
50 करोड़ की फीस और 2.5 करोड़ की परफॉर्मेंस कौन है असली हीरो?
लोग सवाल पूछने लगे, क्या कम पैसे लेने वाला एक्टर कम काबिल होता है? या ज्यादा फीस लेने वाला अपने नाम और ब्रांड की कीमत वसूल करता है?
मुंबई की चमकती रात, रेड कार्पेट, कैमरों की फ्लैश लाइट और चारों तरफ एक ही चर्चा नई फिल्म. फिल्म हिट रही, कहानी मजबूत थी और अभिनय ने दर्शकों को बांध लिया, लेकिन फिल्म के रिलीज के कुछ दिनों बाद सोशल मीडिया पर एक बहस तेज हो गई. बहस ये नहीं थी कि फिल्म कितनी कमाई करेगी, बल्कि ये थी कि अक्षय खन्ना ने सिर्फ 2.5 करोड़ में दमदार परफॉर्मेंस दी, जबकि रणवीर सिंह ने 50 करोड़ चार्ज किए. लोग सवाल पूछने लगे, क्या कम पैसे लेने वाला एक्टर कम काबिल होता है? या ज्यादा फीस लेने वाला अपने नाम और ब्रांड की कीमत वसूल करता है? यहीं से ये कहानी सिर्फ बॉलीवुड की नहीं रही, बल्कि हर उस ऑफिस की बन गई, जहां सालों से काम कर रहा एक पुराना कर्मचारी और नई जॉइनिंग वाला फ्रेश टैलेंट आमने-सामने होता है.
अक्षय खन्ना जैसे कलाकार फिल्म इंडस्ट्री के ओल्ड एम्प्लॉई होते हैं. शोर-शराबे से दूर, बिना ज्यादा PR, बिना बड़े दावे—बस काम. ऑफिस की भाषा में कहें तो वो इंसान जिसे सब कुछ याद है. कौन सा सिस्टम कब क्रैश हुआ था, किस क्लाइंट ने किस गलती पर प्रोजेक्ट कैंसिल किया था और कौन सा फैसला कंपनी को डूबने से बचा गया था. ऐसे कर्मचारी ज्यादा सवाल नहीं करते, ज्यादा शोर नहीं मचाते, लेकिन जब प्रोजेक्ट फंसता है, जब डेडलाइन सिर पर होती है, तभी सबकी नजर उसी पुराने कर्मचारी पर जाती है. वो कम पैकेज पर काम करता है, लेकिन उसके पास अनुभव, जिम्मेदारी और भरोसे की पूंजी होती है.
अब आते हैं रणवीर सिंह जैसे सितारे पर. ऊर्जा से भरे, ट्रेंड में, सोशल मीडिया पर छाए हुए. ब्रांड्स के फेवरेट, ऑडियंस के चहेते. कॉरपोरेट में यही होता है नया जॉइनर. जो बड़ी डिग्री, शानदार रिज़्यूमे और मोटा पैकेज लेकर आता है. उसकी एंट्री पर मेल जाता है. सब उससे उम्मीद करते हैं कि वो कंपनी को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा. उसके पास ताजगी है, आत्मविश्वास है और मार्केट वैल्यू है. लेकिन उसके साथ एक सवाल भी चलता है. क्या वो दबाव में टिक पाएगा? क्या वो जिम्मेदारी निभा पाएगा, या सिर्फ प्रेजेंटेशन तक सीमित रहेगा?
असली फर्क कहां है?
फिल्म में अक्षय खन्ना का किरदार शायद स्क्रीन टाइम में छोटा था, लेकिन हर सीन में गहराई थी. वहीं रणवीर सिंह फिल्म का चेहरा थे, भीड़ खींचने वाले नाम. कॉरपोरेट में भी यही सच है. पुराना कर्मचारी कंपनी को चलाता है,नया कर्मचारी कंपनी को दिखाता है. एक नींव है, दूसरा बात दोनों जरूरी हैं. समस्या कहां पैदा होती है? समस्या तब होती है जब अनुभव को कम करके देखा जाता है और सिर्फ पैकेज को काबिलियत का पैमाना बना लिया जाता है. जब पुराने कर्मचारी को कहा जाता है. आप तो सालों से यही हैं, इतना ही मिलेगा और नए जॉइनर से उम्मीद की जाती है. आपको इतना दे रहे हैं, कुछ बड़ा करके दिखाइए. यहीं असंतुलन पैदा होता है.
अक्षय खन्ना की 2.5 करोड़ की परफॉर्मेंस हमें सिखाती है कि काम की कीमत हमेशा पैकेज से तय नहीं होती और रणवीर सिंह की ₹50 करोड़ की फीस यह बताती है कि मार्केट वैल्यू और ब्रांडिंग भी एक स्किल है. कॉरपोरेट हो या बॉलीवुड अनुभव और ऊर्जा, स्थिरता और चमक, पुराना कर्मचारी और नया जॉइनर और दोनों के बिना सिस्टम अधूरा है. नींव मजबूत हो, तभी इमारत ऊंची बनती है और इमारत दिखे, तभी नींव की अहमियत समझ आती है. यही फर्क है 2.5 करोड़ की सच्ची परफॉर्मेंस और 50 करोड़ के बड़े पैकेज के बीच.

