
ममता के बाद अखिलेश का विपक्ष को झटका, PM-CM को हटाने वाले बिल पर JPC का बहिष्कार
विपक्षी दल तृणमूल कांग्रेस के बहिष्कार को लेकर पहले से तैयार थे, लेकिन समाजवादी पार्टी के कदम ने असमंजस पैदा कर दिया है। कई दलों का मानना है कि संसदीय समितियों में हुई बहस अदालत की सुनवाई और जनमत निर्माण में अहम साबित होती है।
मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और प्रधानमंत्री को 30 दिन की गिरफ्तारी की स्थिति में पद से हटाने से जुड़े विधेयकों और संवैधानिक संशोधन की जांच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को शनिवार को बड़ा झटका लगा। विपक्षी दल तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और समाजवादी पार्टी (सपा) ने इस समिति का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया।
टीएमसी का बहिष्कार पहले से तय माना जा रहा था, लेकिन सपा के फैसले ने विपक्षी खेमे में हलचल मचा दी है। अब कांग्रेस पर भी विपक्षी एकजुटता के नाम पर दबाव बढ़ गया है। कांग्रेस अभी तक जेपीसी में शामिल होने के पक्ष में दिखाई दे रही थी, मगर सपा के रुख ने पार्टी के भीतर असमंजस पैदा कर दिया है।
टीएमसी का रुख
टीएमसी सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने जेपीसी को खारिज करते हुए कहा, “मोदी गठबंधन एक असंवैधानिक बिल की जांच के लिए जेपीसी बना रहा है। यह पूरा नाटक है और हमें इसे नाटक ही कहना था। मुझे खुशी है कि हमने यह कदम उठाया।”
सपा का समर्थन और तर्क
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी टीएमसी का साथ देते हुए विधेयक की सोच को ही त्रुटिपूर्ण बताया। उन्होंने कहा, “जिसने यह बिल पेश किया (गृह मंत्री अमित शाह), उन्होंने खुद कई बार कहा है कि उन पर झूठे केस लगाए गए। अगर कोई भी किसी पर फर्जी केस डाल सकता है, तो इस बिल का मतलब ही क्या है?”
अखिलेश ने आगे कहा कि इसी तरह के फर्जी मामलों में सपा नेताओं जैसे आजम खान, रामाकांत यादव और इरफान सोलंकी को जेल भेजा गया। उन्होंने विधेयकों को भारत के संघीय ढांचे से टकराने वाला करार देते हुए कहा, “राज्यों के मुख्यमंत्री अपने यहां दर्ज आपराधिक मामले वापस ले सकते हैं। कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है, इस पर केंद्र का कोई नियंत्रण नहीं होगा। केंद्र सिर्फ उन्हीं मामलों में दखल दे सकता है जिन्हें सीबीआई, ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियां दर्ज करें।”
जेपीसी की विश्वसनीयता पर सवाल
डेरेक ओ’ब्रायन ने आगे जेपीसी की भूमिका पर भी सवाल उठाए। उनका कहना था कि पहले इसे जनहित और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक सशक्त तंत्र माना जाता था, लेकिन 2014 के बाद से यह काफी हद तक खोखली हो गई है।
उन्होंने कहा, “अब सरकारें इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने लगी हैं, विपक्ष के संशोधन खारिज कर दिए जाते हैं और बहस महज औपचारिकता बनकर रह जाती है।”
उन्होंने उदाहरण देते हुए कांग्रेस सरकार के दौर की जेपीसी, हर्षद मेहता घोटाला और बोफोर्स मामले का उल्लेख किया। ओ’ब्रायन ने यहां तक कहा कि बोफोर्स प्रकरण में तो कांग्रेस सांसद पर रिश्वत लेने का आरोप भी लगा था।
विपक्ष में असमंजस
टीएमसी के बहिष्कार की संभावना पहले से जताई जा रही थी, लेकिन सपा के कदम ने विपक्षी एकजुटता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। कई दलों का मानना है कि संसदीय समितियों में हुई बहस अदालत की सुनवाई और जनमत निर्माण में अहम साबित होती है। हालांकि, सपा के बहिष्कार से विपक्ष की सामूहिक आवाज कमजोर हुई है।