
Valentine's Day: कैसे हिंदी सिनेमा ने हमें दशकों तक प्यार का गलत ब्लूप्रिंट दिया
सिनेमा द्वारा हमें दी जाने वाली सबसे जिद्दी झूठों में से एक ये है कि प्यार एक ऐसा घटनाक्रम है जो एकल और पूर्वनिर्धारित होता है.
उत्तर भारत के एक छोटे से शहर में बड़े होते हुए, प्यार कभी ऐसा नहीं था जिसे आप खुलेआम बात करें. ये कुछ ऐसा था जिसे आप समझते थे, कुछ ऐसा जिसे आप उस तरह देख सकते थे जैसे एक बड़े चचेरे भाई ने एक पत्र को जलाने से पहले बहुत देर तक पकड़े रखा या जैसे एक दुकानदार का बेटा या पड़ोस के स्कूल टीचर लड़कियों के कॉलेज के आसपास जरूरत से ज्यादा घूमते थे. प्यार हिंदी फिल्मों का था यही हम सोचते थे या उन पुरुषों का जो अपने जज़्बातों को हवा में चिल्ला कर जाहिर करते थे, कभी गानों में, कभी जुनूनी एकालापों में. ये रेलवे स्टेशनों पर किए गए इज़हारों का था. उन नायकों का था जो सरसों के खेतों में खुले हाथों के साथ खड़े रहते थे, अपनी तक़दीर के उनके गले लगने का इंतजार करते थे. प्यार उन महिलाओं का था, जो मुलायम, काव्यात्मक प्रतिरोध के साथ प्रतिक्रिया देती थीं. जो नज़रें फेरती थीं लेकिन हां का मतलब देती थीं, जो प्रतिक्रिया देती थीं लेकिन समर्पण की ख्वाहिश रखती थीं.
स्क्रीन पर प्यार एक सपना था, एक तात्कालिकता की बुखार, उत्तेजक बैकग्राउंड स्कोर, चुराई गई नज़रों का जो तीन घंटे में शादी या दिल टूटने की ओर ले जाती थी. ये अपरिहार्य सा लगता था, जैसे सभी की तक़दीर इस पर निर्भर करती थी कि वो उस एक परफेक्ट इंसान को ढूंढ लें. लेकिन असली दुनिया में, प्यार कुछ और ही था. ये कुछ अधिक नाजुक था. आसानी से खो जाने वाला और कभी भी फिल्मों की तरह उस सख्ती से नहीं बोला जाता था. सच ये है कि सिनेमा ने प्यार का विचार रैप्सोडिक लूप्स में इंजीनियर, मैनिपुलेट और बेचा. हमारे रोमांटिक कल्पना के महान वास्तुकार के रूप में इसने हमें प्यार का ऐसा किरदार दिखाया जो अतिरंजित था, जिसे प्राप्त करना असंभव सा लगता था और वास्तविकता इसकी तुलना में फीकी पड़ जाती थी. इसने प्यार को एक पूर्वनिर्धारित तमाशा के रूप में बताया. जो अपनी ऊंचाइयों में उन्मत्त था, अपनी नीचाइयों में बर्बाद करने वाला था और वास्तविक रिश्तों के सूक्ष्मताओं के प्रति पूरी तरह से उदासीन था.
सिनेमा हमें जो सबसे लगातार झूठ बताता है. वो ये है कि प्यार एक विशेष पूर्वनिर्धारित घटना के रूप में आता है. एक व्यक्ति होता है और हम उन्हें पहचान लेंगे जब वह आएगा. ये विश्वास एक बेहतरीन फिल्म के लिए बहुत अच्छा होता है. इससे ज्यादा लुभावना कुछ नहीं हो सकता, जब दो लोग एक-दूसरे से टकराते हैं, जैसे वो एक ब्रह्मांडीय स्क्रिप्ट के साथ टकरा रहे हों, शायद उन देवताओं द्वारा स्वीकृत जो हम पूजा करते हैं, लेकिन असली जिंदगी में प्यार हमेशा ऐसी स्पष्टता से अपना परिचय नहीं देता न कोई बैकग्राउंड स्कोर होता है. न कोई दिव्य संकेत, न कोई भविष्यवक्ता जो हमें बताता है कि ये यही है. इसके बजाय, यहां विकल्प है. यहां धैर्य है. यहां उस व्यक्ति को पहचानने का काम है न कि एक गायब टुकड़े के रूप में, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में, जिसकी अपनी खुरदरी किनारे हैं, उसकी अपनी अनकही कहानियां हैं.
सिनेमा ने हमें एक ऐसी लव स्टोरी का आदी कर दिया है जो या तो पूरी तरह से जलती है या बिल्कुल भी नहीं, लेकिन प्यार, अपनी असली रूप में, अक्सर चुपचाप होता है, कम सिनेमाई होता है. ये उस साधारण में बनता है, जैसे कोई आपकी चाय का ऑर्डर याद रखता है. जैसे सालों तक आदान-प्रदान किए गए कृपालु आचरण. वो छोटे स्थिर इशारे जो कभी स्क्रीन तक नहीं पहुंचते क्योंकि उनमें बड़े रोमांटिक कृत्यों का तमाशा नहीं होता.
दशकों तक हिंदी सिनेमा ने हमें ये सिखाया कि प्यार को कठिनाई से प्राप्त करना चाहिए कि दुख रोमांस की कीमत है और ये कि दृढ़ता चाहे वो कितनी भी अव्यावहारिक क्यों न हो इसका मूल्य साबित करती है. अगर आप किसी से प्यार करते हैं, तो आपको उनके लिए लड़ना चाहिए, उनके पीछे दौड़ना चाहिए, उनके लिए नियम तोड़ने चाहिए. ये खाका न केवल ये प्रभावित करता है कि हम प्यार की कहानियों का सेवन कैसे करते हैं, बल्कि ये भी प्रभावित करता है कि हम इन्हें अपनी जिंदगी में कैसे लिखते हैं. यश चोपड़ा, बॉलीवुड रोमांस ने हमें प्यार की एक पूरी अलग भाषा दी बारिश में भीगी सिल्क और धीरे-धीरे जलती हुई नज़रों की, समय के साथ खिंचती तड़प. उनकी लव स्टोरीज़ ख्वाहिशों पर आधारित थीं, उस अलगाव पर आधारित थीं जिसे समर्पण के प्रमाण के रूप में देखा जाता था. उनकी फिल्मों में प्रेमी कभी बिना कष्ट भोगे नहीं मिलते थे. क्योंकि उनके ब्रह्मांड में असली प्यार बलिदान की गहराई से माप जाता था और उसी कष्ट में, हमें इंतजार को रोमांटिक बनाने की सिख दी गई. ये मानने की कि प्यार का आनंद लेने के साथ-साथ इसे सहन भी करना था.
1990 के दशक में, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (यश चोपड़ा, 1995), कुछ कुछ होता है (करण जौहर, 1998), और हम दिल दे चुके सनम (संजय लीला भंसाली, 1999) जैसी फिल्मों ने इस सिद्धांत को अपनाया. प्यार भव्य, हर दिल टूटने, हर अलगाव, हर पारिवारिक विरोध के लायक था. ये एक तलाश था, एक समर्पण की परीक्षा थी, जिसमें आपको दर्द और धैर्य के माध्यम से ये साबित करना था कि आप अपने प्रिय के योग्य हैं. ये कभी भी एक शांत, आपसी खोज नहीं था. ये हमेशा एक बाधाओं का खेल था. उदाहरण के लिए, DDLJ लें. राज (शाहरुख़ ख़ान) फिल्म के एक बड़े हिस्से में सिमरन (काजोल) के हाथ को पाने के लिए उसके पिता की नापसंदगी को सहन करता है, बजाय इसके कि उसे एक व्यक्ति के रूप में देखा जाए जो अपने विकल्पों पर पूरी तरह से नियंत्रण रखती है.
फिल्म का मुख्य संदेश कि प्यार, चाहे वो कितना भी भावुक क्यों न हो, माता-पिता की स्वीकृति के माध्यम से वैध होना चाहिए. एक रोमांटिक ईमानदारी का क्रांतिकारी कृत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है. असल में ये सिर्फ ये विचार मजबूत करता है कि प्यार बिना बाहरी मान्यता के अधूरा होता है. कुछ कुछ होता है भी इससे बेहतर नहीं था. ये सुझाव देता था कि प्यार कुछ ऐसा है जिसे समय के साथ अर्जित किया जा सकता है, कि एक महिला को एक आदमी के प्यार के योग्य बनने के लिए बदलना पड़ता है. अंजलि (काजोल) केवल तब राहुल (शाहरुख़ ख़ान) का रोमांटिक आदर्श बनती है जब वो अपनी टॉम्बॉयनेस को साड़ियों और लंबे बालों से बदल देती है. ये परिवर्तन केवल शारीरिक नहीं था. ये पहचान का मिटना था. छिपा हुआ संदेश? आप जैसा हैं वैसे नहीं, बल्कि आप जो बनते हैं, उसके आधार पर प्यार किया जाता है.
2000 के दशक में भी संघर्ष और बलिदान को रोमांटिक बनाने की परंपरा जारी रही. मोहब्बतें (आदित्य चोपड़ा, 2000) में, प्यार विद्रोह था. कभी खुशी कभी ग़म (करण जौहर, 2001) में, प्यार सहनशक्ति की परीक्षा था, जहां परिवार से वर्षों की अलगाव सिर्फ अंततः पुनर्मिलन के मार्ग पर मील के पत्थर थे. यहां तक कि इम्तियाज़ अली की जब वी मेट (2007) में भी, जो रोमांस के इलाज में ताजगी से भरी हुई थी, आदित्य (शाहिद कपूर) को प्यार के योग्य बनने से पहले दुख सहना पड़ा. मौलिक विचार वही रहा. प्यार संगति या संवाद के बारे में नहीं है; यह खुद को साबित करने के बारे में है.
लेकिन फिर, 2000 के दशक के अंत तक कुछ बदलाव शुरू हुआ. बॉलीवुड, जैसा कि हिंदी सिनेमा को व्यापक रूप से जाना जाता है. अपनी ही पौराणिकताओं पर सवाल उठाना शुरू कर दिया. उन पहले हिंदी फिल्मों में से एक थी, जो इस बदलाव को बहुत अच्छे से दर्शाती है, आयान मुखर्जी की वेक अप सिड (2009), जिसने बॉलीवुड की भव्य अवधारणाओं को ध्वस्त किया और प्यार को एक ऐसी चीज के रूप में दिखाया जो नाटकीय इशारों में नहीं, बल्कि साथ-साथ चलने से बढ़ती है.
सिड (रणबीर कपूर) और ऐश्वर्या (कोंकणा सेन शर्मा) के बीच का रिश्ता जैविक रूप से विकसित होता है, जो साझा पलों और आपसी सम्मान से आकार लेता है. ऐश्वर्या एक मैनिक पिक्सी ड्रीम गर्ल नहीं है जिसे सिड को बदलने के लिए डिज़ाइन किया गया हो. उसके अपने उद्देश्य, अपनी यात्रा है और वो सिड का देखभाल करने वाला बनने से इनकार करती है. 90 और 2000 के दशक की लव स्टोरीज़ से अलग, जहां महिलाओं को ‘प्यार के योग्य’ होने के लिए खुद को ढालना पड़ता था, वेक अप सिड ऐश्वर्या को स्वतंत्र रहने की अनुमति देती है, और सिड का प्यार उसे बदलने से नहीं, बल्कि खुद को बदलने से जुड़ा है.
इसी तरह, इम्तियाज़ अली की तमाशा (2015) ने रोमांटिक नायक को विखंडित किया और एक नायक को पेश किया जो एक ऐसे प्रेमकहानी के जाल में फंसा हुआ था जिसे वो अब समझ नहीं पाता था. करण जौहर की ऐ दिल है मुश्किल (2016) ने अविनाशी प्रेम के विचार को उलट दिया, और ये दिखाया कि ये कैसे दम घोटने वाला और आत्म-विनाशकारी हो सकता है. प्यार अब सिर्फ तड़प और खोज के बारे में नहीं था. ये पहचान, स्वीकृति, और कभी-कभी, बिना किसी समाधान के दिल टूटने के बारे में था. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में कुछ फिल्में यथार्थवाद की ओर बढ़ी हैं, वहीं कुछ अन्य अभी भी खतरनाक आदर्शों को अपनाती हैं. संदीप रेड्डी वांगा की कबीर सिंह (2019) ने विषाक्त अधिकारिता को जुनून में बदल दिया. फिल्म ने एक ऐसे नायक को महिमामंडित किया, जिसने उस महिला पर नियंत्रण रखा जिसे वह प्यार करता था, आक्रामकता को तीव्रता के रूप में गलत समझते हुए. वांगा की अगली फिल्म, एनिमल (2023), ने इसे और बढ़ा दिया और एक अत्यधिक हिंसक नायक को पेश किया जिसका प्यार प्रभुत्व द्वारा परिभाषित था.
एक टूटे हुए पिता-पुत्र के रिश्ते में ओपेराटिक रूप से गिरावट को दर्शाते हुए. रणबीर कपूर ने अपने रोमांटिक नायक के रूप को त्याग कर कुछ अधिक जंगली, अधिक उन्मत्त रूप धारण किया. उसका पात्र, विजय, एक प्रेमी और एक राक्षस दोनों है. जो कोमलता और हत्याकांड के बीच झूलता है और अपने पिता (अनिल कपूर) के प्रति उसकी भक्ति एक रोगात्मक स्वीकृति की आवश्यकता में बदल जाती है. एनिमल वो पकड़ता है, वांगा की कहानी कहने की कच्ची शैली के साथ ये कि प्यार खासकर पुरुषों का प्यार. अक्सर हिंसा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है. इसके अराजक, टेस्टोस्टेरोन से भरे हुए संसार में, देखभाल शब्दों से नहीं, बल्कि रक्तपात के माध्यम से प्रदर्शित की जाती है और संवेदनशीलता एक कमजोरी है जिसे गुस्से में डुबो दिया जाना चाहिए.
ऐसा लगता है कि हिंदी फिल्मों में संदेश अब यह बदल गया है कि प्यार संघर्ष है और अब यह प्यार अधिकार है. जो पहले से ही एक समस्या भरे खाके का खतरनाक विकास है. लेकिन यहां भी, बॉलीवुड की प्रेम कहानियां धीरे-धीरे विकसित हो रही हैं. गली बॉय (2019) और गहरेइयां (2022) जैसी कई फिल्मों ने अब प्यार को आपसी सम्मान, संवेदनशीलता, और अंतरंगता के उन अनग्लैमरस पहलुओं में निहित किया है. भव्यता अब फीकी पड़ रही है और वो जगह ले रही है जहां ये स्वीकार किया जा रहा है कि प्यार न तो एक विजय है, न ही एक युद्ध जीतने की चीज. प्यार, एक बार, सांस लेने दिया जा रहा है.
ज़ोया अख्तर की गली बॉय में मुराद अहमद (रणवीर सिंह) और साफीना फिरदौसी (आलिया भट्ट) को अपने लोग बनने की जगह दी गई है. उनका प्यार समझ और साझा संघर्ष में निहित है. साफीना दृढ़ता से स्वतंत्र है. बिना खेद के महत्वाकांक्षी है और मुराद कभी भी उसे अपने जज्बे को कम करने की कोशिश नहीं करता. वो उसकी सराहना करता है. उनका रिश्ता व्यक्तिगत सपनों को आगे बढ़ाते हुए एक-दूसरे के साथ खड़ा होने के बारे में है. यहां तक कि ईर्ष्या या तनाव के क्षणों में भी, गली बॉय प्यार को युद्ध भूमि बनाने के प्रलोभन का विरोध करता है. साफीना अपने सीमाओं को स्थापित करती है. मुराद गलतियां करता है, लेकिन इसमें कोई हेरफेर नहीं है, न ही जुनून के रूप में अधिकारिता. इसके बजाय, प्यार ताकत का एक स्रोत है, एक ऐसी जगह जहां दोनों संवेदनशील हो सकते हैं बिना खुद को खोए.
शकुन बत्रा की गहरेइयां, दूसरी ओर, प्यार की गड़बड़ी, उसकी अनकही नाराजगी, और भावनात्मक बोझ को उजागर करती है. यं असहज सच्चाई को स्वीकार करती है कि प्यार अक्सर परिस्थितियों, अतीत के आघात और नैतिक अस्पष्टता से आकार लेता है. आलिशा (दीपिका पादुकोण) और जै़न (सिद्धांत चतुर्वेदी) के बीच का अफेयर जटिल, दोषपूर्ण, और गहरे मानवीय है.
आलिशा किसी को 'पूरा' करने या 'पूरित' होने की तलाश में नहीं है. वो पलायन चाहती है, एजेंसी, वो रास्ता जो उसे जकड़े हुए चक्रों से बाहर निकलने का मौका दे. फिल्म प्यार को एक दुर्लभ, बिना फिल्टर वाला रूप देती है, जो कभी मुक्तिदायक, कभी विनाशकारी, या दोनों हो सकता है.
हमारी जो प्रेम कहानियां पली बढ़ी हैं, उन्होंने हमें आकार दिया. उन्होंने हमें नाटक की तड़प को चाहने और ये विश्वास करने के लिए सिखाया कि बिना संघर्ष या बलिदान के प्यार प्यार नहीं होता, लेकिन जैसे-जैसे हिंदी सिनेमा विकसित हो रहा है, वैसे-वैसे हमारे प्यार को समझने का तरीका भी बदल रहा है. शायद हम आखिरकार यह सीख रहे हैं कि प्यार के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं होती. कभी-कभी, प्यार बस एक हाथ पकड़ना होता है, एक बातचीत बिना किसी संदर्भ के, एक स्नेह जो आकाश में नहीं चिल्लाने की आवश्यकता नहीं रखता न ही रेलवे स्टेशन पर न ही सरसों के खेतों में.
(ये स्टोरी कोमल गौतम द्वारा हिंदी में अनुवाद की गई है)