
द फेडरल के शो 'द पर्सपेक्टिव' में परिसीमन पर गहन बहस: दक्षिणी राज्यों की बढ़ती आशंका
दक्षिणी राज्यों में प्रतिनिधित्व खत्म होने के डर से परिसीमन पर बहस तेज, द फेडरल का 'द पर्सपेक्टिव' शो विशेषज्ञों, राजनेताओं को एक मंच पर लाता है.
द फेडरल के शो 'द पर्सपेक्टिव' में परिसीमन और इसके भारत की संघीय ढांचे पर प्रभाव को लेकर विशेषज्ञों ने गहन बहस की. इस बहस का मुख्य मुद्दा परिसीमन प्रक्रिया और इससे होने वाले संघीय संकट पर था, खासकर दक्षिण भारत में. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, केंद्र सरकार द्वारा परिसीमन कदम के विरोध में, दक्षिणी राज्यों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं और 22 मार्च को चेन्नई में एक संयुक्त कार्रवाई समिति (JAC) बैठक आयोजित करने का ऐलान किया है. इसमें इंडिया ब्लॉक के अन्य प्रमुख नेता और तीन अन्य मुख्यमंत्री भी शामिल होने की उम्मीद है.
दक्षिणी राज्यों का प्रतिरोध
यह एपिसोड DMK, AIADMK और विभिन्न राजनीतिक टिप्पणीकारों के प्रतिनिधियों को एक मंच पर लाया, जिन्होंने परिसीमन के संभावित प्रभावों पर विस्तृत चर्चा की. बहस का केंद्रीय बिंदु यह था कि अगर परिसीमन जनसंख्या के आधार पर किया जाता है तो तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व घट सकता है. जबकि उन राज्यों का जिनकी जनसंख्या ज्यादा है. जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार को लाभ मिल सकता है.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर असर
DMK के नेता धरनिधरण ने इस चिंता को व्यक्त किया कि वर्तमान में तमिलनाडु लोकसभा सीटों का 7.18% हिस्सा रखता है. लेकिन अगर परिसीमन जनसंख्या के आधार पर हुआ तो यह संख्या घटकर 5% और 2050 तक 3% तक हो सकती है. उन्होंने कहा कि दक्षिणी राज्य, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण उपायों को दशकों से लागू किया है, अब राजनीतिक दृष्टि से कमजोर हो सकते हैं.
संकट का इतिहास और कानूनी संदर्भ
द फेडरल के संपादक श्रीनिवासन ने इस बहस में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सामने रखा. उन्होंने कहा कि अगर जनगणना समय पर होती और परिसीमन पारंपरिक रूप से होता तो यह विवाद टाला जा सकता था. अब, जब 2026 का समय निकट आ रहा है और जनगणना भी नहीं हुई है, हम एक संघीय संकट के कगार पर खड़े हैं. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि दांव पर सिर्फ राजनीतिक अंकगणित नहीं है, बल्कि भारत के सहकारी संघवाद की अखंडता है.
शक्ति असंतुलन और उत्तर प्रदेश-बिहार का लाभ
42वें संशोधन के तहत परिसीमन को आपातकाल के दौरान स्थगित किया गया था और 2001 के 84वें संशोधन ने इसे 2026 तक बढ़ा दिया. जैसे-जैसे 2026 पास आ रहा है, दक्षिणी राज्यों में परिसीमन की चिंता बढ़ गई है, खासकर बिना किसी अद्यतन जनगणना के. धरनिधरण ने यह भी तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य, जिनकी प्रजनन दरें अधिक हैं, परिसीमन के तहत भारी लाभ प्राप्त करेंगे. इससे राजनीतिक शक्ति और अधिक हिंदी पट्टी में केंद्रीत हो जाएगी.
विपक्ष का रुख और विश्वास की कमी
AIADMK के प्रवक्ता कोवई सत्यन ने तमिलनाडु के संसद में हिस्से को बनाए रखने की आवश्यकता की बात की. लेकिन उन्होंने आरोप लगाया कि DMK इस मुद्दे को राजनीतिक रूप से भड़का रही है, बिना कोई ठोस समाधान पेश किए. AIADMK ने यह भी मांग की है कि तमिलनाडु का 7.18% हिस्सा बनाए रखा जाए, भले ही सीटों की संख्या बढ़ाई जाए. इसके साथ ही, उन्होंने तमिलनाडु और केंद्र के बीच विश्वास की कमी को भी उठाया, खासकर NEET और नदी जल विवादों के मामले में.
संविधानिक और कानूनी दृष्टिकोण
राजनीतिक टिप्पणीकार बद्री शेषाद्री ने संविधान के अनुच्छेद 82 का हवाला देते हुए कहा कि परिसीमन 2026 के बाद अनिवार्य है. जब तक कि संविधान में कोई संशोधन नहीं किया जाता. उन्होंने यह भी प्रस्तावित किया कि संवैधानिक रूप से 10वां परिसीमन आवश्यकता को हटा दिया जाए और संसद को परिसीमन का निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाए, ताकि संघीय मूल्यों को बनाए रखते हुए लचीलापन बने.
लोकतंत्र बनाम संघवाद
इस बहस में लोकतंत्र और संघवाद के बीच टकराव की चिंता को भी उठाया गया. धरनिधरण ने कहा कि "एक व्यक्ति, एक वोट" का सिद्धांत केवल एक समान समाज में काम करता है. लेकिन भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, अनुपातिक लोकतंत्र सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट राज्यों को हाशिए पर डाल सकता है. उन्होंने यह सुझाव दिया कि संसदीय सीटों की संख्या बढ़ाई जाए या फिर भविष्य में आम सहमति से परिसीमन पर स्थगन जारी रखा जाए, ताकि राज्य-वार प्रतिनिधित्व बनाए रखा जा सके.
आर्थिक असंतुलन और संघीय संरचना पर प्रभाव
यह बहस केवल राजनीतिक नहीं थी, बल्कि इसमें गहरे आर्थिक असंतुलन की भी चर्चा हुई. दक्षिणी राज्य संघीय पूल में अधिक योगदान करते हैं. लेकिन उन्हें कम लाभ मिलता है. इसके साथ ही, घटते हुए राजनीतिक प्रतिनिधित्व के कारण संघीय संरचना में केंद्रीकरण का खतरा बढ़ जाता है, जिससे राज्य अपनी शक्ति को कमजोर महसूस करते हैं.
संविधानिक नैतिकता और संघीय संतुलन
कुल मिलाकर, इस बहस ने यह स्पष्ट किया कि परिसीमन अब सिर्फ एक प्रशासनिक या जनसांख्यिकीय मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह भारत के संवैधानिक नैतिकता, राजनीतिक दृष्टिकोण और संघीय समानता के प्रति प्रतिबद्धता की असली परीक्षा बन चुका है.