नीतीश कुमार किंग और किंगमेकर दोनों, कैसे हमेशा सत्ता के केंद्र में बने रहते हैं
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नीतीश कुमार किंग और किंगमेकर दोनों, कैसे हमेशा सत्ता के केंद्र में बने रहते हैं

नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि वो राजनीति की सधी चाल चलते हैं. आम चुनाव 2024 के जो रुझान सामने आए हैं उसे देखते हुए उनकी जरूरत बढ़ गई है.


Nitish Kumar News: बिहार की सियासत में नीतीश कुमार वो नाम जिनके बारे में कहा जाता है कि वो कब कौन सा फैसला लेंगे उसके बारे में बता पाना आसान नहीं है. लेकिन उनके हर एक सियासी फैसले में फायदा ही सर्वोच्च रहा. लिहाजा उन्हें चिपकु कुमार, पल्टू राम जैसे विशेषण भी मिले.अब वो सत्ता के केंद्र में कैसे बने रहते हैं, कम सीटों की बावजूद किंग और किंगमेकर दोनों बनते हैं. इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमे 1988 से 2004 के कालखंड को देखना होगा. 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार देश के पीएम बने तो उस वक्त उनके पास सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत नहीं था.लिहाजा ऐसे दलों के समर्थन की जरूरत पड़ी जो सरकार बनाने में मदद कर सकते थे. उस दौर में नीतीश कुमार की ताकत उतनी नहीं थी.लेकिन इतनी ताकत तो थी कि वो सरकार बनाने में मदद कर सकें. देश की राजनीतिक व्यवस्था उनकी राजनीति के लिए मुफीद थी और उसका फायदा वो उठाते रहे.

नीतीश कुमार, किंग और किंगमेकर दोनों

इसके अलावा अगर आप बिहार की राजनीति देखें तो वहां सामाजिक समीकरण कुछ इस तरह के थे उसमें नीतीश कुमार की स्वीकार्यता थी. खासतौर से वो लवकुश समीकरण के जरिए बिहार की सत्ता पर काबिज हुए. हालांकि सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने बीजेपी का समर्थन लिया. सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने हर वो एक प्रयोग किया जिसके बारे में कहा जाता है कि कोई सत्तालोलूप इतना कैसे हो सकता है. बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले कहते हैं कि राज्य में लालू यादव या रामविलास पासवान के साथ जाने का मतलब यह था कि वो खुद की संभावनाओं पर ब्रेक लगाते लिहाजा उन्हें बीजेपी में खुद के लिए संभावना नजर आई.

मौका देख बदलते रहे पाला

नीतीश कुमार, बीजेपी की मदद से बिहार की सरकार चलाते रहे. लेकिन 2010-15 के दौरान उन्होंने अनूठा प्रयोग कर डाला. अपनी जगह जीतन राम मांझी को मौका दिया.ये बात अलग है कि कुछ महीनों के बाद ही उन्हें समझ में आने लगा था कि मांझी को गद्दी पर बैठाकर गलती की. हालांकि इस बीच बिहार के राजनीतिक समीकरण में बदलाव हुए और जिस लालू यादव के राज को वो जंगलराज बताया करते थे उस आरजेडी के लालटेन की रोशनी में खुद के लिए रास्ता तलाशा. बिहार के 2015 विधानसभा चुनाव में कामयाबी मिली थी.लेकिन जिस तरह बेमेल विचार की उम्र कम होती है,ठीक वैसे ही लालू-नीतीश का रिश्ता नहीं टिका और एक बार फिर वो बीजेपी के साथ चले गए.

नीतीश के पास सत्ता की कुंजी

2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी बनी और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार भी बनाई. लेकिन बीजेपी से मोह खत्म हुआ और फिर एक बार आरजेडी का हिस्सा बने. लेकिन उन्हें जब महसूस हुआ कि लालू कुनबे के साथ जाकर उन्होंने गलती की है तो पाला फिर बदला और एक बार फिर भगवा दल के साथ हो चले. और अब जाकर एक बार सत्ता की कुंजी उनके हाथ में आती हुई नजर आ रही है क्योंकि बीजेपी अपने बलबूते जादुई आंकड़े 272 से दूर है.

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