झारखंड में 24 साल में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं, विडंबना या मायूसी
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झारखंड में 24 साल में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं, विडंबना या मायूसी

झारखंड की सियासत में अजीब सा पक्ष यह है कि पिछले 24 साल में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। यानी कि सरकार चलाने के लिए मदद की जरूरत पड़ी।


Jharkhand Assembly History: नवंबर के महीने में दो राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं जिनमें से एक झारखंड है। 13 और 20 नवबंक होने वाले मतदान में यहां के वोटर्स अपनी नई सरकार बनाएंगे। इस दफा के चुनाव में एनडीए गठबंधन के सामने इंडिया गठबंधन है। दोनों गठबंधन बहुमत के साथ जीत दर्ज करने के लिए आश्वस्त है। अब सवाल ये है कि क्या राज्य गठन के बाद किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। हम इसी सवाल का जवाब ना सिर्फ ढूंढने की कोशिश करेंगे बल्कि उसे बताएंगे भी।

24 साल पहले उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ की तरह यह राज्य अस्तित्व में आया। लंबे आंदोलन के बाद इसे बिहार राज्य से अलग कर दिया। पिछले 24 सालों के इतिहास को देखें तो इस राज्य को जितनी तरक्की करनी चाहिए थी उतनी नहीं हुई। किसी राज्य के विकास के लिए धन संपदा, खनिज संपदा की जरूरत होती है और इन दोनों की कमी इस राज्य को नहीं है। लेकिन सियासत की चक्की में जनता पिसती नजर आती है। इन 24 साल में कुल 13 सरकार बनी।

24 साल में कुल सात लोगों ने झारखंड की सत्ता संभाली है।

  • बाबू लाल मरांडी ने 2000 में कमान संभाली और तीन साल तक सरकार में रहे
  • अर्जुन मुंडा 2003-05, 2005-06, 2010-13 में सीएम रहे
  • शिबू सोरेन मार्च 2005 से सिर्फ 9 दिन, 2008-09, 2009-10
  • मधु कोड़ा 2006 से 2008
  • हेमंत सोरेन 2013-2014, 2019 से 2024 और फिर जुलाई 2024 से अब तक
  • रघुबर दास 2014 से 2019

पहली सरकार 2000 में बनी

15 नवंबर 2000 को बीजेपी के बाबूलाल मरांडी ने राज्य के पहले मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल ढाई साल तक चला। मरांडी की जगह उनके मंत्रिमंडल में भाजपा के एक मंत्री अर्जुन मुंडा ने कमान संभाली और वो झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बने। मुंडा, पहली विधानसभा के कार्यकाल के अंत तक मुख्यमंत्री बने रहे। अर्जुन मुंडा तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं हालांकि वो कभी पूर्ण कार्यकाल के सिए सीएम नहीं रहे।

झारखंड राज्य को पहला सीएम साल 2000 में मिला। लेकिन विधानसभा का चुनाव 2005 में पहली बार हुआ। दरअसल बिहार से विभाजन के बाद 81 सीटें झारखंड को मिले थे और उस समय संख्या बल में बीजेपी आगे थी और सरकार बनाने में कामयाब हुई थी। 2005 में जब पहली बार चुनाव हुआ तो बीजेपी बड़े गठबंधन के तौर पर उभरी लेकिन 41 सीटों के जादुई आंकड़ों से पिछड़ गई थी। करीब 24 फीसद मत के साथ बीजेपी के खाते में 30 सीट आई थी। झारखंड मुक्ति मोर्चा 17 सीट के साथ दूसरे नंबर पर थी। कांग्रेस के खाते में 9 सीट गई थी। इसी तरह राजद को सात, जेडीयू को 6 और आजसू को 2 सीट मिली थी। यानी कि सरकार बनाने के लिए अपने दम पर आंकड़ा किसी के पास नहीं था। लिहाजा तोड़फोड़ मोलभाव की कवायद शुरू हुई जिसमें बीजेपी को कामयाबी मिली।

झारखंड में इस तरह से किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने का सिलसिला चल पड़ा। अब सवाल यह है कि भारत में ऐसे कई राज्य हैं जहां सीटों की संख्या कम होने के बावजूद राजनीतिक दल पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाते हैं, मसलन दिल्ली, उत्तराखंज और छत्तीसगढ़ उसके जीते जागते उदाहरण हैं। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ तो झारखंड के साथ ही अस्तित्व में आए थे। इस विषय पर जानकार कहते हैं कि दरअसल राजनीतिक दलों के परफार्मेंस से झारखंड की जनता खुश नहीं है। उनका सपना था कि राज्य छोटा होगा, खनिज संपदा की कमी नहीं है और वो तरक्की करेंगे। लेकिन नेताओं की झोली भरती गई और आम जन गरीब होते गए। अब लोकतंत्र में चुनावी अधिकार का इस्तेमाल करना है उसमें पीछे नहीं रहते। लेकिन प्रयोग की कवायद में जनता किसी एक दल को स्पष्ट जनादेश नहीं दे पाती है।

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