कोशिश से लेकर इकबाल और बर्फी तक: बॉलीवुड फिल्मों में सांकेतिक भाषा की ताकत
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कोशिश से लेकर इकबाल और बर्फी तक: बॉलीवुड फिल्मों में सांकेतिक भाषा की ताकत

हिंदी फिल्मों में सांकेतिक भाषा का महत्व खास रहा है. 'कोशिश' से 'बर्फी' और 'इकबाल' तक, जानिए इन फिल्मों ने कैसे दिल छुआ.


भाषा सिर्फ बोलने और सुनने तक सीमित नहीं है. कई बार संकेत ही सबसे बड़ी भाषा बन जाते हैं. खासकर उन लोगों के लिए, जो सुनने या बोलने में सक्षम नहीं होते. यही वजह है कि सांकेतिक भाषा न केवल उनकी जिंदगी आसान बनाती है, बल्कि उनके भावनाओं को दुनिया के सामने भी लाती है. सिनेमा समाज का आईना होता है और हिंदी फिल्मों ने समय-समय पर इस संवेदनशील मुद्दे को पर्दे पर उतारा है. कई फिल्मों में मूक-बधिर किरदारों के संघर्ष और भावनाओं को सांकेतिक भाषा के जरिए दिखाया गया. आइए जानते हैं उन फिल्मों के बारे में, जिन्होंने इस विषय को खूबसूरती से पेश किया.

कोशिश (1972)

गुलजार साहब के निर्देशन में बनी कोशिश हिंदी सिनेमा की एक ऐतिहासिक फिल्म मानी जाती है. इसमें संजीव कुमार और जया भादुरी ने मूक-बधिर जोड़े की भूमिका निभाई थी. फिल्म में दिखाया गया कि कैसे वे संकेतों के जरिए अपनी बात रखते हैं और जीवन की चुनौतियों का सामना करते हैं. ये फिल्म उस दौर में एक साहसी कदम थी, जब ऐसे विषयों पर बहुत कम फिल्में बनती थीं. कोशिश ने दर्शकों को सिखाया कि संवाद सिर्फ शब्दों से नहीं, बल्कि दिल से भी हो सकता है.

खामोशी – द म्यूजिकल (1996)

निर्देशक संजय लीला भंसाली की पहली फिल्म खामोशी द म्यूजिकल भी सांकेतिक भाषा के महत्व को सामने लाती है. फिल्म की कहानी एक बधिर दंपत्ति जोसेफ (नाना पाटेकर) और फ्लेवी (सीमा बिस्वास) पर आधारित है. उनकी बेटी एनी (मनीषा कोइराला) सामान्य है और वही उनके लिए बाहरी दुनिया से जुड़ने का माध्यम बनती है. इस फिल्म में न केवल संगीत, बल्कि संकेतों की ताकत भी दर्शकों को गहराई से छूती है.

इकबाल (2005)

नागेश कुकनूर की फिल्म इकबाल प्रेरणा देने वाली फिल्मों में गिनी जाती है. ये कहानी है एक ऐसे लड़के की, जो मूक-बधिर है लेकिन क्रिकेटर बनने का सपना देखता है. श्रेयस तलपड़े ने इकबाल का दमदार किरदार निभाया. फिल्म दिखाती है कि जुनून और मेहनत किसी भी कमी को पीछे छोड़ सकते हैं. इकबाल के संवाद सांकेतिक भाषा में होते हैं, लेकिन उसका हौसला हर दर्शक के दिल में गूंजता है. इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.

बर्फी (2012)

बर्फी रोमांस और इमोशन्स से भरी एक खूबसूरत फिल्म है. रणबीर कपूर ने इसमें बर्फी नाम के मूक और बधिर लड़के की भूमिका निभाई. वहीं प्रियंका चोपड़ा ने मानसिक रूप से अलग किरदार निभाकर फिल्म में चार चांद लगा दिए. फिल्म की खासियत ये है कि बर्फी और श्रुति (इलियाना डिक्रूज) के बीच का प्यार शब्दों से नहीं, बल्कि संकेतों से पनपता है. इसने दर्शकों को यह एहसास कराया कि प्यार और रिश्ते के लिए भाषा की नहीं, भावनाओं की जरूरत होती है.

हिंदी सिनेमा ने कई बार यह साबित किया है कि सांकेतिक भाषा केवल संचार का जरिया नहीं, बल्कि भावनाओं का गहरा पुल है. कोशिश से लेकर बर्फी और इकबाल जैसी फिल्मों ने हमें सिखाया कि जिंदगी में शब्द जरूरी नहीं, इरादे और जज्बात ही सबसे बड़ी ताकत हैं. इन फिल्मों ने मूक-बधिर समुदाय की आवाज़ बनकर समाज को संवेदनशीलता और इंसानियत का असली मतलब समझाया.

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