साठ के शाहरुख़ : सुपरस्टार्स की आख़िरी पीढ़ी, जिसने भारत को प्यार करना सिखाया
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60 की उम्र में शाहरुख़ ख़ान ने सुपरस्टारडम को पीछे छोड़कर भारत का इमोशनल स्ट्रक्चर बन गए हैं।

साठ के शाहरुख़ : सुपरस्टार्स की आख़िरी पीढ़ी, जिसने भारत को प्यार करना सिखाया

पिछले 30 सालों से शाहरुख़ ख़ान भारत की नब्ज़ बन चुके हैं — देश के दर्द, व्यंग्य और सपनों को अपने भीतर समेटकर परदे पर उतारने वाले अभिनेता। 60 की उम्र में वे सुपरस्टार से आगे बढ़कर भारत के प्यार, बुद्धिमत्ता और शालीनता की सबसे जीवंत अभिव्यक्ति बन गए हैं।


लोग शाहरुख़ ख़ान को “आख़िरी सुपरस्टार” क्यों कहते हैं, इसका कारण साफ़ है। लगभग साढ़े तीन दशक से वे उस अभिनेता की भूमिका निभा रहे हैं जो पूरे देश की भावनाओं को अपने भीतर पचाकर उन्हें परदे पर नए रूप में लौटाता है। भारत की सामूहिक नब्ज़ की तरह वे हमारे दर्द, व्यंग्य और आकांक्षाओं को आत्मसात करते हैं और फिर उन्हें अपने अंदाज़ में हमें लौटा देते हैं।

“किंग ऑफ़ रोमांस” SRK एक ऐसे उद्योग का केंद्र हैं जो पूरी तरह भावनाओं पर टिका है। उनके हँसने के क्लिप्स, इंटरव्यूज़ की ‘स्क्रिप्चर’ जैसी व्याख्याएँ, और वो अनजान लोग जो ऑनलाइन कहते हैं — “उन्होंने मुझे प्यार के मायने सिखाए” — ये सब एक ऐसे सांस्कृतिक विश्वास का हिस्सा हैं जो बार-बार उनकी छवि में नया रूप लेता है।

60 की उम्र में शाहरुख़ अब किसी इंसान या सुपरस्टार की अवधारणा से आगे निकल चुके हैं — वे वो माध्यम बन गए हैं जिसके ज़रिए यह देश आज भी रोमांस, सपनों और उम्मीदों को परिभाषित करता है। हम उनमें वही देखते हैं जो हम भारत में और अपने भीतर देखना चाहते हैं — एक नरमदिल, चतुर, और अदम्य आत्मा। इसलिए आज भी शाहरुख़ ख़ान भारत की सबसे सुलभ कल्पना हैं — वो अभिनेता जो हमारी सच्चाइयों की भाषा बोलता है।

दूसरी पारी की शुरुआत

लेकिन SRK — यानी ‘किंग ख़ान’ — को यह सिंहासन शुरुआत में नहीं मिला था।

उन्होंने बाहर से आकर लोगों के दिलों तक पहुँचने का हुनर सीखा। शुरुआती फ़िल्मों में एक जुझारू तेवर था — बाज़ीगर (1993) में एंटी-हीरो, कभी हां कभी ना (1994) में शरारती आम लड़का, और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) में अमर रोमांटिक।

धीरे-धीरे उन्होंने खुद को और हमें सिखाया कि एक व्यक्ति कई रूपों में जी सकता है — हँसमुख भी और उदास भी, परिष्कृत भी और संवेदनशील भी, आधुनिक भी और जड़ों से जुड़ा हुआ भी। यही लचीलापन उन्हें ओम शांति ओम (2007) में अपनी ही दास्तान पर आंख मारने की आज़ादी देता है, तो स्वदेस में देश की आत्मा की फुसफुसाहट।

चक दे! इंडिया में वे प्रेमी नहीं, बल्कि एक टीम के संरक्षक हैं — एक ऐसा कोच जिसकी तमतमाहट भरोसे की नींव बनती है। वहीं पठान (2023) में उन्होंने वापसी को एक कला बना दिया — एक सर्वाइवर का शरीर, एक मेगास्टार का आकर्षण और एक राष्ट्र की लालसा को एक्शन में ढाल दिया।

मेरे लिए जवान (2023) वो फ़िल्म थी जिसने शाहरुख़ ख़ान की “दूसरी पारी” को पुख़्ता कर दिया — एक पिता और बेटा, एक सिपाही और एक साया, एक मिथक जो दो आईनों में बँट गया।

ये दोहरा किरदार असल में उनके ही जीवन का रूपक था — वो इंसान जिसे एक साथ सपना और सच्चाई, बग़ावत और भरोसा दोनों निभाने होते हैं।

जब उन्होंने जवान के लिए नेशनल अवॉर्ड लिया, तब वो पल देश का एक मौन स्वीकार था — कि भावनाएँ अब भी हमें छूती हैं।

वो एक जश्न नहीं, बल्कि एक तर्क भी था — कि मास सिनेमा में भी अर्थ हो सकता है, कि लोकप्रियता और प्रतिष्ठा दुश्मन नहीं, और कि दिल को अब भी भारतीय सिनेमा के केंद्र में जगह मिलनी चाहिए।

उनकी "न्यूक्लियर आभा"

असल बात तो यह है कि शाहरुख़ ख़ान भारत की भावनात्मक अधोसंरचना बन चुके हैं — अराजकता और आत्मशुद्धि (catharsis) के बीच का भरोसेमंद पुल।

उनकी फ़िल्में आईना दिखाने के बजाय हमें आईना थमाती हैं — यह कहती हैं कि एक बार फिर देखो, और अपनी दरारों के बावजूद खुद से प्यार करो। आदित्य चोपड़ा ने उनकी स्टारडम की एक बार सटीक व्याख्या की थी, “तुम्हारी आँखों में वो है, जिसे सिर्फ़ एक्शन पर बर्बाद नहीं किया जा सकता।”

वो बिल्कुल सही थे। उन बेचैन लेकिन कोमल आँखों ने वो कर दिखाया जो कोई धमाका नहीं कर सकता था — उन्होंने सहानुभूति को विस्फोटित कर दिया।


जवान के शाहरुख़ ख़ान


उन आँखों ने ललक को सिनेमाई बना दिया — उन्होंने एक पीढ़ी को सिखाया कि तीव्रता भी निजी हो सकती है, और कोमलता भी भव्य।

जब शाहरुख़ ख़ान अपने दोनों हाथ फैलाते हैं — उनका वो मशहूर सिग्नेचर पोज़ — तो वो एक आमंत्रण भी होता है और एक आश्वासन भी।

वो हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि भारतीय होने की उलझन — महत्वाकांक्षी होना, आत्मसचेत होना, थक जाना और फिर भी उम्मीद में जीना — सही रोशनी और संगीत के साथ रोमांस जैसा महसूस हो सकता है।

SRK उस देश को, जो हमेशा किसी न किसी अनुवाद में फँसा रहता है, कुछ घंटों के लिए यह यक़ीन दिलाते हैं कि उसकी भावनाएँ भी संगत हैं, अर्थपूर्ण हैं।

फैंडम से पहले, शाहरुख़ थे

जब फैंडम की गिनती ‘फॉलोअर्स’ या ‘मेट्रिक्स’ में नहीं होती थी, तब शाहरुख़ ख़ान थे — जिन्होंने लाखों लोगों को सिखाया कि किसी सितारे से प्यार करना असल में खुद को देखे जाने का अहसास है।

60 की उम्र में उनकी तीक्ष्णता अब भी बरकरार है, लेकिन अब उस पर एक थकान की परत है — वो थकान जो सिर्फ़ अपनी ही मिथक में ज़िंदा रहने वालों में आती है।

कभी जवानी और रोमांस के प्रतीक रहे इस आदमी को अब उम्र, जोखिम और परिणाम को गले लगाते देखना कुछ गहराई से छूता है।

पठान एक आसान नॉस्टैल्जिया एक्ट हो सकती थी, लेकिन उन्होंने उसे एक पुनराविष्कार की तरह निभाया — अपने शरीर, अपने अस्तित्व और इस अधिकार की पुनर्प्राप्ति के रूप में कि वे अब भी इस देश के सबसे प्रिय बाहरी हैं।

बाल अब कुछ सफ़ेद हैं, मुस्कान थोड़ी धीमी, लेकिन उनकी आभा — वो बुद्धिमत्ता और शरारत का मिश्रण — अब भी न्यूक्लियर है।

शायद इसी वजह से उनकी मुस्लिम पहचान अब और भी अहम हो गई है।

एक ऐसे दौर में जब समाज विभाजनों से भरा है, उन्होंने कभी उपदेश नहीं दिया, न ही अपनी पहचान को हथियार बनाया।

उन्होंने बस जीया उसे।

उन्होंने एक बार कहा था, “मेरी पत्नी हिंदू है, मैं मुसलमान हूँ, और मेरे बच्चे हिंदुस्तान हैं।”

पहली नज़र में ये एक हल्की-सी पारिवारिक बात लगती है, लेकिन दरअसल यह एक घोषणापत्र है जो एक क़िस्से के रूप में बोला गया है।

परदे पर उनकी भारतीयता इतनी संपूर्ण है कि उसे किसी उपनाम या पटकथा में बाँधा नहीं जा सकता।

उनमें बहुलता (pluralism) फिर से सहज और स्वाभाविक लगती है।

उनकी बुद्धिमत्ता और आत्म-हास्य भरी विनम्रता

इन सभी वर्षों में शाहरुख़ ख़ान ने इमेज मैनेजमेंट का एक अनोखा तरीका अपनाया है।

दिल्ली के एक मिडिल-क्लास लड़के — जो कभी सफल खिलाड़ी नहीं बन पाया और थिएटर से निकला — की कहानी अब एक लोककथा बन चुकी है।

साक्षात्कारों में वे इतनी सटीक टाइमिंग से विनम्रता दिखाते हैं कि वह सहज लगती है, rehearsed नहीं। वो अपने बच्चों के लिए खाना बनाने, रात में देर तक पढ़ने और फ़िल्मों के बीच “आलसी” रहने की बातें करते हैं —फिर भी उनका मिथक (myth) और बढ़ता जाता है।

वो हिंदी सिनेमा के सबसे बुद्धिमान और आत्म-हास्यप्रिय सितारों में से एक हैं — जो खुद पर हँसने की कला में माहिर हैं।

उनकी यह छवि इसलिए टिकाऊ है क्योंकि उनकी बुद्धिमत्ता हमेशा सतह पर रहती है,

हमेशा स्व-जागरूक

वो खुद को मानवीय बनाने के लिए बस उतना ही खोलते हैं जितना ज़रूरी है, इतना नहीं कि रहस्य खत्म हो जाए।

वो असफलता की बात करते हैं, लेकिन दया नहीं जगाते; सफलता पर बोलते हैं, लेकिन अहंकार नहीं दिखाते।

कभी कहते हैं “शोहरत अकेली कर देती है”, और तुरंत जोड़ देते हैं, “लेकिन शुक्रगुज़ार हूँ”— जैसे भावनात्मक पारदर्शिता को हमेशा एक चेतावनी के साथ आना चाहिए।

उन्होंने शोहरत के तमाशे को टिकाऊ बनाया —उसे बातचीत की तरह जीकर: सीधी, विनम्र, और हल्की-सी आत्म-आलोचनात्मक।

उनकी भाषा, उनका सलीका

शाहरुख़ की एक अनदेखी ख़ूबी है — उनकी वाक्पटुता और शालीनता।

उनका कोई भी इंटरव्यू देखिए —किसी कठोर या शत्रुतापूर्ण सवाल का जवाब वो नाराज़गी से नहीं, बल्कि मुस्कुराहट से देते हैं।

आलोचना को वो इस तरह मोड़ते हैं कि सम्मान भी बना रहे और अपनापन भी।

आज शाहरुख़ ख़ान निरंतरता के प्रतीक हैं —एक ऐसे देश में जो हर पल नए सिरे से खुद को गढ़ने में लगा है। उनका करिश्मा ध्यान नहीं माँगता, वो सम्मान अर्जित करता है।

वो ऐसी मर्दानगी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो माफ़ी माँगना भी जानती है — जो हिंदी सिनेमा की व्याकरण में अब भी एक क्रांतिकारी गुण है।

उनकी बेहतरीन फ़िल्मों में प्यार कोई जीत नहीं बल्कि संवाद है — “दिल से”, “कल हो ना हो”, “चक दे! इंडिया” जैसी फ़िल्में सिखाती हैं कि

मोहब्बत धैर्य है, और इच्छा एक बातचीत।

यहाँ तक कि उनकी असफल फ़िल्में — Fan, Zero, Jab Harry Met Sejal —भी ऐसे प्रयोग लगती हैं जो इस देश से संवाद बनाए रखने की कोशिश करती हैं, जो हर वक़्त अपनी भाषा और पहचान को नया रूप दे रहा है।

एक सिद्ध भ्रमजाल रचयिता

2025 में शाहरुख़ ख़ान का प्रशंसक होना दरअसल एक लंबे रिश्ते का हिस्सा होना है —जिसने दूरी, भ्रम, समय और सामूहिक आश्चर्य के क्षय को झेला है, फिर भी टिका रहा है।

यह उस भावना की टिकाऊ शक्ति पर यक़ीन करना है। दुनिया जितनी विडंबनापूर्ण और बंटी हुई होती जा रही है, उनकी सच्चाई अब भी शोर और विभाजन को काटती हुई निकल जाती है।

क्योंकि जब वो पर्दे पर आपकी आँखों में देखते हैं — वो एक समझौता होता है: कि चाहे भावना कितनी भी घायल क्यों न हो, उसे कभी छोड़ा नहीं जाएगा।

जब वो फ़्रेम में प्रवेश करते हैं, भारत साँस छोड़ता है — आदत से नहीं, पहचान से। क्योंकि वो जो देते हैं वो सिर्फ़ भागने का रास्ता (escapism) नहीं, बल्कि तालमेल (alignment) है।

कुछ क्षणों के लिए हम याद करते हैं — कि एक साथ एक ही चीज़ महसूस करना कैसा होता है।

और यही शाहरुख़ ख़ान की असली पहचान है — वो फिल्मी सितारा जो हमारी विरोधाभासों को चेहरा देता है

और दिखाता है कि अगर भावना में बुद्धि शामिल हो, तो वह अब भी विद्रोही हो सकती है।

60 की उम्र में शाहरुख़ ख़ान सिर्फ़ सुपरस्टार नहीं, बल्कि एक साझी स्मृति बन चुके हैं —एक संग्रहालय, जिसमें आज़ाद भारत की आत्मा का दस्तावेज़ दर्ज है —उसकी आशा, उसकी थकान, उसकी सॉफ्ट पावर जो अब भीतर की ओर मुड़ चुकी है।

आज उन्हें देखना, उस दौर को छूना है — जब भावना को अब भी एक मूल्य माना जाता था।

अगर सिनेमा एक आईना है, तो वो उसके सबसे सिद्ध जादूगर हैं; अगर वो थेरेपी है, तो वो उसके सबसे कुशल चिकित्सक हैं —जो बार-बार इस देश की वही लालसा पहचानते हैं: अपनी ही कहानी में खुद को देखे जाने की इच्छा।

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