चाह नहीं सिर्फ हाल-चाल लें वही काफी, महाराजगंज में किस चौधरी में है दम ?
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'चाह नहीं सिर्फ हाल-चाल लें वही काफी', महाराजगंज में किस चौधरी में है दम ?

महाराजगंज लोकसभा पूर्वी यूपी में है, परंपरागत तौर पर इस सीट की पहचान बीजेपी से होती है. हालांकि इस बार तस्वीर थोड़ी सी अलग है.


पूर्वी यूपी में महाराजगंज जिले को चीनी का कटोरा भी जाता है. यह जिला गोरखपुर से लेकर नेपाल के बॉर्डर तक फैला हुआ है. 2024 के चुनाव में किसका मुंह मीठा और किसका कड़वा उसका फैसला तो 4 जून को होगा. लेकिन सभी सियासी दल चीनी की चाशनी की तरह मीठे मीठे बोल के जरिए वोटर्स को लुभा रहे हैं. पूर्वांचल के दूसरे जिलों को छोड़ दें तो यहां पर उम्मीदवार सोशल मीडिया से कहीं अधिक सड़क पर सक्रिय नजर आ रहे हैं. सड़क का अर्थ गाड़ियों के काफिले, डंडे- झंडे, भोपुओं के शोर से है. अगर इस इलाके की बात करें तो सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन नजर आता है. हालांकि आज के युवा के हाथों में मोबाइल है और वो रील के जरिए दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी बात पहुंचा रहे हैं.

महाराजगंज में त्रिकोणीय लड़ाई

महाराजगंज सीट से बीजेपी ने पंकज चौधरी को एक बार चुनावी मैदान में उतारा है. उन्हें अपने व्यक्तिगत संबंधों के साथ साथ मोदी और योगी के नाम पर उम्मीद है. समाजवादी पार्टी की तरफ से वीरेंद्र चौधरी को अपनी बिरादरी के अलावा मुस्लिम और गैर चौधरी वोटों पर भरोसा है. वहीं बीएसपी के मौसमे आलम को पार्टी के कैडर और मजबूत वोटबैंक पर उम्मीद करने की वजह है.पंकज चौधरी के राजनीतिक सफर का आगाज गोरखपुर नगर निगम से हुआ. 1991 में महाराजगंज से सांसद बने और 6 बार वो उस इलाके का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं हालांकि दो बार हार का सामना भी करना पड़ा था.

वीरेंद्र चौधरी

फरेंदा विधानसभा से कांग्रेस के विधायक हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार को महज एक हजार वोटों से हराया था.

मौसमे आलम

यह कारोबारी हैं, 2022 में पनियरा से निर्दलीय पर्चा भरा था. लेकिन खारिज हो गया. 2024 के चुनाव में बीएसपी के टिकट पर चुनावी मैदान में हैं.

क्या कहते हैं स्थानीय लोग
पनियरा के आशुतोष भट्ट कहते हैं कि यहां के लोगों को अपेक्षाएं बहुत अधिक नहीं है. वो चाहते हैं कि उनका प्रतिनिधि इमोशनली उनसे जुड़े यानी सुख दुख में हाल चाल लें. वो कहते हैं कि आप पंकज चौधरी की उदाहरण लीजिए वो 1991, 96, 98 में चुनाव जीत सके. लेकिन 1999 में हार गए. लेकिन जनता के बीच सक्रिय हुए तो 2004 में इलेक्शन जीते. हालांकि 2009 का चुनाव फिर हार गए.

आनंदनगर के रहने वाले अंकुश खरे बताते हैं कि जैसे लगता है कि यहां के कस्बे अभी भी अंगड़ाई ले रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र अब बुजुर्ग हो चला है. इसका अर्थ परिपक्व हो चला है लेकिन यहां के लोगों को सही मायनों में विकास का इंतजार है. आज भी अधिकतर आबादी खेती पर निर्भर है और उससे आप समझ सकते हैं कि यहां सामंती सोच किस कदर हावी है. हालांकि अब छोटे छोटे समूह में यहां के युवा नौकरी की तलाश में बड़े बड़े महानगरों की तरफ रुख कर रहे हैं उसका फायदा कहीं कहीं नजर भी आता है. पहले पिछड़ी जातियों के युवा अपनी बात नहीं रख पाते थे. लेकिन अब वो समाज भी अपनी बात दबी जुबान ही सही कह पाता है. अब मौका चुनाव है तो उस पर अंकुश कहते हैं कि यहां तो चौधरी जी ने चौधरी जी के चुनाव को फंसा दिया है. मतलब की 6 बार से इस सीट की अगुवाई कर रहे पंकज चौधरी की राह पथरीली है. इन सबके बीच महाराजगंज की पांचों विधानसभाओं में बीजेपी के प्रति खास खटास नहीं नजर आया.

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