बिहार की राजनीतिक हलचल अभी थमी नहीं, चुनाव आयोग की अब देशव्यापी SIR कवायद से उठने वाला है नया तूफ़ान
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लोकतंत्र की रक्षा के लिए एसोसिएशन (APDR) और अन्य संगठनों के सदस्य शनिवार को कोलकाता में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के खिलाफ रैली के दौरान नारे लगाते हुए। | पीटीआई फोटो

बिहार की राजनीतिक हलचल अभी थमी नहीं, चुनाव आयोग की अब देशव्यापी SIR कवायद से उठने वाला है नया तूफ़ान

यह SIR अभियान 51 करोड़ मतदाताओं को कवर करेगा और अगले वर्ष 7 फरवरी तक पूरा होगा; इससे पहले बिहार में हुई इसी प्रक्रिया के बाद अंतिम मतदाता संख्या घटकर 7.42 करोड़ रह गई थी


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बिहार में हाल ही में हुए SIR प्रयोग को लेकर उठे न्यायिक सवालों और राजनीतिक विवादों की गूंज अभी थमी भी नहीं थी कि चुनाव आयोग (EC) ने सोमवार (27 अक्टूबर) को अपने पहले चरण के देशव्यापी विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की रूपरेखा जारी कर दी।

इस पहले चरण में 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण किया जाएगा — जो भारत की कुल आबादी के लगभग एक-तिहाई हिस्से को कवर करेगा।

यह अभियान 4 नवंबर से शुरू होगा, जिसके पहले चरण में घर-घर जाकर गणना (house-to-house enumeration) की जाएगी और यह प्रक्रिया 7 फरवरी 2026 को “अंतिम मतदाता सूची के प्रकाशन” के साथ समाप्त होगी।

चुनाव आयोग का यह निर्णय सामान्य नहीं, बल्कि गंभीर राजनीतिक असर डालने वाला कदम माना जा रहा है।

किन राज्यों में होगा SIR

इस कवायद में शामिल राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, लक्षद्वीप, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश, साथ ही पुडुचेरी, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल हैं — ये सभी राज्य अगले वर्ष की पहली छमाही में विधानसभा चुनावों के लिए निर्धारित हैं।

मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कहा कि असम में होने वाले चुनावों के लिए SIR अलग से घोषित किया जाएगा, क्योंकि राज्य में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) की प्रक्रिया “लगभग पूरी हो चुकी है।”

राजनीतिक हलचल और आशंकाएं

यह तय है कि इतने बड़े पैमाने पर मतदाता सूची का पुनरीक्षण राजनीतिक भूचाल लाएगा। बिहार में हाल ही में संपन्न SIR, जिसने 30 सितंबर को समाप्त होकर मतदाता संख्या में उल्लेखनीय गिरावट दिखाई, सिर्फ ट्रेलर था।

आगामी देशव्यापी अभियान 51 करोड़ मतदाताओं को प्रभावित करेगा — और बिहार की तरह ही, यह राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बन सकता है।

तमिलनाडु से बंगाल तक राजनीतिक प्रतिक्रिया

तमिलनाडु में मुख्यमंत्री और DMK प्रमुख एम.के. स्टालिन ने अपने सहयोगियों के साथ बैठक की और 2 नवंबर को राज्य की सभी पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों की बैठक बुलाने का फैसला किया — ताकि चुनाव आयोग की इस पहल का सामूहिक विरोध करने की रणनीति तय की जा सके।

वहीं, उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी AIADMK ने इस कदम का स्वागत करते हुए इसे एक “गेम चेंजर” बताया।

पड़ोसी केरल में सत्तारूढ़ LDF और विपक्षी UDF गठबंधन दोनों ने चुनाव आयोग पर निशाना साधा। दोनों ने इसे “लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करने” की कोशिश बताया और निर्णय को “एकतरफा व अव्यवहारिक” करार दिया, जिसका उद्देश्य “नागरिकों को मतदान के अधिकार से वंचित करना” है।

पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने ऐलान किया कि वे राज्य में इस प्रक्रिया को “कभी लागू नहीं होने देंगे।” पार्टी नेताओं ने चेतावनी दी कि “वैध मतदाताओं को सूची से हटाने की कोशिश खूनखराबे में बदल सकती है।”

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विरोध

कांग्रेस पार्टी और INDIA गठबंधन के सहयोगियों ने भी बिहार SIR के विरोध में संसद के मानसून सत्र को ठप कर दिया था। अब उन्होंने चुनाव आयोग पर “देशभर में मतदाता अधिकार छीनने का अभियान” चलाने का आरोप लगाया है।

समाजवादी पार्टी के सूत्रों ने The Federal को बताया कि अखिलेश यादव जल्द ही उत्तर प्रदेश में SIR के खिलाफ सार्वजनिक बयान जारी करेंगे, क्योंकि उनका मानना है कि “जैसे बिहार में हुआ, वैसे ही यूपी में भी हमारे PDA परिवार — यानी पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक मतदाता — बड़े पैमाने पर सूची से बाहर कर दिए जाएंगे।”

चुनाव आयोग का ठंडा रवैया

बिहार SIR को लेकर उठे भारी विवादों और विरोध के बावजूद, चुनाव आयोग (EC) अब भी उतना ही अडिग और बेपरवाह दिखाई दे रहा है जितना उस समय था। सोमवार को आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) ज्ञानेश कुमार ने पत्रकारों के सभी सवालों को टाल दिया — खासकर वे सवाल जो यह जानना चाहते थे कि आयोग ने बिहार वाले प्रयोग से कोई सबक सीखा भी या नहीं।

इसके बजाय, कुमार ने बार-बार बिहार SIR को “महान सफलता” बताया और यह दावा किया कि यह प्रक्रिया “शून्य अपीलों” के साथ संपन्न हुई — यानी 30 सितंबर को प्रकाशित अंतिम मतदाता सूची के खिलाफ किसी मतदाता ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई।

लेकिन कुमार ने यह नहीं बताया कि अगर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाकर्ताओं और विपक्षी दलों ने इस प्रक्रिया को चुनौती न दी होती, तो बिहार की अंतिम मतदाता सूची कितनी “कटी-छँटी” और अधूरी रह जाती।

वास्तव में, जब बिहार SIR की प्रारंभिक मतदाता सूची आयोग ने जारी की थी, तो उसमें कुल 65 लाख मतदाता गायब थे — यानी राज्य के कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं में से।

सुप्रीम कोर्ट में जब इस पर कड़ी फटकार लगी और याचिकाकर्ताओं ने लगातार दबाव बनाया, तभी चुनाव आयोग को आधार कार्ड को मतदाता की वैधता साबित करने के एक सहायक दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा।

इसके बाद अंतिम सूची में कुछ मतदाताओं की पुनर्बहाली हुई, जिससे अंतिम आंकड़ा 7.42 करोड़ मतदाताओं तक पहुँचा — लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि क्या वास्तव में हटाए गए मतदाताओं को वापस जोड़ा गया या नहीं।

बिहार SIR ने हासिल क्या किया?

अब तक आयोग ने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि क्या बिहार SIR के ज़रिए विदेशी “अवैध प्रवासियों” — जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर “घुसपैठिए” कहते हैं — को पहचानने और मतदाता सूची से हटाने में सफलता मिली या नहीं।

सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पत्रकारों ने तीन बार इस विषय पर सवाल किए — कि बिहार में कितने “अवैध विदेशी मतदाता” पाए गए और क्या नई SIR का भी यही उद्देश्य होगा — तो CEC कुमार ने हर बार सवालों को नज़रअंदाज़ किया।

देशव्यापी SIR में कुछ बदलाव — पर बहुत मामूली

अपनी गलतियों को स्वीकार किए बिना ही, आयोग ने देशव्यापी SIR की प्रक्रिया में कुछ छोटे सुधार ज़रूर किए हैं। अब जो “संकेतात्मक (indicative) दस्तावेज़ों की सूची” जारी की गई है, उसमें आधार कार्ड को भी शुरुआत से शामिल किया गया है, हालांकि इसे अभी भी “एकल प्रमाण पत्र” के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा।

इसके अलावा, वे मतदाता जो 12 राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों में रहते हैं जहाँ यह नया SIR चलाया जाएगा, और जिनके माता-पिता या रिश्तेदार (यह नया जोड़ है) बिहार की नई मतदाता सूची में पंजीकृत हैं, वे अपने नामांकन के लिए “बिहार SIR की मतदाता सूची का अंश” प्रस्तुत कर सकते हैं।

'कट ऑफ' वर्ष में थोड़ी राहत

बिहार SIR में यह नियम था कि केवल वे मतदाता जो 2003 के SIR में पंजीकृत थे, उन्हें स्वतः 2025 की संशोधित सूची में पुनः शामिल किया जाएगा। जो मतदाता 2003 के बाद जुड़े थे, उन्हें फिर से अपने दस्तावेज़ प्रस्तुत करने पड़ते थे।

अब देशव्यापी SIR में यह अवधि बढ़ाकर 2002 से 2005 के बीच पंजीकृत मतदाताओं तक कर दी गई है।

इसके अलावा, बिहार में जहाँ 2003 के बाद जोड़े गए मतदाताओं को अपने या अपने माता-पिता का नाम मिलान के लिए देना पड़ता था, वहीं अब नए SIR में “रिश्तेदार का नाम” भी इस्तेमाल किया जा सकेगा।

इस तरह, 2002–2004 की सूची में दर्ज मतदाता या उनके रिश्तेदार आगामी पुनरीक्षण के दौरान अतिरिक्त दस्तावेज़ देने से मुक्त रहेंगे।

एक बड़ा बदलाव — राजनीतिक दलों की भूमिका

इस बार चुनाव आयोग ने एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है। अब प्रत्येक राजनीतिक दल का बूथ-स्तर एजेंट अपने क्षेत्र के मतदाताओं से भरकर लाए गए एन्यूमरेशन फॉर्म (EFs) को एकत्र कर सकेगा, प्रति दिन अधिकतम 50 फॉर्म प्रमाणित कर बूथ-लेवल ऑफिसर (BLO) को जमा कर सकेगा, ताकि उन्हें नई मतदाता सूची में शामिल किया जा सके।

इसके अलावा, आयोग ने कहा है कि “ग़ैरमौजूद/स्थानांतरित/मृत/डुप्लिकेट नामों की सूची” प्रत्येक राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट पर सार्वजनिक की जाएगी — ताकि गलत तरीके से हटाए गए मतदाता अपील दाखिल कर पुनर्बहाली की मांग कर सकें।

हालांकि, यह देखना बाकी है कि आयोग वास्तव में इन दिशा-निर्देशों का कितना पालन करता है, क्योंकि बिहार SIR में भी इसी तरह के कई “सुरक्षा प्रावधान” थे, जिन्हें कभी सही ढंग से लागू नहीं किया गया।

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