अदालती फैसले पर अब सियासत भी, जानें- क्या है 50 फीसद आरक्षण का इतिहास
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अदालती फैसले पर अब सियासत भी, जानें- क्या है 50 फीसद आरक्षण का इतिहास

पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार के 65 फीसद आरक्षण के आदेश के रद्द कर दिया है. इस विषय पर सियासत भी हो रही है. लेकिन यहां पर हम 50 फीसद आरक्षण की सीमा को बताने की कोशिश करेंगे.


पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें आरक्षण की सीमा 50 फीसद से बढ़ाकर 65 फीसद की गई थी, नीतीश सरकार ने जातीय जनगणना के आंकड़ों के सामने आने के बाद यह फैसला किया था. हालांकि नोटिफिकेशन जारी होने के बाद इसके खिलाफ पटना हाईकोर्ट में याचिका लगाई गई. पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने 32 साल पुराने इंदिरा साहनी केस का हवाला देते हुए आरक्षण बढ़ाने के फैसले को खारिज कर दिया. इस मामले में कांग्रेस की तरफ से प्रतिक्रिया आई है कि यह संविधान में कहा लिखा है कि 50 फीसद से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. यहां पर हम आपको 50 फीसद आरक्षण और उसके ऊपर क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता है उसे बताने की कोशिश करेंगे.

कांग्रेस ने क्या कहा

पहले कांग्रेस के कद्दावर नेता जयराम रमेश ने क्या कहा उसे समझिए.पटना हाईकोर्ट द्वारा बिहार सरकार के अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में 65% आरक्षण को रद्द करने पर कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, "मेरे विचार से यह एक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय है। संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा 50% होनी चाहिए। हम मांग करते हैं कि बिहार सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करे और एनडीए को इसका समर्थन करना चाहिए..."

पटना हाईकोर्ट की क्या थी टिप्पणी

उच्च न्यायालय ने कहा था कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की परिकल्पना कुछ लोगों की पकड़ को तोड़ने और बहुतों की कीमत पर तथा उन्हें नुकसान ना पहुंचाने के लिए की गई थी. लेकिन योग्यता को पूरी तरह से मिटाया नहीं जा सकता और न ही उसे क्षतिपूर्ति की वेदी पर बलिदान किया जा सकता है. यही वह सिद्धांत था जिसके आधार पर आरक्षण के लिए 50% की सीमा निर्धारित की गई थी.
1992 में तय की गई सीमा
प्रशासन में दक्षता सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले में 50% की सीमा तय की थी. सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए 27% कोटा को बरकरार रखने वाले 6-3 बहुमत के फैसले ने दो महत्वपूर्ण मिसाल कायम की. सबसे पहले आरक्षण के लिए अर्हता प्राप्त करने का मानदंड सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन होगा और दूसरा ऊर्ध्वाधर कोटे के लिए 50% की सीमा को दोहराया.जो पहले के फैसलों (एमआर बालाजी बनाम मैसूर राज्य, 1963, और देवदासन बनाम भारत संघ, 1964) में निर्धारित किया था।.अदालत ने कहा कि 50% की सीमा असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर लागू होगी.
तब से लेकर अब तक कई मामलों में इंद्रा साहनी के फ़ैसले की पुष्टि की जा चुकी है. लेकिन बिहार और दूसरे राज्यों में 50% की सीमा को तोड़ने की कोशिशें भी जारी रहीं और उस कदम को राजनीतिक समर्थन मिला. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना और 50 फीसद से अधिक आरक्षण देने का वादा किया था।

अधिकतम सीमा को कानूनी चुनौती

50% की सीमा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा रही है.चुनौती के बावजूद सीमा का उल्लंघन करने वाले कानूनों को अदालतों ने खारिज कर दिया है. एकमात्र अपवाद 2019 में शुरू किया गया आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) के लिए 10 फीसद कोटा है. नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 3-2 के फैसले में EWS कोटा को बरकरार रखा जिसमें कहा गया कि 50 प्रतिशत की सीमा केवल SC/ST और OBC कोटे पर लागू होती है न कि किसी अलग कोटे पर जो पिछड़ेपन के ढांचे से बाहर संचालित होता है और वो पूरी तरह से अलग वर्ग है.इसके अलावा सीलिंग सीमा को हमेशा के लिए लचीला या अपरिवर्तनीय नहीं माना गया है. अब इस नजरिए से यह सवाल उठने लगा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इंद्रा साहनी मामले को फिर से खोल सकता है. दो न्यायाधीशों की अल्पमत राय में इस बात पर आम सहमति थी कि क्या 50 फीसद की सीमा का उल्लंघन करना जायज़ है क्योंकि यह मुद्दा न्यायालय के समक्ष लंबित है. उन्होंने एक चेतावनी देते हुए कहा कि 50 प्रतिशत नियम के उल्लंघन की अनुमति देना आगे के उल्लंघनों का प्रवेश द्वार बन सकता है और उसकी वजहब से जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है.

50% की सीमा के आलोचकों का तर्क है कि यह न्यायालय द्वारा खींची गई एक मनमानी रेखा है. भले ही विधायिका ने लगातार इसे पीछे धकेलने का प्रयास किया हो. दूसरी ओर, यह तर्क दिया जाता है कि 50% का उल्लंघन समानता के सिद्धांत के विपरीत होगा क्योंकि आरक्षण नियम का अपवाद है. संविधान सभा में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के भाषण को अक्सर चेतावनी के रूप में उद्धृत किया जाता है कि बिना योग्यता के आरक्षण “समानता के नियम को खत्म कर सकता है. एक नजरिया यह भी है कि आरक्षण समानता के मौलिक अधिकार की एक विशेषता है और संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है. NEET में 27 फीसद OBC कोटा को बरकरार रखते हुए 2022 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण योग्यता के साथ विरोधाभासी नहीं है.

अन्य राज्यों में आरक्षण

1994 में 76वें संविधान संशोधन ने 50 फीसद सीमा का उल्लंघन करने वाले तमिलनाडु आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल कर दिया. नौवीं अनुसूची संविधान के अनुच्छेद 31ए के तहत न्यायिक समीक्षा से कानून को सुरक्षा देती है. नौवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को संविधान के तहत संरक्षित किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने के कारण चुनौती नहीं दी जा सकती. मई 2021 में पांच न्यायाधीशों वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच ने सर्वसम्मति से मराठा समुदाय को आरक्षण प्रदान करने वाले महाराष्ट्र कानून को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि कोटा सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती. मराठा कोटा लागू होने से राज्य में आरक्षण 68% तक बढ़ सकता था.

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