों को लेकर दक्षिणी राज्यों का विरोध, यूनिवर्सिटी की क्वालिटी गिरने की आशंका!

UGC: जबकि भारत में शिक्षा में प्राधिकरण को केंद्रीकृत करने की कोशिश गैरजरूरी है. दुनिया भर में इस मॉडल का पालन नहीं किया जाता है.


UGC new draft guidelines: भारतीय उच्च शिक्षा को सुधार की जरूरत है. हालांकि, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा हाल ही में जारी मसौदा दिशा-निर्देशों ने इस समस्या को हल करने की बजाय आपदा के द्वार खोल दिए हैं. केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हाल ही में मौजूदा यूजीसी नियमों को बदलने के लिए ड्राफ्ट विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) विनियम, 2025 के नाम से नए नियमों और दिशा-निर्देशों का एक सेट पेश किया था. इन नियमों का विरोध दो मुख्य आधारों पर किया जा रहा है– पहला, ये संघीय अधिकारों के लिए खतरा हैं और दूसरा, विश्वविद्यालय प्रणाली के सभी स्तरों पर क्वालिटी गिरने की आशंका है.

दक्षिणी राज्यों का विरोध

दक्षिणी राज्यों ने इन दिशा-निर्देशों का कड़ा विरोध किया है. विशेष रूप से उस नियम की आलोचना की गई है. जो कुलपतियों की नियुक्ति में चांसलर या विज़िटर (जो ज्यादातर राज्यपाल होते हैं) को अधिक अधिकार देता है. तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक की सरकारों ने इन नियमों का विरोध किया है. इसे "राज्य के अधिकारों पर सीधा हमला" करार दिया है.

तमिलनाडु विधानसभा ने मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा प्रस्तावित एक प्रस्ताव पारित किया. जिसमें नए नियमों के प्रति कड़ा विरोध जताया गया और कहा गया कि ये राज्य की मजबूत शिक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचाएंगे और विश्वविद्यालयों को "बर्बाद" कर देंगे. सभी राजनीतिक दलों (बीजेपी को छोड़कर) ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. स्टालिन ने गैर-बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर उनसे भी इसी तरह के प्रस्ताव पारित करने का आग्रह किया. केरल ने भी इन दिशा-निर्देशों का कड़ा विरोध जताया है और अन्य राज्यों के साथ एक सम्मेलन आयोजित करने की योजना बनाई है.

चांसलर की सर्वोच्चता

नए नियमों के अनुसार, राज्यपाल-कम-चांसलर को तीन-सदस्यीय चयन समिति नियुक्त करने की शक्ति दी गई है. जिसमें चांसलर के नामित व्यक्ति को भी समिति का अध्यक्ष बनाया जाएगा. इससे राज्य सरकार की इस चयन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं रह जाती है. पहले, चांसलर उप-कुलपति की नियुक्ति उस पैनल से करते थे. जिसे विश्वविद्यालय के अधिनियम के तहत गठित एक *खोज-सह-चयन समिति* द्वारा अनुशंसित किया जाता था. यूजीसी अध्यक्ष को केवल एक सदस्य नामांकित करने का अधिकार था.

राज्य का खर्चा, केंद्र का निर्णय

नए प्रस्तावित नियमों के तहत केंद्र को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह राज्य-नियंत्रित और राज्य-वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में अपने नामांकित उप-कुलपतियों को नियुक्त कर सके. जबकि शिक्षा पर कुल खर्च का 85% राज्यों द्वारा किया जाता है. आज के समय में, जब राज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों की तरह कार्य कर रहे हैं, तब यह खतरा बढ़ जाता है कि विश्वविद्यालयों पर केंद्र का अप्रत्यक्ष नियंत्रण हो जाएगा. विश्वविद्यालयों के सांप्रदायिकरण की आशंका भी वास्तविक है.

पात्रता मानदंड पर सवाल

मसौदा दिशा-निर्देश विश्वविद्यालयों की मूल प्रकृति और उनकी उच्च शिक्षा प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं. जो कि उच्च मानकों को स्थापित करने और बनाए रखने की दिशा में काम करते हैं. अब तक, विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर से लेकर कुलपति तक की नियुक्ति के लिए कठोर योग्यता मानदंड निर्धारित थे. हालांकि, नए प्रस्तावित दिशा-निर्देशों में चयन मानदंड को विस्तार देने के नाम पर कम कर दिया गया है.

शिक्षा मंत्री ने कहा कि लचीलापन, समावेशिता और विविध प्रतिभाओं को मान्यता देकर, हम भारत के लिए एक गतिशील शैक्षणिक भविष्य की राह बना रहे हैं. लेकिन क्या ये दावे वास्तव में उचित हैं या क्या ये विशेषज्ञता और केंद्रित ज्ञान को कमजोर कर देंगे? कुलपति के पद के लिए गहरी अकादमिक विशेषज्ञता और उच्च शिक्षा प्रणाली की व्यापक समझ आवश्यक होती है. पहले, कुलपति बनने के लिए किसी प्रतिष्ठित शिक्षाविद् को कम से कम 10 वर्षों का प्रोफेसर के रूप में अनुभव होना जरूरी था या फिर किसी शोध संस्थान या प्रशासनिक पद पर महत्वपूर्ण नेतृत्व भूमिका निभाने का अनुभव होना चाहिए था. नए दिशानिर्देशों में उद्योग, सार्वजनिक प्रशासन और सार्वजनिक नीति के अनुभव वाले लोगों को भी इस पद के लिए पात्र माना गया है, जिससे विश्वविद्यालयों की ज्ञान खोज और प्रसार करने की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं.

शिक्षा का केंद्रीकरण नहीं होना चाहिए

नए दिशा-निर्देश विश्वविद्यालयों में फैकल्टी मेंबर्स की नियुक्ति के मानदंडों में भी बदलाव कर सकते हैं. जिससे एक विषय में स्नातकोत्तर डिग्री रखने वाले व्यक्ति को किसी अन्य संबंधित विषय में सहायक प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया जा सकता है. इससे विषय की गहरी विशेषज्ञता से समझौता होने की आशंका है. किसी भी देश में शिक्षा का केंद्रीकरण स्वीकार्य नहीं है और भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में यह आत्मघाती कदम साबित हो सकता है. नई शिक्षा नीति, 2020 बार-बार वैश्विक मानकों का हवाला देती है. लेकिन सच यह है कि किसी भी शैक्षणिक रूप से उन्नत देश में शिक्षा व्यवस्था अत्यधिक विकेंद्रित होती है, जहां राज्य सरकारों के साथ-साथ स्थानीय सरकारों को भी शिक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं.

संघीय अधिकारों का हनन

यूजीसी के वर्तमान संशोधित दिशा-निर्देशों पर देशभर में चर्चा हो रही है. लेकिन यह कोई अचानक लिया गया निर्णय नहीं है. यह शिक्षा क्षेत्र में शक्ति के केंद्रीकरण की एक लंबी प्रवृत्ति का हिस्सा है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 इस गिरावट में एक महत्वपूर्ण मोड़ था. लेकिन इसकी नींव 1977 में आपातकाल के दौरान शिक्षा को राज्य सूची से हटाकर संविधान की समवर्ती सूची में डालने से ही रखी गई थी. आज यह और भी नीचे गिर रही है, जिससे शिक्षा लगभग केंद्रीय सूची का हिस्सा बनती जा रही है. आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की पूरी शिक्षा व्यवस्था को फिर से राज्य सूची में स्थानांतरित किया जाए. जैसा कि संविधान में मूल रूप से निहित था.

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