75 की उम्र में लौटा ‘पडैयप्पा’, लेकिन सवाल क्या रजनीकांत की फिल्म स्त्री-विरोधी?
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75 की उम्र में लौटा ‘पडैयप्पा’, लेकिन सवाल क्या रजनीकांत की फिल्म स्त्री-विरोधी?

रजनीकांत की 1999 की फिल्म पडैयप्पा की री-रिलीज़ के साथ फिर बहस छिड़ गई है। क्या फिल्म में स्त्री-विरोधी संवाद हैं?


साउथ सुपरस्टार रजनीकांत जैसे ही 75 वर्ष के हुए, उनकी 1999 की सुपरहिट फिल्म पडैयप्पा एक बार फिर सिनेमाघरों में री-रिलीज़ हो रही है। केएस रविकुमार निर्देशित यह फिल्म, जिसमें रजनीकांत ने शीर्ष भूमिका निभाई थी, दिग्गज अभिनेता शिवाजी गणेशन और सौंदर्या भी शामिल थे। वहीं, फिल्म ने अभिनेत्री राम्या कृष्णन को एक दमदार और यादगार खलनायिका का किरदार दिया, जिसकी आज भी चर्चा होती है।

लेकिन पडैयप्पा में कई संवाद ऐसे हैं जिन्हें आज की संवेदनशीलता के हिसाब से स्पष्ट रूप से स्त्री-विरोधी, अपमानजनक या पत्नी-विरोधी माना जाएगा जैसे कि महिलाओं को सीमाएं पता होनी चाहिए, महिलाओं को ज़्यादा महत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए, ग़ुस्सा न करें, जबकि पुरुष वही सब करने का अधिकार रखते हैं।

आज की पीढ़ी इस फिल्म को कैसे देखती है? तमिल सिनेमा में महिलाओं, महत्वाकांक्षा और आदर्श स्त्रीत्व को किस तरह प्रस्तुत किया गया है? इसी पर द फेडरल ने वरिष्ठ पत्रकार कविता मुरलीधरन से बात की।

क्या ‘पडैयप्पा’ की स्त्री-विरोधी सोच पर आज बात होनी चाहिए?

कविता मुरलीधरन कहती हैं कि स्त्री-विरोधी सामग्री पर हर दौर में बात होना ज़रूरी है — चाहे वह 1960 का दशक रहा हो या 2020 का। “स्त्री-विरोध हमेशा से मौजूद रहा है। इस बारे में चुप रहना सबसे बुरी बात है। इसे ‘उस दौर की उपज’ बताकर टालना गलत है। वे कहती हैं कि पडैयप्पा अकेली फिल्म नहीं है जिसमें ऐसी सोच दिखाई देती है, लेकिन जब भी इसकी चर्चा हो, उसे गंभीरता से लेना चाहिए।

कविता खुद रजनीकांत की प्रशंसक हैं, लेकिन मानती हैं कि उनकी “सुपरस्टार” छवि ने उनकी अभिनेता वाली पहचान को ओझल कर दिया।

क्या ‘उस दौर की फिल्म’ कहकर पडैयप्पा को माफ किया जा सकता है?

कविता इस तर्क को पूरी तरह ख़ारिज करती हैं “स्त्री-विरोध हर दौर में रहा है। इसे युग विशेष कहना बहाना है। यह मुद्दा तब भी प्रासंगिक था और आज भी है — ठीक वैसे ही जैसे जाति पर बात करना। उनका कहना है कि फिल्म की री-रिलीज़ के कारण यह बातचीत और भी महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि नई पीढ़ी पडैयप्पा को पहली बार देख रही है।

निलांबरी और वसंत के चित्रण से तमिल सिनेमा की सोच क्या झलकती है? कविता कहती हैं कि तमिल सिनेमा में लंबे समय से एक ही पैटर्न दोहराया जाता रहा है एक “अहंकारी”, “सशक्त” महिला जिसे “ताम” किया जाना है, और दूसरी “आदर्श, सौम्य, घरेलू” महिला जिसका महिमामंडन किया जाता है।

वे उदाहरण देती हैं—

अरिवाली (1963) — शिवाजी गणेशन और भानुमति की फिल्म, जो ‘द टेमिंग ऑफ द श्रू’ का तमिल संस्करण थी।

मन्नन (1992) — विजयशांति एक मजबूत बिज़नेसवुमन, लेकिन अंत में “डॉकाइल हाउसवाइफ़” में बदल दी जाती है।

एमजीआर की कई फ़िल्में — एक “अहंकारी” महिला को हर हाल में “सीख देना”।

कविता कहती हैं “हीरो की छवि गढ़ने के लिए एक तरफ सबल महिला को अपमानित करना और दूसरी तरफ ‘समर्पित’ महिला को सम्मान देना—यह ट्रेंड दशकों तक चलता रहा। उनके अनुसार, 2025 की फिल्म आन पावम पोल्लाथथु भी इसी पैटर्न को नए ढंग से पेश करती है—जहां एक राजनीतिक रूप से जागरूक महिला को “समझ की कमी” वाली दिखाकर उपहास का पात्र बनाया जाता है।

क्या फिल्मों ने समाज में पितृसत्तात्मक व्यवहार को सामान्य किया है?

कविता का जवाब स्पष्ट है — हां। तमिल सिनेमा का सांस्कृतिक प्रभाव बहुत गहरा रहा है। Parasakthi (1952) जैसी फिल्मों ने समाज को बदला।

इसी तरह स्त्री-विरोधी फिल्मों ने गलत व्यवहार को सामान्य किया। वे कहती हैं कि फिल्मों ने महिलाओं के पीछा करने, उन्हें परेशान करने, और “ना को हां” में बदलने की खतरनाक प्रवृत्ति को भी रोमांटिक बना दिया और लोग उसे वास्तविक जीवन में दोहराने लगे। “तमिल सिनेमा के नायक और उन्हें बनाने वाले निर्देशक बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हैं।

अगर पडैयप्पा आज बिल्कुल उसी रूप में रिलीज़ होती, तो क्या होता?

कविता मानती हैं कि फिल्म में कोई बदलाव नहीं किया गया है — न अभी, न दोबारा रिलीज़ के लिए। उनके शब्दों में “अगर आज वैसी ही नई फिल्म आए तो मैं चाहूंगी कि लोग सवाल पूछें। परंतु मुझे नहीं लगता कि इसे पूरी तरह खारिज कर दिया जाएगा। वे फिल्म के मूल प्लॉट की असलियत पर भी सवाल उठाती हैं “एक महिला का 18–20 साल तक खुद को कमरे में बंद कर लेना सिर्फ बदला लेने के लिए—यह अविश्वसनीय है।यह महिलाओं की सोच को बचकाना और अवास्तविक तरीके से पेश करता है।”

कविता का कहना है कि ऐसी कहानियों को लिखते समय “महिला नज़रिए” की जरूरत होती है, जो स्पष्ट रूप से अनुपस्थित है।

री-रिलीज़ के साथ बहस और भी जरूरी

पडैयप्पा की री-रिलीज़ सिर्फ एक पुरानी फिल्म का पुनर्प्रकाशन नहीं है—यह एक मौका है देखने का कि तमिल सिनेमा में महिलाओं को कैसे प्रस्तुत किया गया, कैसे अपमानजनक विचारों को “मनोरंजन” बनाकर बेचा गया, और अब नई पीढ़ी इस विरासत को कैसे समझती है। मैं नहीं कहती कि लोग इस फिल्म को न देखें। लेकिन हां—देखें, समझें और गलत चीज़ों पर सवाल जरूर उठाएं।”

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