लगान से सितारे तक, खेल फिल्मों की बदलती पटकथा
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लगान' से 'सितारे' तक, खेल फिल्मों की बदलती पटकथा

लगान से लेकर सितारे ज़मीन पर तक, बॉलीवुड की खेल फिल्में अब सिर्फ जीत की नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों, समानता और बदलाव की कहानी कहती हैं।


जब आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'लगान' (2001) की घोषणा हुई, तो चार घंटे लंबी यह पीरियड फिल्म जो ब्रिटिश राज में क्रिकेट पर आधारित थी, उस समय संदेह की दृष्टि से देखी गई। न केवल दर्शक बल्कि इसके गीतकार जावेद अख्तर तक को संदेह था कि क्या खेल और इतिहास पर बनी फिल्म रोमांस और एक्शन के बिना सफल हो पाएगी। लेकिन 'लगान' ने खेल और औपनिवेशिक सत्ता के बीच टकराव को केंद्र में रखकर भारतीय सिनेमा में खेल-प्रधान फिल्मों की धारा को नया मोड़ दिया। यह फिल्म न केवल व्यावसायिक रूप से सफल रही, बल्कि ऑस्कर नामांकन प्राप्त कर यह साबित कर दिया कि गंभीर सामाजिक विषयों को खेल के माध्यम से भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है।

इसके बाद 'चक दे! इंडिया' (2007) आई, जिसमें शाहरुख़ ख़ान ने देश के बदनाम पूर्व हॉकी कप्तान की भूमिका निभाई। यहफिल्म महिला खिलाड़ियों के संघर्ष, लैंगिक भेदभाव और देशभक्ति को गहराई से दिखाती है। स्वतंत्रता दिवस पर रिलीज़ हुई यह फिल्म सांस्कृतिक प्रतीक बन गई, और इसका शीर्षक गीत 'चक दे इंडिया' एक राष्ट्रीय नारा जैसा बन गया।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'भाग मिल्खा भाग' (2013) और नितेश तिवारी की 'दंगल' (2016) ने बायोपिक की धारा को आगे बढ़ाया। 'दंगल' ने हरियाणा के एक पारंपरिक पितृसत्तात्मक समाज में बेटियों के पहलवान बनने की सच्ची कहानी को विश्व स्तर पर प्रस्तुत किया। इस फिल्म ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर 2000 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की, बल्कि महिलाओं के खेल में भागीदारी की सोच को भी चुनौती दी।

'मैरी कॉम' (2014) ने पूर्वोत्तर की एक महिला मुक्केबाज़ की संघर्षगाथा को सामने लाया और प्रियंका चोपड़ा के प्रदर्शन की प्रशंसा हुई। वहीं, 'काय पो छे!' (2013) ने क्रिकेट की पृष्ठभूमि में धार्मिक दंगों और सामाजिक विभाजन की कहानी कही। अनुराग कश्यप की 'मुक्काबाज़' (2018) और नागराज मंजुले की 'झुंड' (2022) ने जातिवाद, वर्ग संघर्ष और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को खेलों के माध्यम से दिखाया।

खेल फिल्मों में विविधता भी देखने को मिली। 'इकबाल' (2005) ने एक मूक-बधिर लड़के की क्रिकेट की चाह दिखाई, 'हवा हवाई' (2014) ने रोलर-स्केटिंग जैसे कम चर्चित खेल को प्रस्तुत किया, तो 'साला खड़ूस' (2016) ने महिला बॉक्सिंग पर केंद्रित फिल्म बनाई।

'माईदान' (2024), कोच सैयद अब्दुल रहीम की बायोपिक थी, जिसने भारत के फुटबॉल के 'स्वर्ण युग' को उजागर किया, हालांकि इसका व्यवसायिक प्रदर्शन कमजोर रहा।आमिर खान की ताज़ा फिल्म 'सितारे ज़मीन पर' (2024) स्पेनिश फिल्म 'चैम्पियन्स' पर आधारित है, जिसमें वे मानसिक रूप से अलग क्षमताओं वाले बच्चों की बास्केटबॉल टीम को कोच करते हैं। यह फिल्म विकलांगता जैसे विषय को संवेदनशीलता से छूती है और बॉक्स ऑफिस पर भी 200 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई कर चुकी है। फ़िल्मफेयर ने इसे मनोरंजन और शिक्षा का संतुलन कहा, जो उपदेशात्मक हुए बिना दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है।

अंततः, बीते दो दशकों में हिंदी खेल फिल्में सिर्फ रोमांच या जीत तक सीमित नहीं रहीं। उन्होंने लैंगिक असमानता, जातीय भेदभाव, क्षेत्रीय असमानताओं और शारीरिक-मानसिक अक्षमताओं जैसे विषयों को भी अपने कथानक में समेटा है। क्रिकेट से लेकर बॉक्सिंग, हॉकी से लेकर रोलर-स्केटिंग और अब बास्केटबॉल तक इन फिल्मों ने खेल के बहाने समाज के अनकहे पहलुओं को दर्शकों तक पहुँचाया है।

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