मतों से भरी झोली फिर भी सीट मिले कम, आखिर क्या है वजह
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मतों से भरी झोली फिर भी सीट मिले कम, आखिर क्या है वजह

आपने देखा होगा कि किसी राजनीतिक दल के पास वोट शेयर तो अधिक है लेकिन सीटों की संख्या में वो पीछे रह गया. यहां इसी गणित को समझाने की कोशिश करेंगे.


Loksabha Election Voting Percent Trends: आम चुनाव 2024 के चार चरण समाप्त हो चुके हैं और पांचवें चरण के लिए मतदान हो रहा है. अगर चारों चरणों की बात करें तो एक 2019 की तुलना में मतदान का प्रतिशत कम रहा है. सियासी विश्लेषण अपने अपने तरीके से गणना भी कर रहे हैं कि क्या वजह हो सकती है. लेकिन यहां पर हम कुछ अलग जानकारी देंगे. आपने चुनावों में देखा होगा कि किसी पार्टी का मत प्रतिशत तो ठीक था लेकिन उसके मुताबिक सीटें नहीं मिलीं. हम यहां आपको सामान्य शब्दों में बताएंगे कि क्या वजह हो सकती है. इसके लिए पहले आपक फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम को समझना होगा.

फर्स्ट पास्ट पोस्ट सिस्टम को पहले समझें

फर्स्ट पास्ट पोस्ट सिस्टम को आप यूं समझें. मान लीजिए किसी रेस में चार लोग हिस्सा ले रहे हैं, उन चार में से पहला जो फिनिशिंग लाइन को टच कर जाता है वो विजेता माना जाता है. वैसे ही कोई भी उम्मीदवार जो सर्वाधिक मत पाता है उसे विजयी माना जाता है भले ही उसे भी कम मत ही मिले हों. यह तो रही उम्मीदवार की बात. अब बात राजनीतिक दलों की. मान लीजिए कि किसी चुनावी लड़ाई में दो ही दल हों को मतों बंटवारा उनमें होगा, मत प्रतिशत का अंतर अधिक या कम हो सकता है, फर्ज करिए कि किसी राज्य में 15 सीटें हैं और कोई भी दल कुछ सीटों पर अधिक मत हासिल करता है, कुछ सीटों पर बेहद कम वोट पाता है तो जाहिर सी बात है कि औसत वोट अधिक होते हुए भी उसकी सीट संख्या कम हो जाएगी.यहां पर हम अलग अलग राजनीतिक दलों के वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या पर चर्चा करेंगे.

बीजेपी

1951 से 1971(इस कालखंड में जनसंघ) और 1984 में बीजेपी के पहले चुनाव तक मत प्रतिशत और सीटों की संख्या में सामांजस्य नहीं था. मसलन बीजेपी वोट प्रतिशत को सीटों में बदलने में कामयाब नहीं हुई. सीट शेयर की तुलना में वोट शेयर अधिक था. अगर बात 1984 की करें तो बीजेपी को कुल 7.4 प्रतिशत मत मिले. लेकिन सीटों में कंवर्जन महज .4 फीसद था. लेकिन जब वोट प्रतिशत 11 फीसद के करीब पहुंचा उसका असर सीटों की संख्या पर नजर आने लगा. 1989 के बाद से बीजेपी का सीट शेयर वोट शेयर से अधिक रहा. 1984 से लेकर 2014 तक 1998-99 में वोट प्रतिशत 24 से 26 फीसद था जबकि सीट शेयर 34 फीसद के करीब. लेकिन पार्टी के प्रदर्शन में बड़ा बदलाव 2014 में नजर आया जब बीजेपी ने 31 फीसद मत हासिल किए और सीट शेयर में 30 फीसद से अधिक का इजाफा हुआ. 2009 में सीट शेयर जो 21 फीसद के करीब था अब वो बढ़कर 51 फीसद के करीब हो गया.

कांग्रेस

2009 में कांग्रेस को करीब 28 फीसद मत मिले. लेकिन सीट संख्या 37 फीसद के करीब रही. यानी कि कम वोट प्रतिशत के बाद भी ज्यादा सीटें मिलीं. 2014 के चुनाव में मत प्रतिशत में 9 फीसद की कमी आई और सीट शेयर में करीब 30 फीसद की गिरावट दर्ज की गई. 2014 और 2019 में कांग्रेस को 20 फीसद मत मिले जो उसके न्यूनतम वोट शेयर से कम था सीटों में 10 फीसद की कमी आई. यानी कि सिर्फ सीटों की संख्या के आधार पर ही किसी राजनीतिक दल की कमजोरी या ताकत को नहीं समझ सकते.

लेफ्ट पार्टी

अगर वाम दलों की बात करें तो 2004 और 2009 के चुनाव में वोट प्रतिशत में .4 फीसद की बढ़ोतरी हुई जबकि सीटों की संख्या में 3.1 फीसद की बढ़ोतरी. इससे पता चलता है कि सीट में कंवर्जन के लिए वाम दलों को न्यूनतम 7 से 8 फीसद मतों की जरूरत होती है. 2014 -19 के चुनाव में मत प्रतिशत में .6 फीसद की गिरावट दर्ज हुई और सीटों की संख्या में 6.4 फीसद की कमी आई.

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