
बस्तर की लड़ाई पार्ट 4: माओवादियों का आगे क्या है भविष्य?
बढ़ती चुनौतियों के बीच माओवादी अब क्या करेंगे? क्या वे गुमनामी में खो जाएंगे या सही समय का इंतजार करेंगे पलटवार के लिए? पांच भागों की श्रृंखला का यह चौथा भाग इसी पर केंद्रित है.
जब सुरक्षा बल मध्य भारत के जंगलों में माओवादियों के गढ़ पर लगातार हमले कर रहे हैं, उनके कई शीर्ष नेताओं, कमांडरों और हथियारबंद कैडरों को मार गिराया गया है, और कई आत्मसमर्पण कर चुके हैं — ऐसा लग रहा है कि माओवादी पूरी तरह पराजय की ओर बढ़ रहे हैं.
हालांकि, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इन्हें खत्म करने की समय सीमा 31 मार्च 2026 तय की है, लेकिन कई जानकार लोग और अधिकारी अत्यधिक आशावाद को लेकर सतर्कता बरतने की सलाह दे रहे हैं. एक सेवानिवृत्त महाराष्ट्र पुलिस अधिकारी, जिन्होंने जंगलों और शहरी क्षेत्रों दोनों में अनेक नक्सल विरोधी अभियानों में भाग लिया है, ने स्पष्ट रूप से कहा,
“यह सोचकर भ्रमित न हों कि माओवादी पूरी तरह मिट जाएंगे. दशकों के अनुभव से पता चलता है कि उनके पास जबरदस्त जिजीविषा और संकल्प है, चाहे जो हो जाए. जरूर, उन्होंने शायद ही कभी इतनी बड़ी हार झेली हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे जल्दी खत्म हो जाएंगे.”

फिर भी सतर्कता क्यों?
उन्होंने 1972 में मूल नक्सल नेता चारु मजूमदार की पुलिस हिरासत में मौत के बाद माओवादियों के फिर से उभरने को उदाहरण के रूप में पेश किया। उस समय माओवादियों के पास नेपाल से केरल तक फैले घने जंगल थे, जिसमें वे अपना प्रभाव बढ़ा सकते थे और जनता का विश्वास जीत सकते थे.
इसके अलावा, उस समय आंध्र प्रदेश से आने वाला एक अत्यधिक वैचारिक, समर्पित और बुद्धिमान नेतृत्व भी था. सरकार की मौजूदगी लगभग न के बराबर थी और पुलिस की ज्यादतियों ने माओवादियों को प्रचार का भरपूर अवसर दिया.

आज अलग हैं हालात
अब उनके पास छिपने के लिए सीमित स्थान ही बचे हैं, वह भी लगातार पुलिस छापों और निगरानी के खतरे के साथ।
वन अधिकार अधिनियम (FRA) और पेसा (PESA) जैसे कानूनों ने स्थानीय लोगों को अपने संसाधनों और प्रशासन का अधिकार दिया है, जिससे माओवादियों के “जल, जंगल, ज़मीन” के एजेंडे की धार कुंद हो गई है.
सुरक्षा बल अब उन इलाकों में भी पहुंच चुके हैं, जो कभी ‘नो-गो’ जोन कहलाते थे.
सरकारी योजनाएं अब पुलिस चौकियों के आस-पास बने विकास केंद्रों के माध्यम से स्थानीय लोगों तक पहुंच रही हैं. मोबाइल फोन और नेटवर्क कनेक्टिविटी ने जंगलों के अंदर बसे समुदायों को बाहरी दुनिया से जोड़ दिया है.
माओवादियों की नई चुनौती
अब असंतोष की आग को भड़काना पहले जितना आसान नहीं रहा है. हालांकि मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में माओवादियों के पास अब भी कुछ छिपने और पुनर्गठित होने के स्थान हैं. उनकी शहरी नेटवर्क भी सक्रिय है, जिसमें माओवादियों के अनुसार, करीब 500 कैडर मौजूद हैं. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है – नए भर्ती की कमी.

बस्तर और गढ़चिरौली में आत्मसमर्पण कर चुके दो शीर्ष माओवादियों ने बताया कि “स्थानीय समर्थन में भारी गिरावट आई है.” वे बताते हैं कि यह गिरावट सैन्य कार्रवाइयों पर अत्यधिक निर्भरता और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों की उपेक्षा के कारण हुई है.
स्थानीय युवाओं की भूमिका
अब स्थानीय आदिवासी युवाओं को सुरक्षा बलों में भर्ती किया जा रहा है, जो इलाके की भौगोलिक समझ के कारण बेहद उपयोगी साबित हो रहे हैं. आत्मसमर्पण कर चुके माओवादी भी हथियारों की छिपाई हुई जगहों और कैश स्टैश का खुलासा कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ पुलिस के खुफिया अधिकारी ने बताया कि सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बसवराजु और केंद्रीय समिति के सदस्य सुधाकर की मौतें इसी रणनीतिक बढ़त का परिणाम हैं.
नई सोच, नई उम्मीदें
टीवी, मोबाइल और बाहरी दुनिया से संपर्क ने जंगलों में बसे युवाओं को एक नई दुनिया दिखाई है, जिससे उनके सपनों को नया आकार मिला है. बिजापुर के एसपी जितेंद्र यादव कहते हैं, “पहले माओवादी युवाओं को मार्क्स, लेनिन और माओ के दर्शन से जोड़ते थे. अब ये युवा मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं.”
क्या वाकई खत्म हो जाएंगे माओवादी?
नरायणपुर की पुनर्वास कॉलोनियों में रह रहे कई आत्मसमर्पित माओवादी मानते हैं कि संगठन अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. गढचिरौली के एक वरिष्ठ माओवादी ने कहा, “वे पूरी तरह हार नहीं मानेंगे. वे मध्यप्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में नई जगह बना सकते हैं. ”
नेतृत्व संकट और रणनीतिक मोड़
बसवराजु की मौत के बाद, संगठन में नेतृत्व को लेकर संकट है. अनुमान है कि भूपति उर्फ मल्लोजुला वेणुगोपाल अगले महासचिव हो सकते हैं. उनकी पत्नी विमला सिदम उर्फ तारक्का भी इस साल आत्मसमर्पण कर चुकी हैं.
हाल में कर्रगुट्टा की पहाड़ियों में 21 दिनों के ऑपरेशन में 31 माओवादी मारे गए. इस अभियान में लगभग 10,000 सुरक्षाबलों ने हिस्सा लिया – यह इस संघर्ष का अब तक का सबसे बड़ा ऑपरेशन था.

क्या लड़ाई अब अंतिम चरण में है?
माओवादियों की केंद्रीय समिति (जहाँ पहले 40+ सदस्य होते थे) अब पुलिस के अनुसार 20 से कम सदस्यों की रह गई है। पोलित ब्यूरो में भी अब केवल 3 सदस्य बचे हैं. माना जा रहा है कि वे अब छोटे-छोटे समूहों में बंटकर पुराने तरीकों जैसे IED ब्लास्ट से हमले करेंगे. हाल ही में सुकमा ज़िले के जगरगुंडा बाज़ार में माओवादियों ने सब्ज़ी ख़रीदने आए तीन पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी, जो उनकी अभी बाकी ताकत को दर्शाता है.
गुप्त आश्रयों की योजना
2024 के एक आंतरिक दस्तावेज़ के अनुसार, माओवादी भारत में गुप्त ठिकानों की योजना बना रहे हैं जिसमें मणिपुर (5), नेपाल (22), बांग्लादेश (13), जम्मू-कश्मीर (2), पश्चिम बंगाल (40) शामिल है. वे अरुणाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर के अन्य दूरस्थ हिस्सों में भी नए आश्रय बनाना चाहते हैं.