सत्ता के लिए सिर्फ नंबर जरूरी सिद्धांत नहीं, मौका मिला और उमर ने किया खेल
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सत्ता के लिए सिर्फ नंबर जरूरी सिद्धांत नहीं, मौका मिला और उमर ने किया खेल

जम्मू-कश्मीर चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। आवश्यक आंकड़ों से चार विधायक कम थे। लेकिन आजाद विधायकों ने अपना समर्थन दे दिया है।


Jammu Kashmir Election Result: आठ अक्टूबर को दो राज्यों के नतीजे सामने आए। पहला हरियाणा और दूसरा जम्मू-कश्मीर दोनों राज्यों के नतीजे एक तरह से चौंकाने वाले रहे। हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बनते बनते रह गई और बाजी बीजेपी ने मारी। वहीं जम्मू-कश्मीर में बीजेपी का प्रदर्शन उसकी अपनी जरूरत और अपेक्षा के हिसाब से नहीं था। जम्मू-कश्मीर में एनसी -कांग्रेस गठबंधन के पास सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़े आ चुके थे। नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी हालांकि उसके नंबर जादुई आंकड़े 46 से कम थे। इसका अर्थ साफ था कि उमर अब्दुल्ला को कांग्रेस के साथ गठबंधन को आगे तक ले जाने की जरूरत होती। लेकिन अब जो तस्वीर बनी है उसके हिसाब से चार निर्दलियों ने समर्थन देने का फैसला किया है। ऐसी सूरत में कांग्रेस के साथ गठबंधन में होते हुए भी उसकी निर्भरता कांग्रेस पर कम होगी। अब सवाल यह है कि उमर अब्दुल्ला जब चुनाव पूर्व कांग्रेस के हाथ का साथ लिया तो अब निर्दलियों की तरफ ताक झांक करने की जरूरत क्यों पड़ी।

दरअसल इसके पीछे आधार है। यह बात सच है कि जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद हुए चुनाव में दोनों दलों को एक दूसरे के साथ की जरूरत थी। एक तरह से कहें तो दोनों दलों को लगा कि सत्ता के लिए जरूरी ऑक्सीजन हासिल करने के लिए साथ आना चाहिए। अगर देखा जाए तो नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के बीच किसी तरह का वैचारिक मतभेद कभी नहीं रहा। लेकिन व्यवहारिक तौर पर उमर अब्दुल्ला के सामने इतिहास की कुछ कड़वी यादें है जो उन्हें याद आता होगा। उनके दादा शेख अब्दुल्ला के साथ कांग्रेस का व्यवहार कैसा रहा। य़ा उनके पिता फारुक अब्दुल्ला भी कांग्रेस की गरमी के शिकार रहे हैं। अब सियासत में दुश्वारियां अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों होती है। इस तरह की परेशानी की मियाद लंबी हो सकती है। मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने 2019 में जब अनुच्छेद 370 और 35 ए को खत्म किया तो निश्चित तौर पर जम्मू-कश्मीर में अलग तरह के हालात बने। नेशनल कांफ्रेंस को यह बात समझ में आई कि अब अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता लिहाजा कांग्रेस की तरफ से जितने भी जख्म क्यों ना मिले हों साथ आना चाहिए क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक माहौल बना हुआ है उसमें इससे बेहतर राजनीतिक समझदारी कुथ और नहीं हो सकती।

इसके साथ ही हरियाणा चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ नतीजे गए उसके बाद नेशनल कांफ्रेस के तेवर तल्ख हुए। एनसी ने भी यह कह दिया कि कांग्रेस को अति आत्मविश्वास का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए था। लेकिन बात सिर्फ इतनी भर नहीं थी। नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं का मानना है कि जमीनी स्तर पर कांग्रेस अपने वोटबैंक को पूरी तरह से ट्रांसफर करा पाने में नाकाम रही। अगर कांग्रेस के वोट ट्रांसफर हुए होते तो उनकी टैली और बेहतर होती। सियासत के जानकार कहते हैं इसकी व्याख्या दो तरह से करते हैं।

पहली बात तो ये कि नेशनल कांफ्रेंस भले ही सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन सरकार तो बैसाखी के साथ ही चलती। ऐसी सूरत में उमर सरकार को ना सिर्फ एलजी दफ्तर के दबाव का सामना करना पड़ता बल्कि कांग्रेस के दबाव का सामना करना पड़ता। उमर को यह बात पता है कि जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा इस समय क्या है। शक्तियां उपराज्यपाल के हाथ में निहीत है। लिहाजा वो सरकार चलाने के लिए राजभवन से अधिक टकराव नहीं ले सकते। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों नदी के दो किनारों की तरह हैं जिनके एक साथ आने की संभावना तभी हो सकती है जब राष्ट्रीय स्तर पर संकट उठ खड़ा हुआ। इस तरह की सूरत में उमर अब्दुल्ला और उनके रणनीतिकारों को लगा होगा कि सरकार इस तरह से चले जिसमें कांग्रेस का हस्तक्षेप ना के बराबर हो।

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