क्यों इस बार नीतीश के लिए अग्निपरीक्षा बन गया है नालंदा का गढ़?
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मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार ने नालंदा में कई विकास परियोजनाएं पूरी की हैं। फाइल फोटो में वे नालंदा जिले में नेचर सफारी का निरीक्षण करते हुए दिखाई दे रहे हैं। फोटो: X/ANI

क्यों इस बार नीतीश के लिए अग्निपरीक्षा बन गया है नालंदा का गढ़?

नीतीश कुमार खराब स्वास्थ्य और बार-बार पाला बदलने के कारण व्यापक आलोचना से जूझ रहे हैं, साथ ही, उनकी प्रतिद्वंद्वी भाकपा-माले भी कड़ी टक्कर दे रही है


लगभग एक साल पहले जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2024 के चुनावों में भाजपा से लड़ने के लिए विपक्षी दलों को लामबंद करना शुरू किया था, तब नालंदा लोकसभा क्षेत्र के लोगों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया था। उनके शिष्य और नालंदा से तीन बार सांसद रहे कौशलेन्द्र कुमार ने नीतीश कुमार के लिए अपनी सीट खाली करने की पेशकश भी की, ताकि नीतीश वहां से संसदीय चुनाव लड़ सकें और राष्ट्रीय राजनीति में आ सकें.

लेकिन इस एक साल में नालंदा लोकसभा क्षेत्र में जमीनी हकीकत में काफी बदलाव आ चूका है. बता दें कि नालंदा में लोकसभा चुनाव के सातवें और अंतिम चरण यानि 1 जून को मतदान होना है. चुनाव परिणाम 4 जून को घोषित किए जाएंगे. नीतीश कुमार की विधानसभा सीट भी है नालंदा.


गठबंधन में परिवर्तन

पिछले साल की स्थिति से अभी की बात करें तो एक बड़ा बदलाव ये है कि नीतीश ने अपनी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) का गठबंधन पुन: भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से कर लिया है. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हुए इस गठबंधन को मतदाताओं का एक वर्ग को पसंद नहीं कर रहा है.



इंडिया गठबंधन के सदस्य सीपीआई-एमएल और जेडीयू के बीच सीधा और कड़ा मुकाबला

नीतीश द्वारा मेहनत से पोषित प्रसिद्ध लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) जाति गठबंधन इस बार कई निर्वाचन क्षेत्रों में विफल होता प्रतीत हो रहा है. दरअसल इंडिया गठबंधन ने रणनीति के तहत कोइरी (कुशवाहा भी कहा जाता है) जाति के कई उम्मीदवारों को मैदान में बतौर उम्मीदवार बनाया है. यही वजह भी है कि नालंदा की लड़ाई अब न केवल नीतीश कुमार के लिए बल्कि एनडीए के लिए भी अग्निपरीक्षा बन चुकी है.

नीतीश और नालंदा

अभी तक की बात करें तो नितीश और नालंदा एक दुसरे के प्रयाय हैं. 1996 से ही नालंदा नितीश कुमार का अभेद्य किला रहा है. उन्होंने ये सीट अपने राजनितिक गुरु जॉर्ज फर्नांडीस को देने की पेशकश की थी. फर्नांडिस लगातार तीन बार 1996, 1998 और 1999 में इस सीट पर जीत दर्ज कर चुके हैं. 2004 में नीतीश ने बाढ़ के अलावा नालंदा सीट से भी चुनाव लड़ा था, उस समय उनके और जॉर्ज फर्नांडिस के बीच मतभेद हो गए थे. जॉर्ज को मुजफ्फरपुर भेज दिया गया था. नीतीश नालंदा से जीते, लेकिन बाढ़ में हार गए थे.


नितीश कुमार के लिए प्रतिष्ठा का सवाल भी है नालंदा

नालंदा नितीश कुमार के लिए सिर्फ एक संसदीय क्षेत्र या सीट नहीं बल्कि प्रतिष्ठा का भी सवाल है. यही वजह भी है कि इस सीट से चाहे नितीश कुमार उम्मीदवार हो या फिर उनकी पार्टी का कोई और प्रत्याशी, चुनाव प्रबंधन नीतीश कुमार स्वयं सँभालते हैं. करे.

जेडीयू उम्मीदवार कौशलेंद्र कुमार ने 2009 में यहाँ से आसानी से जीत हासिल की थी, लेकिन 2014 में विपक्षी वोटों के बंटवारे के कारण वे महज 9,627 वोटों से जीत पाए थे. 2019 में, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM) के कमज़ोर उम्मीदवार के कारण एक बार फिर से जेडीयू के कौशलेन्द्र कुमार जीत गए थे.

लगभग एक साल पहले जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2024 के चुनावों में भाजपा से लड़ने के लिए विपक्षी दलों को लामबंद करना शुरू किया था, तब नालंदा लोकसभा क्षेत्र के लोगों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया था।

उनके शिष्य और नालंदा से तीन बार सांसद रहे कौशलेन्द्र कुमार ने नीतीश कुमार के लिए अपनी सीट खाली करने की पेशकश की, ताकि नीतीश वहां से संसदीय चुनाव लड़ सकें और राष्ट्रीय राजनीति में आ सकें।

आज, नालंदा लोकसभा क्षेत्र में जमीनी हकीकत काफी अलग है, जहां सातवें और अंतिम चरण के तहत 1 जून को मतदान होना है। नतीजे 4 जून को घोषित किए जाएंगे।

नालंदा नीतीश कुमार की विधानसभा सीट भी है। 'प्रतिष्ठा' के कारण नीतीश कुमार स्वयं नालंदा में चुनाव प्रबंधन का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेते हैं, चाहे जदयू कोई भी उम्मीदवार खड़ा करे. जेडीयू उम्मीदवार कौशलेंद्र कुमार ने 2009 में आसानी से जीत हासिल की थी, लेकिन 2014 में विपक्षी वोटों के बंटवारे के कारण वे सिर्फ़ 9,627 वोटों से जीत पाए थे। 2019 में, विपक्षी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM) के कमज़ोर उम्मीदवार के कारण वे फिर से जीत गए.


जातिगत समीकरण

नालंदा संसदीय क्षेत्र में सात विधानसभा क्षेत्र शमिल हैं. जिसमें 22 लाख से अधिक मतदाताओं में कुर्मियों की संख्या सबसे अधिक लगभग 6 लाख से अधिक. इसके बाद यादव और अन्य जातियों का स्थान है.

कुर्मी मतदाता 28 प्रतिशत हैं, इसके बाद यादव 17 प्रतिशत और मुस्लिम 12 प्रतिशत हैं, इसके अलावा कुशवाहा 10 प्रतिशत और बड़ी संख्या में दलित और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) हैं.

2020 के विधानसभा चुनाव में, जेडीयू ने नालंदा की सात विधानसभा सीटों में से पांच पर जीत हासिल की, जबकि बीजेपी और राजद को एक-एक सीट मिली.

मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने राजमार्गों, शैक्षणिक संस्थानों, पर्यटन केंद्रों और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं सहित कई विकास परियोजनाएं पूरी की हैं, जो चुनावी तौर पर उनके लिए फायदेमंद साबित रहेंगी.

भाकपा-माले की चुनौती

व्यवसायी और सामाजिक रूप से सक्रीय बिनय कुमार ने कहा कि विकास परियोजनाओं के नालंदा सीट जेडीयू के लिए सुरक्षित सीट है. कुर्मियों का सबसे बड़ी जाति के रूप में प्रभुत्व भी इसमें सहायक ही साबित होगा. उन्होंने द फेडरल से कहा कि "इसके अलावा, नीतीश कुमार बिहार में कुर्मियों के एकमात्र बड़े नेता हैं. इसलिए, ये उनके लिए आसन होगा."

हालांकि, सीपीआई-एमएल की मौजूदगी के कारण ये सीट कमजोर जरुर हुई है. निवर्तमान जेडी(यू) सांसद कौशलेंद्र कुमार को सीपीआई-एमएल के उम्मीदवार संदीप सौरभ से कड़ी चुनौती मिल रही है, जो वर्तमान में पड़ोसी विधानसभा सीट से विधायक हैं और नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्र हैं. संदीप सौरभ जाती से यादव हैं और सीपीआई-एमएल के कैडर वोटों के अलावा उन्हें अपनी जाति के लोगों का भी अच्छा समर्थन प्राप्त है.

नालंदा निर्वाचन क्षेत्र 1980 के दशक में वामपंथियों का गढ़ था. सीपीआई के विजय कुमार यादव ने 1980, 1984 और 1991 में जीत हासिल की. अगर सीपीआई-एमएल अपने कैडर बेस के अलावा कुर्मी विरोधी और एनडीए विरोधी वोटों को जुटाने में सफल हो जाती है, तो जेडीयू के लिए ये सीट बचा पाना मुश्किल हो सकता है.

वाम मोर्चा सत्ता-विरोधी वोटों पर बढ़त हासिल करने की उम्मीद कर रहा है.


कुर्मी बनाम यादव

नालंदा की लड़ाई को और भी कठिन बनाने वाली बात है कुर्मी और यादवों के बीच की प्रतिद्वंद्विता. जब से आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने हैं, तब से दोनों जातियों के बीच सत्ता के लिए जंग छिड़ी हुई है.

नीतीश कुमार के नेतृत्व में कुर्मी और अन्य ईबीसी सबसे पहले यादवों के वर्चस्व से नाराज़ थे. सत्ता के केंद्र में बदलाव से वे नाराज़ थे, क्योंकि कथित तौर पर उन्हें प्रशासनिक स्तर पर ठेकों और अन्य लाभों से वंचित कर दिया गया था.

वास्तव में, इस प्रतिद्वंद्विता का इतिहास स्वतंत्रता-पूर्व के दिनों से ही जुड़ा हुआ है, जब कुर्मी, कोइरी और यादव सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए लड़ते थे.

हालाँकि, शिवपूजन सिंह, चौधरी यदुनंदन प्रसाद मेहता और सरदार जगदेव सिंह यादव – जो क्रमशः कुर्मी, कोइरी और यादव थे – ने 1933 में त्रिवेणी संघ (तीन जातियों का संघ) का गठन किया था. त्रिवेणी संघ उच्च जातियों के खिलाफ एक दुर्जेय शक्ति बन गया.

लंबे समय से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता

नक्सलवादी आंदोलन के दौरान कुछ उथल-पुथल को छोड़कर उनकी एकता तब तक कायम रही जब तक नीतीश ने 1994 में लालू प्रसाद से अलग होकर समता पार्टी नहीं बना ली. उनका झगड़ा प्रशासन और विधायिका दोनों में यादवों के प्रभुत्व को लेकर था.

इसके बाद, नीतीश और लालू ने 2014 और 2017 में दो बार हाथ मिलाया, लेकिन जातियों के बीच प्रतिद्वंद्विता बदस्तूर जारी रही.

इस्लामपुर के अजय पटेल ने कहा कि "कुर्मी किसी भी यादव उम्मीदवार को वोट नहीं देते हैं. इसी तरह, यादव भी किसी भी कुर्मी उम्मीदवार को वोट नहीं देते हैं."

बिहार में लोकसभा चुनाव के पहले पांच चरणों में जातिगत कारक मतदाताओं के बीच मुख्य मुद्दा बन जाने की खबरों के बीच, एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों ही अपने पारंपरिक वोट बैंक को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

ईबीसी वोट बैंक की खिसकने की आशंका

नीतीश ने ईबीसी और महादलितों (एससी में सबसे पिछड़े लोगों का समूह) के बीच अपना आधार बनाया है. इस वोट बैंक को काटने के लिए, इंडिया ब्लॉक ने ईबीसी पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसमें कहार या चंद्रवंशी (पालकी उठाने वाले) और मल्लाह (मछुआरे समुदाय) शामिल हैं, जो नालंदा में काफी संख्या में हैं.

मल्लाह वोटों पर नजर रखते हुए उसने विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के नेता मुकेश सहनी को पहले ही अपने साथ जोड़ लिया है.

वैसे तो नालंदा के कुर्मी पूरी तरह से नीतीश के साथ हैं, लेकिन मुंगेर लोकसभा सीट से आरजेडी उम्मीदवार अनीता कुमारी के साथ मतदान के दौरान कथित तौर पर किए गए बुरे बर्ताव का असर नालंदा में भी पड़ना तय है. अनीता कुर्मी गैंगस्टर अशोक महतो की पत्नी हैं, जिन्हें अपने समुदाय का समर्थन हासिल है.



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