नस्लवाद पर क़ानून क्यों नहीं? एंजेल चकमा की मौत ने उजागर की व्यवस्था की नाकामी
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नस्लवाद पर क़ानून क्यों नहीं? एंजेल चकमा की मौत ने उजागर की व्यवस्था की नाकामी

निडो तानियाम के बाद बनी बेजबरुआह समिति की सिफ़ारिशें आज भी अधूरी हैं। एंजेल चकमा की हत्या ने भारत में नस्लीय भेदभाव और क़ानूनी खालीपन को फिर उजागर कर दिया है।


Anti Racial Law: अरुणाचल प्रदेश के छात्र निडो तानियाम की हत्या के बाद 2014 में गठित बेजबरुआह समिति (Bezbaruah Committee) को एक दशक से अधिक समय बीत चुका है। लेकिन उत्तर-पूर्व भारत के छात्रों और समिति के एक सदस्य का कहना है कि इसकी प्रमुख सिफ़ारिशें या तो अब तक लागू नहीं की गई हैं, या फिर केवल राष्ट्रीय राजधानी तक सीमित रह गई हैं। इस बीच, देश के विभिन्न हिस्सों में नस्लीय हिंसा और रोज़मर्रा का भेदभाव लगातार जारी है।

यह मुद्दा एक बार फिर तब सुर्खियों में आया, जब त्रिपुरा के छात्र एंजेल चकमा (Anjel Chakma Killing) की उत्तराखंड के देहरादून में हत्या कर दी गई। आरोप है कि 9 दिसंबर को नस्लीय गालियों का विरोध करने पर अंजेल पर चाकू से हमला किया गया, और 26 दिसंबर को उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी मौत पर उत्तर-पूर्व के छात्र संगठनों और राजनीतिक नेताओं की तीखी प्रतिक्रियाएँ सामने आई हैं।

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने इस घटना को भयानक घृणा अपराध बताया और सार्वजनिक विमर्श में फैले नफ़रत के माहौल की आलोचना की। वहीं, कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने देश के अन्य हिस्सों में उत्तर-पूर्व के लोगों को झेलनी पड़ने वाली नस्लीय मानसिकता पर चिंता जताई।

मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड के. संगमा ने भी इस नस्लीय हिंसा की निंदा की। उन्होंने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर लिखा, उत्तर-पूर्व के लोग भी इस देश के हर नागरिक की तरह भारतीय हैं। नस्लवाद को कभी सामान्य नहीं किया जाना चाहिए और दोषियों को सज़ा मिलनी चाहिए। मिज़ोरम के मुख्यमंत्री लालदुहोमा ने भी कहा, भेदभाव और नस्लीय पूर्वाग्रह का हमारे संविधान में कोई स्थान नहीं है। न्याय सुनिश्चित करने के लिए क़ानून का राज कायम रहना चाहिए।”

क़ानूनी सुरक्षा में दरारें

एंजेल चकमा की मौत पर उपजे आक्रोश ने भारत में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ क़ानूनी सुरक्षा में मौजूद लंबे समय से चले आ रहे अंतराल को फिर उजागर कर दिया है। यूपीए सरकार द्वारा 2014 में गठित सांसद बेजबरुआह समिति ने या तो एक अलग एंटी-रेशियल’ क़ानून बनाने जो उसकी प्राथमिक सिफ़ारिश थी या फिर भारतीय दंड संहिता (IPC) में संशोधन कर नस्लीय भेदभाव को एक अलग अपराध के रूप में मान्यता देने की सिफ़ारिश की थी।

समिति ने यह भी प्रस्ताव रखा था कि ऐसे अपराधों को संज्ञेय और गैर-जमानती बनाया जाए, 60 दिनों के भीतर विशेष पुलिस इकाइयों द्वारा जांच हो, 90 दिनों के भीतर मुक़दमे का निपटारा हो, और विशेषकर उत्तर-पूर्व की महिलाओं व बच्चों के खिलाफ हिंसा के मामलों में फ़ास्ट-ट्रैक या नामित अदालतों में सुनवाई की जाए।

क़ानूनी सुधारों के अलावा, समिति ने विशेष पुलिस इकाइयों, नामित/फ़ास्ट-ट्रैक अदालतों, समर्पित हेल्पलाइनों, सुरक्षित और पर्याप्त छात्रावास सुविधा, पाठ्यक्रम और शिक्षकों के संवेदनशीलकरण, तथा देशव्यापी जागरूकता व प्रशिक्षण कार्यक्रमों की भी सिफ़ारिश की थी।

जब भाजपा सत्ता में आई, तब अक्टूबर 2014 में तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने आश्वासन दिया था कि सरकार बेजबरुआह समिति की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन लगभग एक दशक बाद भी, इन उपायों का अधिकांश हिस्सा या तो लागू नहीं हुआ है या फिर दिल्ली तक सीमित है।

जब नस्लवाद रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाए

मणिपुर स्टूडेंट्स एसोसिएशन दिल्ली की अध्यक्ष और दिल्ली विश्वविद्यालय की परास्नातक छात्रा लानचेनबी उरुंगपुरेल का कहना है कि नस्लीय गालियाँ और रूढ़िवादी सोच आज भी आम ज़िंदगी का हिस्सा हैं। “मैं चार साल से दिल्ली में हूं। ‘चिंकी’ कहना, सबका हमें चिंकी बुलाना, अब सामान्य बात हो गई है। इसके अलावा इंडिया गेट या चिड़ियाघर जैसी जगहों पर लोग हमारे साथ सेल्फ़ी लेना चाहते हैं, क्योंकि हम अलग दिखते हैं। दिल्ली ज़ू में हमें विदेशी लाइन में खड़ा होने को कहा गया है। लोग पूछते हैं कि हम थाईलैंड या वियतनाम से हैं या नहीं। उन्होंने दिल्ली पुलिस की ‘स्पेशल पुलिस यूनिट फॉर नॉर्थ ईस्टर्न रीजन’ (SPUNER) की मौजूदगी को स्वीकार करते हुए कहा कि उसकी पहुंच सीमित है।

“वे मददगार हैं और शिकायत करने पर कार्रवाई भी करते हैं। लेकिन ऐसी विशेष इकाइयाँ सिर्फ़ दिल्ली में नहीं होनी चाहिए। नोएडा, गुरुग्राम, उत्तराखंड और यूपी में भी बड़ी संख्या में उत्तर-पूर्व के छात्र हैं। हमें बेहतर सुरक्षा और लक्षित क़ानूनों की ज़रूरत है, क्योंकि उत्तर-पूर्व के सभी लोग एसटी या एससी श्रेणी में नहीं आते, उन्होंने कहा।

कम ही सही लेकिन लगातार भेदभाव

दिल्ली में ऑल असम स्टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़ीं और नेशनल म्यूज़ियम इंस्टिट्यूट में पढ़ रहीं कृष्णाली पाठक ने उस भेदभाव की बात की, जो अक्सर सूक्ष्म होता है लेकिन लगातार बना रहता है। लोगों में उत्तर-पूर्व के लोगों को एक ही तरह की पहचान में बाँध देने की प्रवृत्ति है। सांस्कृतिक रूढ़ियाँ हैं—जैसे उत्तर-पूर्व को सिर्फ़ मोमो से जोड़ देना, मानो हम बस वही खाते हों,” उन्होंने कहा।

उन्होंने SPUNER की तत्परता की सराहना करते हुए कहा कि वह “हमारे लिए रीढ़ की तरह” रहा है, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि इसकी कवरेज असमान है। पैट्रोलिंग वैन ज़्यादातर दक्षिण दिल्ली में सक्रिय रहती है। उत्तर दिल्ली के लिए हम लंबे समय से मांग कर रहे हैं, उन्होंने कहा।

जानकारी की कमी और संस्थागत अनदेखी

मेघालय स्टूडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन दिल्ली की अध्यक्ष और दूसरे वर्ष की क़ानून छात्रा एंथिया जाना के अनुसार, भेदभाव की जड़ें गहरी संस्थागत अज्ञानता में हैं। मुख्यधारा के लोग उत्तर-पूर्व को भारत का हिस्सा मानने में ही अज्ञानी हैं। वे हमें बाहरी समझते हैं, चाहे हम हिंदी बोलें, वही विषय पढ़ें। इतिहास की किताबों में उत्तर-पूर्व के बारे में कुछ भी नहीं है यहां तक कि उत्तर-पूर्व में पढ़ने वाले छात्रों के लिए भी नहीं, उन्होंने कहा।

दिलचस्प बात यह है कि बेजबरुआह समिति ने स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में बदलाव कर “पूरे शिक्षा तंत्र में उत्तर-पूर्व की भावना शामिल करने” और शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम को इस तरह तैयार करने की सिफ़ारिश की थी कि प्रशिक्षुओं को उत्तर-पूर्व के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके।

समाधानों पर बोलते हुए जाना ने कहा कि प्रतीकात्मक कदम काफ़ी नहीं हैं। इन मामलों से निपटने के लिए अलग संस्थाएँ होनी चाहिएं। जैसे महिलाओं या अल्पसंख्यकों के लिए वैधानिक निकाय हैं। हमें भी ऐसा कुछ चाहिए, जहाँ लोगों को प्रतिनिधित्व और सुरक्षा का एहसास हो,” उन्होंने कहा।

सुरक्षित आवास की ज़रूरत

बेजबरुआह समिति की एक और अहम सिफ़ारिश उत्तर-पूर्व के छात्रों के लिए छात्रावास सुविधा, विशेषकर जेएनयू के बराक हॉस्टल में भी अधूरी पड़ी है। नॉर्थ-ईस्ट स्टूडेंट्स फ़ोरम-जेएनयू के संयोजक जॉर्ज चकमा ने कहा, “समिति ने कई उपाय सुझाए थे और उसमें आवास एक बड़ी समस्या के रूप में चिन्हित किया गया था। उत्तर-पूर्व से पढ़ाई के लिए आने वाले छात्रों के लिए सुरक्षित आवास ढूंढना हमेशा से चुनौती रहा है, नस्लीय माहौल के कारण। अंजेल भी विश्वविद्यालय से बाहर रह रहे थे—यह अपने आप में बहुत कुछ कहता है।

उन्होंने बताया कि बेजबरुआह समिति की सिफ़ारिशों के बाद उत्तर-पूर्व क्षेत्र विकास मंत्रालय (DoNER) ने जेएनयू प्रशासन को धन उपलब्ध कराया था और एक समझौता हुआ था, जिसके तहत बराक हॉस्टल की 75 प्रतिशत सीटें उत्तर-पूर्व के छात्रों के लिए आरक्षित होनी थीं।

हॉस्टल उसी फंड से बना, लेकिन उद्घाटन के समय उस शर्त को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया और यह सामान्य हॉस्टल बन गया, उन्होंने कहा। चकमा के अनुसार, अब हॉस्टल में उत्तर-पूर्व के छात्र 10 प्रतिशत से भी कम हैं।

“मुझे लगता है कुछ भी नहीं बदला। सरकार ने कुछ नहीं किया। यह एक संरचनात्मक समस्या है, जिसके लिए संस्थागत जवाब चाहिए। सिर्फ़ लोगों से अच्छा व्यवहार करने को कहना काफ़ी नहीं है,” उन्होंने कहा।

सिफ़ारिशों पर आंशिक अमल

बेजबरुआह समिति की सदस्य, वकील और नॉर्थ ईस्ट सपोर्ट सेंटर एंड हेल्पलाइन (NESCH) की महासचिव अलाना गोलमेई ने कहा कि ज़्यादातर सिफ़ारिशें आंशिक रूप से लागू हुई हैं और वे भी मुख्यतः राजधानी तक सीमित हैं। कुछ जागरूकता कार्यक्रम हुए हैं, लेकिन वे सिर्फ़ दिल्ली में केंद्रित हैं। समिति की सिफ़ारिशें सिर्फ़ दिल्ली के लिए नहीं थीं, पूरे देश के लिए थीं। दिल्ली के बाहर भी नस्लीय अपराध हो रहे हैं, लेकिन वहां न तो फॉलो-अप है, न संस्थागत सहयोग। दिल्ली में विशेष पुलिस इकाई और 1093 हेल्पलाइन है, लेकिन अन्य बड़े शहरों में ऐसा कुछ नहीं है,” उन्होंने कहा।

उन्होंने यह भी बताया कि दिल्ली पुलिस के लिए प्रशिक्षण हो रहा है, लेकिन सिफ़ारिशें केवल दिल्ली पुलिस तक सीमित नहीं थीं। अन्य पुलिस बलों को भी संवेदनशील बनाया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा, गोलमेई ने कहा।उनके अनुसार, आवास और शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़े अंतर बने हुए हैं, लेकिन सबसे अहम सिफ़ारिश को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। “हमने सबसे पहले एंटी-रेशियल क़ानून की मांग की थी। अगर वह नहीं, तो संशोधन। लेकिन वह भी नहीं हो रहा। कहा जा रहा है कि नया क़ानून भारतीय न्याय संहिता हमारी मांगों को कवर करता है, लेकिन ऐसा नहीं है। कुछ भी शामिल नहीं किया गया, कोई संशोधन नहीं।

सबसे ज़रूरी मांग

छात्रों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि क़ानूनी मान्यता का अभाव ही सबसे बड़ी विफलता और सबसे तात्कालिक मांग है। “हम हर शहर में यह नहीं मांग रहे… लेकिन कम से कम बड़े शहरों में हेल्पलाइन, पुलिस थानों में नोडल अधिकारी और नामित अभियोजक होने चाहिए। और यह सिर्फ़ उत्तर-पूर्व के लोगों के लिए नहीं है। देश में कहीं भी कोई नस्लीय भेदभाव का शिकार हो, तो क़ानून लागू होना चाहिए। जागरूकता ज़रूरी है, लेकिन सबसे बड़ी चीज़ क़ानून है,” गोलमेई ने कहा।

कोविड-19 महामारी के दौरान हुई नस्लीय घटनाओं का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, “अगर किसी पर थूक दिया जाए और ‘कोरोना’ कहा जाए, तो आप किस धारा के तहत मामला दर्ज करेंगे? कुछ भी नहीं है।”

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