aap mp sanjay singh speaking in rajya sabha on waqf bill
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राज्यसभा में AAP के सांसद संजय सिंह ने विधेयक के खिलाफ पार्टी की अगुवाई की, और इसके विरोध में अन्य विपक्षी दलों के साथ एकजुट हुए। (फोटो- PTI)

वक्फ क़ानून पर सख़्त रुख़: आम आदमी पार्टी की रणनीति में बड़ा बदलाव

पिछले दशक में, केजरीवाल की पार्टी मुस्लिम मुद्दों पर अक्सर अपने भगवा प्रतिद्वंद्वी के साथ खड़ी दिखी। लेकिन इस बार उन्होंने एक स्पष्ट रुख अपनाया है।


पिछले हफ्ते संसद में केंद्र सरकार के विवादास्पद वक्फ (संशोधन) विधेयक के खिलाफ विपक्ष ने जो आक्रामक हमला बोला, उसमें एक आश्चर्यजनक भागीदार सामने आया, आम आदमी पार्टी (AAP)।

पिछले एक दशक में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) हो या तीन तलाक को अपराध घोषित करना, AAP कई बार भाजपा-नीत NDA सरकार के मुस्लिमों से जुड़े विधायी एजेंडे का समर्थन करती दिखी। लेकिन इस बार AAP ने संसद के दोनों सदनों में वक्फ संशोधन विधेयक के खिलाफ वोट डालते हुए स्पष्ट विरोध दर्ज किया।

रुख में स्पष्ट बदलाव

राज्यसभा में वरिष्ठ सांसद संजय सिंह ने विधेयक के खिलाफ मोर्चा संभाला और कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर इसे “असंवैधानिक” करार दिया। उनका तर्क था कि यह विधेयक अन्य धर्मों और उनके संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप की मिसाल कायम करेगा। लोकसभा में पंजाब के संगरूर से AAP सांसद गुरमीत सिंह मीत हेयर ने भी यही बात दोहराई।

7 अप्रैल को, ओखला से AAP विधायक अमानतुल्लाह खान ने भी इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वालों की सूची में अपना नाम जोड़ दिया। यह कानून अब राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू हो चुका है।

हालांकि पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल की ओर से अब तक इस कानून पर कोई सार्वजनिक बयान नहीं आया है, फिर भी पार्टी का यह रुख, जो सीधे तौर पर मुस्लिम समुदाय को प्रभावित करने वाले कानून के खिलाफ है, AAP की अब तक की रणनीति से बिल्कुल अलग है।

पिछले दस वर्षों में, जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद संभाला और AAP ने दिल्ली में सत्ता पाई, तब AAP अक्सर भाजपा के साथ ही खड़ी दिखाई दी – फिर चाहे वो CAA हो, तीन तलाक या अनुच्छेद 370 की समाप्ति।

AAP ने हिंदुत्ववादी ताक़तों द्वारा मुस्लिमों को निशाना बनाए जाने पर भी चुप्पी साधे रखी। 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के दौरान AAP की दिल्ली नेतृत्व पूरी तरह से नदारद रही और पार्टी की अपनी पार्षद ताहिर हुसैन, साथ ही उमर खालिद, शरजील इमाम, और शाहीन बाग के विरोधकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई पर भी मौन सहमति दी।

सॉफ्ट-हिंदुत्व की रणनीति

इस सबके बीच AAP का सॉफ्ट-हिंदुत्व का प्रदर्शन भी जारी रहा – कभी खुद को हनुमान भक्त बताना, कभी दीपावली पर अक्षरधाम मंदिर जाकर पूजा करना, और दिल्ली चुनाव से ठीक पहले हिंदू पुजारियों के लिए वित्तीय सहायता योजना की घोषणा करना।

ऐसे में AAP का वक्फ कानून पर मुखर विरोध उनके पुराने रुख से बिल्कुल अलग दिखता है। खास बात यह है कि ये बदलाव दिल्ली में चुनावी हार के एक महीने के भीतर आया है, जिससे यह सवाल उठता है — क्या यह हार ही भाजपा के खिलाफ मुखर होने का कारण बनी?

धारणा के खिलाफ लड़ाई

यह कानून खास तौर पर दिल्ली की सैकड़ों वक्फ संपत्तियों को प्रभावित करेगा, और वहां के 13% मुस्लिम मतदाताओं को भी। ऐसे में यह सवाल भी उठा कि क्या AAP अब मोदी की 'बी-टीम' कहे जाने से छुटकारा पाना चाहती है?

एक AAP अंदरूनी सूत्र ने The Federal से बातचीत में माना कि पार्टी को मुस्लिम मुद्दों पर स्पष्ट रुख न लेने की धारणा से नुकसान हुआ है। उनका कहना था, "इतने सालों से ये धारणा बनती जा रही थी कि AAP मुस्लिमों से जुड़े मसलों पर कोई स्पष्ट स्टैंड नहीं लेती, जो एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है।" उन्होंने यह भी जोड़ा कि वक्फ कानून पर मुखर विरोध केवल दिल्ली चुनाव नतीजों की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक संदेश देने का वक्त था — “हमेशा चुप्पी कोई जवाब नहीं हो सकती।”

मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़

पार्टी और राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि AAP का यह रुख केवल चुनावी हार से जुड़ा नहीं है। AAP ने भले ही 2020 के मुकाबले दिल्ली में सीटें खो दी हों (62 से घटकर 22 रह गईं), पर मुस्लिम बहुल सीटें अब भी उनके पास हैं – जैसे मटिया महल, बल्लीमारान, ओखला और सीलमपुर।

वोट शेयर जरूर 53.57% से घटकर 40.57% हो गया, लेकिन मुस्लिम सीटों पर AAP अब भी मजबूत रही। ऐसे में यह कहना कि मुस्लिम समुदाय पूरी तरह AAP से दूर हो गया, ग़लत होगा।

पत्रकार सबा नक़वी का कहना है कि AAP की वक्फ कानून पर आपत्ति को केवल मुस्लिम तुष्टीकरण के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। "यह धार्मिक स्वायत्तता और संविधान की भावना से जुड़ा सवाल है," उन्होंने कहा।

साथ ही पंजाब में AAP की सत्ता को देखते हुए, जहां सिख समुदाय बहुसंख्यक है, धार्मिक संस्थानों की स्वायत्तता की समझ और संवेदनशीलता AAP की रणनीति का हिस्सा बन गई है।

रणनीति में बदलाव क्यों?

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर सतीश झा मानते हैं कि AAP की रणनीति में बदलाव के पीछे दो कारण हैं – चुनावी झटका और राष्ट्रीय विस्तार की योजना।

उन्होंने कहा, "मुस्लिम बहुल इलाकों में CAA, तीन तलाक, राजनीतिक कैदियों और सॉफ्ट-हिंदुत्व को लेकर असंतोष था। वहां भले ही AAP सीटें जीती हो, लेकिन मिश्रित आबादी वाली जगहों पर मुस्लिम वोटों में गिरावट आई है।"

उन्होंने यह भी कहा कि पंजाब जैसे राज्यों में भी, जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, फिर भी अल्पसंख्यक समर्थक भावनाएं अहम होती हैं। यह AAP को धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता पर अपनी सोच बदलने के लिए मजबूर कर सकता है।

AAP के अंदरूनी सूत्रों ने यह भी कहा कि ओखला विधायक अमानतुल्लाह खान जैसे मुस्लिम नेताओं का दबाव भी पार्टी के इस बदलाव में भूमिका निभा रहा है।

क्या यह बदलाव स्थायी है?

अब सवाल यह है कि क्या यह AAP की रणनीति में स्थायी बदलाव है या सिर्फ अस्थायी रुख। फिलहाल इतना जरूर है कि वक्फ कानून पर खुलकर विरोध कर और मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की पैरवी करके AAP ने उस बहस में कदम रखा है जिससे वो अब तक दूरी बनाए हुए थी , भले ही केजरीवाल अब भी चुप हों।

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