
2025 में केंद्र–राज्य टकराव तेज, एनईपी और मनरेगा पर राज्यों का विरोध
गैर-भाजपा शासित राज्यों का आरोप है कि केंद्र शिक्षा से लेकर योजनाओं के फंड, परिसीमन (डिलिमिटेशन) और भाषा नीति तक—हर मोर्चे पर राज्यों की स्वायत्तता को कमजोर कर रहा है और सहकारी संघवाद को नुकसान पहुँचा रहा है।
साल की शुरुआत ही केंद्र–राज्य संबंधों को लेकर उथल-पुथल के साथ हुई थी। नई शिक्षा नीति (NEP) और परिसीमन जैसे मुद्दे प्रमुख टकराव बिंदु बने। साल का अंत भी उतना ही अशांत रहा, जब गैर-भाजपा शासित राज्यों ने केंद्र के उस कदम को खुली चुनौती दी, जिसमें मनरेगा की जगह VB-G RAM G बिल लाने की बात कही गई।
केंद्र के कथित “एकतरफा रवैये” के सबसे मुखर आलोचकों में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल शामिल रहे—ये ऐसे राज्य हैं जहाँ अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में सत्तारूढ़ दल—तमिलनाडु में डीएमके, पश्चिम बंगाल में टीएमसी और केरल में एलडीएफ—के लिए आगामी चुनावी मुकाबले बेहद अहम हैं।
परिसीमन और दक्षिणी राज्यों की प्रतिक्रिया
साल की शुरुआत तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन द्वारा परिसीमन और हिंदी थोपे जाने के आरोपों को लेकर केंद्र के खिलाफ मोर्चा खोलने से हुई। 5 मार्च को स्टालिन ने एक सर्वदलीय बैठक की अध्यक्षता की, जिसमें परिसीमन के मुद्दे पर सभी दक्षिण भारतीय राज्यों को एकजुट करने की दिशा में पहला कदम उठाते हुए संयुक्त कार्रवाई समिति (JAC) बनाने का फैसला किया गया।
स्टालिन ने 2026 में प्रस्तावित परिसीमन अभ्यास को लेकर चिंता जताई, जिसके तहत तमिलनाडु की लोकसभा सीटों की संख्या 39 से घटकर 31 होने का अनुमान है। इसके बाद 22 मार्च को चेन्नई में परिसीमन पर जेएसी की बैठक आयोजित की गई, जिसमें कई गैर-भाजपा दलों के मुख्यमंत्री और नेता शामिल हुए।
बैठक को संबोधित करते हुए स्टालिन ने ज़ोर दिया कि परिसीमन केवल मौजूदा जनसंख्या आँकड़ों के आधार पर नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे तमिलनाडु जैसे उन राज्यों को अनुचित रूप से दंडित किया जाएगा, जिन्होंने जनसंख्या वृद्धि को प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया है।
27 मार्च को तेलंगाना विधानसभा ने भी एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि लोकसभा सीटों के परिसीमन के लिए जनसंख्या ही एकमात्र पैमाना नहीं होना चाहिए।
दक्षिणी राज्यों पर परिसीमन की आशंका गहराने के बीच, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने राज्य की जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य से एक असामान्य कदम की घोषणा की। उन्होंने कहा कि केवल दो से अधिक बच्चों वाले लोग ही सरपंच, नगर पार्षद और मेयर जैसे पदों के लिए चुनाव लड़ने के पात्र होंगे। साथ ही राज्य सरकार परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने वाली नीतियाँ भी लाएगी।
नई शिक्षा नीति ने बढ़ाई खाई
पूरे साल के अधिकांश समय तक तमिलनाडु और केंद्र के बीच नई शिक्षा नीति (NEP) को लेकर तीखा टकराव बना रहा। डीएमके-नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने एनईपी को “पिछड़ा” करार देते हुए आरोप लगाया कि यह सामाजिक न्याय को कमजोर करती है और हिंदी थोपने की कोशिश करती है।
8 अगस्त को मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने नई शिक्षा नीति (NEP) और शिक्षा के लिए मिलने वाले केंद्रीय फंड को लेकर राज्य सरकार और केंद्र के बीच जारी तनातनी के बीच राज्य शिक्षा नीति (SEP) का अनावरण किया। केंद्र की एनईपी के स्पष्ट विकल्प के रूप में पेश की गई इस एसईपी की प्रमुख विशेषताओं में राज्य की दो-भाषा नीति को जारी रखना शामिल है, जिसमें एनईपी के तीन-भाषा फार्मूले को सिरे से खारिज किया गया है।
तमिलनाडु सरकार ने यह भी आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने एनईपी को लागू करने से इनकार करने के कारण समग्र शिक्षा योजना के तहत मिलने वाले 2,152 करोड़ रुपये रोक रखे हैं। राज्य सरकार लगातार तीन-भाषा फार्मूले जैसे प्रावधानों का विरोध करती रही है, जिसे वह हिंदी थोपने की परोक्ष कोशिश मानती है।
एनईपी को लेकर विवाद की गूंज भाजपा-शासित महाराष्ट्र में भी सुनाई दी, जहाँ इस मुद्दे ने लगभग दो दशक बाद अलग-थलग पड़े ठाकरे चचेरे भाइयों को एक साथ ला दिया। शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के अध्यक्ष राज ठाकरे ने प्राथमिक स्कूलों में तीन-भाषा नीति से जुड़े सरकारी आदेशों को वापस लेने के राज्य सरकार के फैसले का संयुक्त रूप से जश्न मनाने के लिए एक ही मंच साझा करने का निर्णय लिया।
केंद्र में भाजपा सरकार ने भाषा थोपने के आरोपों को खारिज करते हुए केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि एनईपी भाषाई विकल्प को बढ़ावा देती है और किसी भी भाषा को राज्यों पर थोपा नहीं जा रहा है।
VB-G RAM G बिल ने फिर बढ़ाया तनाव
साल के अंत में केंद्र द्वारा मनरेगा की जगह विकसित भारत – रोजगार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) गारंटी (VB-G RAM G) विधेयक, 2025 लाने का कदम केंद्र–राज्य संबंधों में टकराव का नया बिंदु बनकर उभरा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने नए पारित VB-G RAM G कानून के जरिए मनरेगा को खत्म करने का आरोप मोदी सरकार पर लगाया।
एक्स पर एक पोस्ट में उन्होंने कहा, “मोदी सरकार ने एक ही दिन में मनरेगा के बीस साल के काम को खत्म कर दिया। नियंत्रण दिल्ली में केंद्रित करके यह कानून राज्यों को कमजोर करता है और गांव स्तर की आजीविका को नुकसान पहुंचाता है।”
स्टालिन ने VB-G RAM G बिल का कड़ा विरोध करते हुए प्रधानमंत्री मोदी से इसे लागू न करने की अपील की। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में स्टालिन ने कहा कि मनरेगा की जगह लाने की कोशिश कर रहा यह विधेयक करोड़ों ग्रामीण गरीबों की आजीविका को खतरे में डाल देगा, खासकर तमिलनाडु जैसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों में, और इससे केंद्र–राज्य संबंधों पर भी दबाव पड़ेगा।
उन्होंने विधेयक से महात्मा गांधी का नाम हटाए जाने पर आपत्ति जताई और चेतावनी दी कि प्रस्तावित बदलाव मूल कानून की अधिकार-आधारित और मांग-प्रेरित प्रकृति को कमजोर कर देंगे। साथ ही, उन्होंने प्रस्तावित 60:40 के फंडिंग पैटर्न पर भी चिंता जताई और कहा कि इससे राज्यों पर भारी वित्तीय बोझ पड़ेगा।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि केंद्र का यह फैसला गांधीजी और गरीबों—दोनों के प्रति उसकी “नफरत” को दर्शाता है। उन्होंने इस योजना के वित्तीय बोझ को राज्यों के साथ साझा करने के केंद्र के फैसले पर भी कड़ी आपत्ति जताई।
केरल और बंगाल में तीखा विरोध
इस बीच, स्थानीय स्वशासन चुनावों में झटका लगने के कुछ ही दिनों बाद केरल के सत्तारूढ़ वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) ने आंदोलन का रास्ता अपनाने का फैसला किया। VB-G RAM G बिल उसके जनआंदोलन की रणनीति का केंद्रीय मुद्दा बनकर उभरा है। एलडीएफ ने राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई है, जिसमें मनरेगा श्रमिकों को संगठित करने पर विशेष ध्यान रहेगा, क्योंकि पार्टी उन्हें इस विधेयक से सबसे अधिक प्रभावित मानती है।
वाम दलों का तर्क है कि यह बिल मनरेगा के अधिकार-आधारित और मांग-आधारित स्वरूप से हटने का संकेत देता है और यह योजना को कमजोर करने के लिए बजट कटौती और केंद्रीकरण के जरिए केंद्र की लंबे समय से चली आ रही कोशिशों को दर्शाता है।
राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस की उपनेता सागरिका घोष ने इस नए कानून को मनरेगा का “विनाश” करार दिया और सरकार पर इसे “बुलडोजर राजनीति” के जरिए पारित कराने का आरोप लगाया।
VBSA बिल और स्वायत्तता पर बहस
संघीय विवाद का दायरा अब उच्च शिक्षा तक भी फैल गया है, जिसमें केरल केंद्र के प्रस्तावित नियामकीय बदलाव का प्रमुख आलोचक बनकर उभरा है। केरल ने विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान (VBSA) विधेयक, 2025 का विरोध किया है। राज्य का कहना है कि यह विधेयक उच्च शिक्षा से जुड़े संवैधानिक ढांचे में दखल देता है, जो समवर्ती सूची (Concurrent List) के अंतर्गत आता है।
राज्य की उच्च शिक्षा मंत्री आर. बिंदु ने कहा कि यह बिल राज्य द्वारा वित्तपोषित विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को कमजोर करता है, क्योंकि इसमें यूजीसी, एआईसीटीई और एनसीटीई जैसे मौजूदा नियामकों की जगह एक एकल छत्र निकाय बनाने का प्रस्ताव है। उनका आरोप है कि प्रस्तावित आयोग केंद्रीय सरकार की नीतियों और फैसलों के अनुरूप काम करेगा, जिससे नियमन, मान्यता और शैक्षणिक मानकों पर नियंत्रण प्रभावी रूप से केंद्र के हाथों में चला जाएगा।
मंत्री ने चेतावनी दी कि यह कानून केंद्र को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और सिलेबस में हस्तक्षेप की अनुमति देगा, जिसमें इंडियन नॉलेज सिस्टम्स को शामिल करना भी होगा—जिसका केरल विरोध करता रहा है। उन्होंने गैर-अनुपालन पर 10 लाख रुपये से 2 करोड़ रुपये तक के भारी जुर्माने के प्रावधानों पर भी चिंता जताई और कहा कि इनका इस्तेमाल संस्थानों को बंद कराने के लिए किया जा सकता है।
उधारी पर रोक और वित्तीय संघवाद
केंद्र–राज्य तनाव को और गहरा करने वाले एक और कदम के तहत, केंद्र सरकार ने केरल की उधारी (बॉरोइंग) सीमा में तेज़ कटौती कर दी है। जनवरी–मार्च तिमाही के लिए इस कटौती पर राज्य सरकार ने कड़ा ऐतराज़ जताया है और इसे वित्तीय संघवाद तथा केंद्र–राज्य के बीच सहयोगात्मक भावना के लिए गंभीर खतरा बताया है।
केरल के वित्त मंत्री के. एन. बालगोपाल ने इस कदम को “बड़ा झटका” करार देते हुए कहा कि इससे राज्य की आवश्यक दायित्वों को निभाने की क्षमता प्रभावित होती है और यह संघीय सिद्धांतों का उल्लंघन है। राज्य का तर्क है कि उसकी बाज़ार से उधारी पर बार-बार और पिछली तारीख से लगाई जा रही पाबंदियाँ लोकतांत्रिक शासन और जनता के कल्याण को सीधे प्रभावित करने वाले क्षेत्र में केंद्र का मनमाना हस्तक्षेप हैं।
वामपंथी नेतृत्व वाली केरल सरकार इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गई है। उसका कहना है कि केंद्र द्वारा “सार्वजनिक उधारी” की परिभाषा को लगातार विस्तृत करना और अनुच्छेद 293 के तहत सीमा तय करना राज्यों की संवैधानिक स्वायत्तता को कमजोर करता है। आलोचकों और पूर्व नीति-निर्माताओं का कहना है कि राज्यों के लिए उधारी नियमों को चुनिंदा तौर पर कड़ा करना, जबकि केंद्र सरकार पर ऐसी कोई समान पाबंदियाँ न हों, एक संरचनात्मक असमानता पैदा करता है, जो वित्तीय संघवाद को कमजोर करती है।
इसी तरह, मई में केंद्र ने पंजाब की खुले बाज़ार से उधारी की सीमा में भी भारी कटौती की। राज्य द्वारा मांगी गई राशि की तुलना में 16,676 करोड़ रुपये कम उधारी को मंज़ूरी दी गई। 47,076.40 करोड़ रुपये की मांग के मुकाबले यह कटौती आम आदमी पार्टी (आप) सरकार की तीखी आलोचना का कारण बनी। पंजाब के वित्त मंत्री हरपाल चीमा ने इसे कर्ज़ के बोझ से जूझ रहे राज्य का “वित्तीय गला घोंटना” बताया। उन्होंने कहा कि यह कटौती ऐसे समय में की गई, जब केंद्र पहले ही पंजाब के बकाया—जिसमें ग्रामीण विकास कोष (Rural Development Fund) भी शामिल है—घटा चुका था, और उन्होंने केंद्र पर राज्य के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया।
जैसे-जैसे भारत एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहा है जहाँ चुनावों की भरमार होगी, ये विवाद संकेत देते हैं कि संघवाद खुद एक प्रमुख राजनीतिक टकराव की रेखा बन सकता है, जो 2025 के बाद भी लंबे समय तक केंद्र–राज्य संबंधों को नए सिरे से आकार देगा।

