शेख हसीना प्रकरण: भारत समेत अन्य लोकतंत्र देशों के लिए एक सबक!
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शेख हसीना प्रकरण: भारत समेत अन्य लोकतंत्र देशों के लिए एक सबक!

बांग्लादेश में शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया. इसको किसी भी लोकतंत्र देश द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.


Bangladesh Crisis: किसी भी देश की चुनी हुई सरकार और मुखिया के लिए ऐसे हालात पैदा हो जाएं, जिससे कि उसको खुद का घर छोड़कर किसी अन्य जगह पर शरण लेना पड़े तो इससे दुखदायी बात नहीं हो सकती है. ऐसे ही कुछ हालात बांग्लादेश में बनें, जब शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया. इसको किसी भी लोकतंत्र द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. यहां कुछ ऐसे प्वाइंट दिए गए हैं, जो किसी भी देश की सरकार और राजनेता के लिए जरूरी हैं.

विपक्ष को न करें नजरअंदाज

साल 2009 में शुरू हुई हसीना की दूसरी पारी के दौरान बांग्लादेश नाम के लिए एक लोकतंत्र था. प्रमुख विपक्षी सदस्यों को अलग-अलग तरीकों से चुप करा दिया गया. साल 2018 में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की मुख्य विपक्षी नेता बेगम खालिदा जिया को 17 साल जेल की सजा सुनाई गई थी. साल 2014, 2018 और 2024 के पिछले तीन चुनावों में हसीना ने आसानी से जीत हासिल की थी, जिसमें कथित तौर पर धांधली हुई थी और विपक्ष ने 2024 के चुनाव का बहिष्कार किया था. नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस, जो अब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं, उन्होंने कहा था कि बांग्लादेश में कोई राजनीति नहीं बची है. केवल एक पार्टी है, जो सक्रिय है और हर चीज पर कब्जा करती है, सब कुछ करती है, अपने तरीके से चुनाव जीतती है. इसके बावजूद विपक्ष को चुप कराने से हसीना को सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने में मदद नहीं मिली. वास्तव में, असंतुष्ट आवाजों को चुप कराने से उनका जमीनी हकीकत से संपर्क टूट गया. वह अपने शासन के खिलाफ आक्रोश की गहराई का अंदाजा नहीं लगा सकीं और गलत कदम उठाती रहीं.

मीडिया पर दबाव

हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश ने साल 2014 के बाद अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) अधिनियम का बेरहमी से इस्तेमाल किया. ऐसी सामग्री के लिए मामले दर्ज किए, जो फर्जी और अश्लील, मानहानिकारक, भ्रष्ट करने वाली या कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा करने वाली, राज्य की छवि या धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुंचाने वाली मानी जाती थी. फिर 2018 में और भी अधिक दमनकारी डिजिटल सुरक्षा अधिनियम (डीएसए) आया और देश से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आखिरी निशान भी गायब हो गया.

आरक्षण

शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण इस समय भारत में एक गर्म विषय है. लेकिन कोटा के साथ राजनीति करने वाले राजनेताओं को बांग्लादेश की घटनाओं पर ध्यान देना चाहिए. साल 2018 में हसीना ने 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के वंशजों के लिए सरकारी नौकरियों में 30 फीसदी कोटा खत्म कर दिया. छात्र इसलिए नाराज़ थे. क्योंकि स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी पीढ़ी के वंशज भारी बेरोज़गारी के दौर में लाभ का दावा कर रहे थे. हालांकि, बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने 21 जुलाई को हाई कोर्ट के फ़ैसले को खारिज कर दिया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तब तक स्थिति हसीना के नियंत्रण से बाहर हो चुकी थी.

बेरोजगारी

हसीना ने बांग्लादेश की सबसे तेज़ जीडीपी वृद्धि की अध्यक्षता की थी. उनके अधीन, देश रेडीमेड कपड़ों का एक प्रमुख वैश्विक आपूर्तिकर्ता बन गया. लेकिन जब अर्थव्यवस्था में उछाल आया तो केवल कुछ प्रतिशत नागरिकों ने इसका लाभ उठाया. पिछले महीने, ढाका ट्रिब्यून ने चेतावनी दी थी कि जबकि कुल बेरोजगारी दर 5.1% थी, देश के युवाओं में बेरोजगारी 15.7% को छू गई थी. नौकरी के बाजार में प्रवेश करने वाले स्नातकों की बढ़ती संख्या और उनके कौशल और प्रमाणपत्रों के अनुकूल कोई अवसर नहीं मिलने के साथ चल रहे कोटा आंदोलन जैसे विरोध प्रदर्शन तेज हो गए.

वंचितों को हल्के में न लें

शेख हसीना के देश छोड़कर भागने तक बांग्लादेश आर्थिक रूप से विकसित हो चुका था. मॉल खुल चुके थे और कुछ लोग ढाका की गुलशन झील के किनारे 2.5 मिलियन डॉलर की लागत वाले 7,000 वर्ग फुट के अपार्टमेंट खरीदने में सक्षम थे. साल 2000 में 3,442 डॉलर-मिलियनेयर बैंक खातों की संख्या 2023 में 113,586 हो गई थी. लेकिन यह समृद्धि व्यापक नहीं थी. देश का समृद्ध और मध्यम वर्ग 10% के निशान की ओर बढ़ रहा था और उन्होंने राष्ट्रीय आय का लगभग 41% नियंत्रित किया. जबकि, सबसे गरीब 10% के पास केवल 1.31% था और यह साफ-सुथरे सरकारी आंकड़ों के अनुसार था.

प्रदर्शनकारियों पर लांछन

कुछ भारतीय राजनेताओं को अपने प्रतिद्वंद्वियों को शहरी नक्सली या आतंकवादी करार देने की आदत पड़ गई है. लेकिन हसीना का मामला असंयमित भाषा से बचने के महत्व को दर्शाता है. वहीं, जब छात्रों ने कोटा विरोध प्रदर्शन को समाप्त करने के उनके आह्वान पर ध्यान देने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने कहा कि वे ‘रजाकार’ हैं – 1971 में मुक्ति संग्राम के दौरान बांग्लादेश में पाकिस्तानी सेना का समर्थन करने वाले लोगों के लिए एक अपमानजनक शब्द. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में हसीना ने कहा था कि अगर स्वतंत्रता सेनानियों के पोते-पोतियों को [कोटा] का लाभ नहीं मिलता है तो किसे मिलेगा? रजाकारों के पोते-पोतियों को? उनके शब्दों ने केवल भड़की आग में घी डालने का काम किया.

अपने ही लोगों पर बंदूक

हसीना छात्र प्रदर्शनकारियों पर नकेल कसने में उग्र हो गईं और 4 अगस्त को करीब 100 लोग मारे गए थे, जो 1971 के बाद से देश में सबसे खराब एक दिवसीय नरसंहार था. ढाका से मिली रिपोर्टों का कहना है कि वह यह स्वीकार नहीं कर पा रही थीं कि उन्होंने लोकप्रिय समर्थन खो दिया है और वह अधिक बल के साथ अशांति को कम करना चाहती थीं. उन्होंने अपनी सेना, वायु सेना, नौसेना और पुलिस के प्रमुखों को बुलाया और उनसे पूछा कि जब प्रदर्शनकारी उनके वाहनों पर चढ़ गए तो उनके लोग क्यों खड़े थे. असंतुष्ट छात्रों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करके उन्होंने संभावित मेल-मिलाप के दरवाजे बंद कर दिए.

राजनीतिक वंशवाद

हसीना को अपने पिता शेख मुजीबुर रहमान की विरासत मिली थी, जो बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति थे, जिन्हें देश के संस्थापक पिता के रूप में भी चित्रित किया गया था. हालांकि, जब वह 5 अगस्त को भाग गई तो प्रदर्शनकारियों ने अपना गुस्सा उसके पिता की प्रतिमा पर निकाला, जो इस बात का स्पष्ट संकेत था कि देश के युवा अतीत से विराम चाहते हैं, चाहे वह नौकरी कोटा के रूप में हो या राजनीतिक निष्ठा के रूप में. यह संभावना नहीं है कि उनकी पार्टी, उनके परिवार को भूल जाइए, आने वाले वर्षों में देश चलाएगी.

खुद के प्रचार पर विश्वास न करें

जब हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश की वैश्विक छवि को धक्का लगा तो उन्होंने प्रचार का सहारा लिया. इस साल के आम चुनाव से पहले पश्चिमी विचारों को प्रभावित करने वाले राय निर्माताओं को अभियान का प्रभारी बनाया गया था. लेकिन इनमें से अधिकांश "लेखक" फर्जी थे. यह चुनावों से पहले अज्ञात अभिनेताओं द्वारा गलत सूचना के निरंतर अभियान का सबूत है, जिसका उद्देश्य प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार को लाभ पहुंचाना है. विदेशी मीडिया में हसीना और बांग्लादेश की प्रशंसा करने वाले तथाकथित "विशेषज्ञों" की "उनके लेखों के अलावा कोई ऑनलाइन उपस्थिति नहीं थी. उनमें से किसी की भी सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल नहीं है और किसी ने भी अकादमिक पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित नहीं किए हैं. जब बांग्लादेश हसीना की पकड़ से फिसल रहा था, तब भारत उनके साथ खड़ा था.ऐसा लग रहा था जैसे उसे इसकी कोई जानकारी नहीं है. 19 जुलाई को भी भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने दंगों को बांग्लादेश का “आंतरिक मामला” बताया. उन्होंने कहा कि वहां रहने वाले सभी भारतीय सुरक्षित हैं. जब हसीना 5 अगस्त को बांग्लादेश से भागीं तो भारत ने उन्हें भारत में आने दिया. लेकिन अब उन्हें शरण देने के बारे में यूके का रुख स्पष्ट नहीं होने के कारण, यह एक कूटनीतिक मुश्किल में फंस सकता है. क्योंकि एक नई सरकार, जो संभवतः चीन के प्रति पक्षपाती है, सत्ता संभालेगी.

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