रोज़ 12 घंटे के वर्क कल्चर की तरफ बढ़ा केंद्र, बिजनेसमैन कर रहे हैं 70-90 घंटे के वर्कवीक की वकालत
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भारतीय श्रम कानून कार्य को 8 घंटे प्रतिदिन और 48 घंटे प्रति सप्ताह तक सीमित करता है, लेकिन हाल के वर्षों में कई राज्यों ने कार्य अवधि को 8 से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया है। प्रतिनिधि फोटो: iStock

रोज़ 12 घंटे के वर्क कल्चर की तरफ बढ़ा केंद्र, बिजनेसमैन कर रहे हैं 70-90 घंटे के वर्कवीक की वकालत

हालांकि साप्ताहिक कार्य सीमा अभी भी 48 घंटे तय है, लेकिन नारायण मूर्ति जैसे बड़े उद्योगपतियों का दबाव इसे बढ़ाने की दिशा में रफ्तार पकड़ सकता है।


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केंद्र ने शुक्रवार (21 नवंबर) को घोषणा की कि लंबे समय से लंबित चार श्रम संहिता (लेबर कोड) तत्काल प्रभाव से लागू होंगी। इनमें शामिल हैं- वेज़ कोड, 2019, इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड, 2020, सोशल सिक्योरिटी कोड, 2020 और ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड, 2020।

ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड (2020) खासतौर पर चर्चा में है क्योंकि हाल ही में इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने चीन के ‘996’ मॉडल (सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक, हफ्ते में 6 दिन — यानी 72 घंटे) जैसा वर्क कल्चर अपनाने की वकालत की है, जिसे उन्होंने कई टीवी इंटरव्यू में दोहराया।

कोड में हालाँकि प्रति दिन 8 घंटे कार्य का ही उल्लेख है और “स्प्रेड ओवर” समय को बाद में अधिसूचित करने की बात कही गई है, लेकिन इसके ड्राफ्ट नियमों में यह “स्प्रेड ओवर” 12 घंटे तक हो सकता है।

अच्छी बात यह है कि साप्ताहिक 48 घंटे की सीमा अभी भी बरकरार है। लेकिन आगे बदलाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

70–90 घंटे वर्क वीक की मांग तेज

नारायण मूर्ति ने 2023 में उठाई गई अपनी 70 घंटे के वर्कवीक की वकालत को हाल के इंटरव्यू में और अधिक आक्रामक रूप से आगे रखा। कई उद्योगपतियों ने भी इसका समर्थन किया।

जनवरी में, एलएंडटी चेयरमैन एस.एन. सुब्रह्मण्यन का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वे 90 घंटे वर्क वीक का समर्थन कर रहे थे। अप्रैल में, आरपीजी ग्रुप के चेयरमैन हर्ष गोयनका ने मूर्ति और सुब्रह्मण्यन का समर्थन किया। इससे पहले JSW ग्रुप के सज्जन जिंदल और ओला के CEO भाविश अग्रवाल भी मूर्ति के समर्थन में आए थे।

2023 में जब कर्नाटक सरकार ने कार्य घंटे 12 घंटे तक बढ़ाने का कानून लाया, तो इसका श्रेय एप्पल और उसकी मैन्युफैक्चरिंग पार्टनर फॉक्सकॉन को दिया गया।

उद्योगपति नज़रअंदाज़ कर रहे श्रम अर्थशास्त्र

नारायण मूर्ति और अन्य उद्योगपतियों द्वारा प्रति सप्ताह 70–90 घंटे काम की मांग वही सोच दोहराती है, जिसका समर्थन चीन के अरबपति जैक मा (अलीबाबा संस्थापक) ने 2019 में किया था। उन्होंने ‘996’ को “एक आशीर्वाद” कहा था।

2021 में उनके प्रतिद्वंद्वी रिचर्ड लियू (JD.com) ने इसे अपनाने वालों को “अपने भाई” बताया था। लेकिन एक हालिया अध्ययन, जिसे चीन और ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटीज़ ने मिलकर किया—ने ‘996’ को “आधुनिक गुलामी” बताया। अध्ययन के अनुसार, जैक मा और लियू का समर्थन शोषणकारी श्रम प्रथाओं की निरंतरता को बढ़ावा देता है।

कई शोधों ने यह साबित किया है कि '996' मॉडल, जिसे चीन की सरकार और सर्वोच्च न्यायालय ने अगस्त 2021 में अवैध घोषित कर दिया था—कर्मचारियों को नुकसान पहुंचा रहा था, उत्पादकता घटा रहा था, नवाचार और प्रतिस्पर्धा को कमजोर कर रहा था और मजदूरी पर दबाव डाल रहा था।

यह आश्चर्यजनक नहीं है। दुनिया पिछले 100 से अधिक वर्षों से ओवरवर्क (अत्यधिक काम) को पहचानती है और उसके खिलाफ कानून बना चुकी है।

साल 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के पहले ही कन्वेंशन में फैक्टरियों के लिए 8 घंटे का कार्य-दिवस और 48 घंटे का साप्ताहिक कार्य मानक तय किया गया था।

इसे 1930 में ILO के 30वें कन्वेंशन में बढ़ाकर व्यापारिक और दफ्तरों के काम पर भी लागू किया गया।

भारत के थके-हारे कर्मचारी

21 नवंबर तक भारतीय श्रम कानून प्रतिदिन 8 घंटे और प्रति सप्ताह 48 घंटे काम की सीमा तय करता था। लेकिन हाल के वर्षों में कई राज्यों ने दैनिक कार्य समय 8 से बढ़ाकर 12 घंटे तक कर दिया है, हालांकि साप्ताहिक सीमा अब भी 48 घंटे ही है।

यह तब है जब ILO की 2022 से जारी रिपोर्टें लगातार कह रही हैं कि भारतीय कर्मचारी पहले से ही अत्यधिक काम और तनाव का शिकार हैं।

यह मुद्दा सितंबर 2024 में सबसे अधिक चर्चा में आया, जब सुर्खियाँ थीं-

“तनावग्रस्त और अधिक काम करने वाले: 51% भारतीय कर्मचारी सप्ताह में 49 घंटे से अधिक काम करते हैं”

“दुनिया के सबसे अधिक काम करने वाले देशों में भारत, 51% कर्मचारी 49+ घंटे काम करते हैं”

भारतीय कर्मचारी औसतन 46.7 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं, जबकि चीन की ‘996’ संस्कृति के बावजूद वहाँ का औसत 46.1 घंटे है।

लंबे कार्य घंटों का क्या अर्थ है?

ILO के 2024 के अध्ययन ने स्पष्ट कहा कि चीन में ‘996’ वर्क कल्चर की वजह कम वेतन और सुरक्षा व लाभों की कमी थी, जिसके चलते कर्मचारी अपनी “मूल जरूरतें पूरी करने” के लिए लंबे समय तक काम करने को मजबूर थे।

इसकी 2022 की रिपोर्ट में कहा गया, “विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं (जैसे भारत) में इतने लंबे कार्य घंटे मुख्य रूप से कम प्रति घंटा वेतन या अधिक कमाई करने की मजबूरी से प्रेरित होते हैं। कर्मचारी अक्सर अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए लंबा काम करते हैं।”

यहाँ लंबे कार्य घंटे का अर्थ है प्रतिदिन 8 घंटे से अधिक या प्रति सप्ताह 48 घंटे से अधिक काम।

केंद्र की पहल: दैनिक कार्य घंटे बढ़ाने की दिशा में

भारत में कार्य घंटे बढ़ाने की प्रक्रिया महामारी के बाद शुरू हुई। मई–जून 2020 तक कम से कम 12 राज्यों ने श्रमिकों की कमी और आर्थिक सुधार का हवाला देते हुए अस्थायी रूप से दैनिक और साप्ताहिक कार्य घंटों में वृद्धि की अधिसूचनाएँ जारी की थीं।

केंद्र सरकार ने महामारी के लॉकडाउन के दौरान ऑक्यूपेशनल सेफ़्टी, हेल्थ और वर्किंग कंडीशंस (OSH) कोड पारित किया और ड्राफ्ट नियम भी प्रकाशित किए, जिनमें 8 घंटे के कार्य-दिवस को बढ़ाकर 12 घंटे के “स्प्रेड-ओवर” की अनुमति दी गई थी, हालांकि साप्ताहिक कार्य-सीमा 48 घंटे ही रखी गई।

तेज़ विरोध के कारण केंद्र ने चारों कोड लागू नहीं किए, बल्कि राज्यों को अपने कानून बदलकर कार्य घंटे बढ़ाने के लिए राज़ी किया। कई राज्यों ने फैक्ट्री अधिनियम और दुकानों एवं वाणिज्यिक प्रतिष्ठान अधिनियम के तहत ऐसा किया—जैसे गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना (केवल दुकानों और प्रतिष्ठानों के लिए), आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान। दिल्ली में पहले से ही 9 घंटे का दैनिक कार्य-दिवस था और उसने अपना “स्प्रेड-ओवर” समय बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया। तमिलनाडु ने 2023 में ऐसा करने की कोशिश की थी लेकिन बाद में उसे वापस ले लिया।

दिलचस्प बात यह है कि सीआईटीयू के राष्ट्रीय सचिव केएन उमेश के अनुसार, किसी भी राज्य या नियोक्ता ने राज्य सरकारों द्वारा किए गए विधायी बदलावों को लागू नहीं किया है, क्योंकि उन्हें श्रमिकों के भारी विरोध का डर है।

अब, केंद्र के चार श्रम संहिताओं और नियमों की अधिसूचना के बाद सभी राज्यों को अपने कानून इनसे मेल खाने के लिए बदलने होंगे।

यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब देश का श्रमिक वर्ग भारी संकट से गुजर रहा है।

कम मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा की कमी

पीएलएफएस रिपोर्ट दिखाती है कि 90% कर्मचारी असंगठित और कम-तनख्वाह वाली नौकरियों में हैं। उलटा पलायन बढ़ने से कम-भुगतान वाली कृषि नौकरियों का हिस्सा 2023–24 में बढ़कर 46.1% हो गया और असुरक्षित स्वरोज़गार का हिस्सा 58.4% पहुंच गया। इसी दौरान 2023–24 के आर्थिक सर्वेक्षण ने कहा कि भारत की कंपनियां “अत्यधिक मुनाफे में तैर रही हैं।”

मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने इस पर “धीरे-धीरे बढ़ती असंगठनशीलता” और स्थिर/ठहरी हुई मजदूरी के लिए आलोचना की थी।

एएसआई (Annual Survey of Industries) 2023–24 बताता है कि संगठित विनिर्माण में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों का हिस्सा 27 साल के उच्चतम स्तर 42% पर पहुंच गया।

एएसयूएसई सर्वे बताते हैं कि गैर-पंजीकृत प्रतिष्ठानों में अनौपचारिक रूप से नियुक्त कर्मचारियों की संख्या 2021–22 के 88% से बढ़कर 2023–24 में 94% हो गई।

कॉरपोरेट टैक्स में कटौती और पीएलआई, डीएलआई और ईएलआई जैसी योजनाओं के बावजूद “नेट पे-रोल” रोजगार 2022–23 के 1.39 करोड़ से घटकर 2024–25 में 1.3 करोड़ रह गया।

एसबीआई रिसर्च बताता है कि वास्तविक वेतन वृद्धि (real wage growth) 2025–26 में लगभग शून्य के बराबर रह गई। 2019–2024 में यह नकारात्मक थी, 2024–25 में यह थोड़ा बढ़कर करीब 1% हुई।

लाखों भारतीय युवा अत्यंत कम-भुगतान वाले गिग वर्क में फंसे हुए हैं, जिसकी संख्या 2030 तक बढ़कर 2.35 करोड़ हो जाएगी। बढ़ती गरीबी की वजह से केंद्र और राज्य सरकारों को हर महीने 813.5 मिलियन (58%) भारतीयों को मुफ्त राशन देना पड़ रहा है।

16 राज्य महिलाओं को नकद सहायता दे रहे हैं। करीब 10 करोड़ किसानों को पीएम-किसान के तहत 6,000 रुपये मिलते हैं और 10 करोड़ से अधिक महिलाओं को सस्ती एलपीजी मिलती है।

गुणवत्ता वाली नौकरियाँ घट रही हैं

भारत की कंपनियों के ऐतिहासिक मुनाफों के बावजूद अच्छी नौकरियों में गिरावट हो रही है, मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा बेहद निचले स्तर से भी और नीचे जा रही हैं,

और अधिकांश भारतीय मुफ्त योजनाओं पर निर्भर होने को मजबूर हैं। इसी पृष्ठभूमि में भारत के बड़े उद्योगपति 70–90 घंटे प्रति सप्ताह काम करने की मांग कर रहे हैं।

अब, केंद्र के चार नए श्रम संहिताओं की अधिसूचना के बाद, कम-से-कम दैनिक कार्य समय तुरंत 12 घंटे तक बढ़ जाएगा—भले ही साप्ताहिक 48 घंटे की सीमा वैसी ही बनी रहे।

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