AMU Minority Status: नए सिरे से तय होगा दर्जा, केस तीन जजों की बेंच को सुपुर्द
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AMU Minority Status: नए सिरे से तय होगा दर्जा, केस तीन जजों की बेंच को सुपुर्द

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि एएमयू अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार है। लेकिन नए सिरे से मानदंड तय किये जाएंगे।


Aligarh Muslim University News: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार माना है। तीन जजों की नई बेंच अब एएमयू के अल्पसंख्यक दर्ज को तय करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने 4-3 के बहुमत से फैसला सुना दिया है। संवैधानिक पीठ की अध्यक्षता कर रहे चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि फैसला विभाजित है। चार जजों का निर्णय एक जैसा है जबकि तीन जजों की राय अलग अलग है।इस विषय पर चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जेडी परदीवाला और मनोज मिश्रा का फैसला एक समान है, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और सतीश चंद्र शर्मा का फैसला विभाजित था।

AMU को बड़ी राहत

  • फिलहाल अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा
  • सुप्रीम कोर्ट बहुमत से यह फैसला देने से इंकार किया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं
  • लेकिन अल्पसंख्यक दर्ज के लिए मानदंड किए
  • मामले को नियमित बेंच के पास भेजा गया
  • हालांकि अजीज बाशा मामले में 1967 के फैसले को खारिज किया
  • इसमें कहा गया था कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है
  • क्योंकि इसकी स्थापना मुसलमानों ने नहीं की है
  • अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिर्फ संस्थान की स्थापना ही नहीं बल्कि प्रशासन कौन कर रहा है
  • यह भी निर्णायक कारक है
  • इसी आधार पर नियमित बेंच करेगी सुनवाई


सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई में क्या कहा था
1 फरवरी को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के जटिल मुद्दे पर से जूझते हुए, शीर्ष अदालत(Supreme Court on Aligarh Muslim University) ने कहा कि एएमयू अधिनियम में 1981 का संशोधन, जिसने प्रभावी रूप से इसे अल्पसंख्यक दर्जा दिया, केवल "आधे-अधूरे मन से" किया गया और संस्थान को 1951 से पहले की स्थिति में बहाल नहीं किया। जबकि एएमयू अधिनियम, 1920 अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम विश्वविद्यालय को शामिल करने की बात करता है, 1951 का संशोधन विश्वविद्यालय में मुस्लिम छात्रों के लिए अनिवार्य धार्मिक शिक्षा को समाप्त करता है।

इस विवादास्पद प्रश्न ने बार-बार संसद की विधायी सूझबूझ और न्यायपालिका की उस संस्थान से जुड़े जटिल कानूनों की व्याख्या करने की क्षमता का परीक्षण किया है, जिसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व में प्रमुख मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में की गई थी। वर्षों बाद 1920 में, यह ब्रिटिश राज के तहत एक विश्वविद्यालय में तब्दील हो गया।न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दलीलें समाप्त करते हुए कहा, "एक बात जो हमें चिंतित कर रही है, वह यह है कि 1981 का संशोधन 1951 से पहले की स्थिति को बहाल नहीं करता है।

दूसरे शब्दों में, 1981 का संशोधन आधे-अधूरे मन से किया गया है।सीजेआई(CJI DY ChandraChud) ने कहा, "मैं समझ सकता हूं कि अगर 1981 के संशोधन में कहा गया होता... ठीक है, हम 1920 के मूल कानून पर वापस जा रहे हैं, इस (संस्था) को पूर्ण अल्पसंख्यक चरित्र प्रदान करते हैं।" इससे पहले, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और जोर देकर कहा था कि अदालत को 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले के अनुसार चलना चाहिए। संविधान पीठ ने तब माना था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता। शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसे यह देखने की जरूरत है कि 1981 के संशोधन ने क्या किया और क्या इसने संस्थान को 1951 से पहले का दर्जा वापस दिलाया।

विवाद कहां से शुरू हुआ
संस्था के लिए अल्पसंख्यक दर्जे के पक्ष में विचार रखने वालों में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल(Kapil Sibal) भी शामिल थे, जिन्होंने तर्क दिया कि 180 सदस्यीय गवर्निंग काउंसिल में से केवल 37 मुस्लिम होने से ही मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में इसकी साख कम नहीं हो जाती।सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जैसे अन्य लोगों ने तर्क दिया कि केंद्र से भारी मात्रा में धन प्राप्त करने वाला और राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित होने वाला विश्वविद्यालय किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से संबंधित होने का दावा नहीं कर सकता।

उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि एएमयू अधिनियम में 1951 के संशोधन के बाद जब मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज ने खुद को विश्वविद्यालय में बदल लिया और केंद्र सरकार से धन प्राप्त करना शुरू कर दिया, तो संस्थान ने अपना अल्पसंख्यक चरित्र त्याग दिया। एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का विरोध करने वाले एक वकील ने यहां तक दावा किया था कि 2019 से 2023 के बीच केंद्र सरकार से उसे 5,000 करोड़ रुपये से अधिक मिले, जो केंद्रीय विश्वविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय को मिले धन से लगभग दोगुना है।

1920 में विश्वविद्यालय की शक्ल
उनमें से कुछ ने तो यहां तक कहा था कि मुस्लिम समुदाय के प्रमुख लोगों ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से मुसलमानों के बीच शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस संस्थान को एक विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित करने के लिए पैरवी की थी, लेकिन वे खुद को अविभाजित भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं मानते थे और दो-राष्ट्र सिद्धांत की वकालत करते थे।सिब्बल ने उन पर जोरदार पलटवार करते हुए कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 30 जो धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने के अधिकार से संबंधित है, एएमयू पर भी लागू होता है।

विशेष रूप से, इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad HighCourt) ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को खारिज कर दिया था जिसके तहत विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था। उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एएमयू सहित शीर्ष अदालत में अपील दायर की गई थी।एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर विवाद पिछले कई दशकों से कानूनी पचड़े में फंसा हुआ है।

शीर्ष अदालत ने 12 फरवरी, 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया था। 1981 में भी इसी तरह का संदर्भ दिया गया था।केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपील दायर की, जिसमें एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन को रद्द कर दिया गया था। विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ एक अलग याचिका भी दायर की।भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा दायर अपील को वापस लेगी।इसने बाशा मामले में शीर्ष अदालत के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्तपोषित एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है।

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