अमेरिका की शर्तों से डरे विकासशील देश, इंडोनेशिया जैसे “जाल” में न फंस जाए भारत!
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अमेरिका की शर्तों से डरे विकासशील देश, इंडोनेशिया जैसे “जाल” में न फंस जाए भारत!

अब गेंद भारत के पाले में है— क्या मोदी सरकार वैश्विक दबाव के आगे झुकेगी या आत्मनिर्भर भारत की राह पर डटी रहेगी?


भारत को अमेरिका के साथ संभावित द्विपक्षीय व्यापार समझौते में उसी तरह के असंतुलित शर्तों का सामना करना पड़ सकता है, जैसा कि हाल ही में इंडोनेशिया के साथ हुआ है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वॉशिंगटन-जर्काता समझौते को ऐतिहासिक उपलब्धि बताया है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह डील इंडोनेशिया के लिए एकतरफा और नुकसानदायक हो सकती है।

भारत के लिए चिंता

डोनाल्ड ट्रंप की “America First” नीति के तहत इंडोनेशिया ने अमेरिकी वस्तुओं के लिए शून्य-शुल्क (Zero Tariff) की अनुमति दे दी है, जबकि अमेरिका ने इंडोनेशियाई वस्तुओं पर 19% टैक्स लगाया है। ट्रंप ने 22 जुलाई को Truth Social पर दावा किया — “इंडोनेशिया ने पहली बार अमेरिकी बाज़ार के लिए अपने दरवाज़े पूरी तरह खोल दिए हैं। हमारे व्यवसायों के लिए यह सुनहरा मौका है।”

अमेरिका ने इंडोनेशिया से कई अन्य बड़ी रियायतें भी ले ली हैं। जिनमें अमेरिका को क्रिटिकल मिनरल्स के निर्यात का गारंटीशुदा एक्सेस, Boeing विमानों, अमेरिकी कृषि उत्पादों और ऊर्जा सेक्टर में बड़े-बड़े खरीद सौदे शामिल हैं। WTO (विश्व व्यापार संगठन) के नियमों को मानने की बाध्यकारी शर्तें — जबकि अमेरिका खुद इन नियमों को नजरअंदाज करता रहा है।

WTO नियमों की ‘कड़वी गोली’

इंडोनेशिया ने IUU फिशिंग (अवैध, अनियंत्रित, और अनियमित मछली पकड़ने) के खिलाफ विवादित "Fish 1" समझौते को भी स्वीकार कर लिया — जबकि यह मुद्दा इंडोनेशिया के लिए बेहद संवेदनशील है। क्योंकि देश की बड़ी आबादी पारंपरिक मत्स्य व्यापार पर निर्भर है। इसके अलावा जकार्ता ने ई-ट्रांसमिशन पर कस्टम ड्यूटी हटाने वाले WTO के स्थायी स्थगन का समर्थन भी कर दिया है — जो कि पहले भारत और इंडोनेशिया एक साथ मिलकर विरोध करते थे।

भारत-इंडोनेशिया गठबंधन

G33 देशों के समूह में भारत और इंडोनेशिया लंबे समय से कंधे से कंधा मिलाकर खाद्य सुरक्, किसानों की रक्षा और ई-कॉमर्स पर शुल्क लगाने की मांग करते आए हैं। लेकिन इंडोनेशिया के यू-टर्न से यह गठबंधन अब संकट में है। यह कोई व्यापार समझौता नहीं है, बल्कि आर्थिक वर्चस्व की घोषणा है। अगर भारत इसी राह पर चलता है तो उसे राजस्व की भारी क्षति, नीतिगत बंधन और ग्लोबल साउथ के साथ दशकों की साझेदारी से हाथ धोना पड़ सकता है।

भारत के लिए खतरे की घंटी

इंडोनेशिया मॉडल को भारत-अमेरिका व्यापार समझौते के खाके के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और इसके संकेत पहले से मिलने लगे हैं।

अमेरिका की संभावित मांगें:-

* भारतीय औद्योगिक और कृषि उत्पादों पर शुल्क कटौती।

* आईटी सेक्टर के टैक्स ढांचे में बदलाव और VAT हटाना।

* WTO नियमों के पालन की बाध्यता, जबकि खुद अमेरिका नियम तोड़ता है।

* भारतीय दवाइयों, तकनीक और सेवाओं के बाज़ार को अमेरिका के लिए खोलना।

भारत पहले से झेल रहा अमेरिकी दबाव

* इस्पात और एल्युमिनियम पर 50% टैरिफ

* ऑटो पार्ट्स पर 25% टैरिफ

* दवाइयों और अन्य क्षेत्रों पर अतिरिक्त शुल्क लगने की आशंका

अब भारत के सामने दो ही रास्ते हैं, पहला आत्मसमर्पण करें। अमेरिकी दबाव के आगे झुककर ऐसा समझौता करें, जो ईस्ट इंडिया कंपनी पार्ट-2 जैसा लगे। या फिर मजबूती से खड़े रहें। शोषणकारी शर्तों को अस्वीकार कर आर्थिक संप्रभुता की रक्षा करें, भले ही समझौता टूट जाए। अगर भारत यह समझौता करता है तो यह एक "पॉइंट ऑफ नो रिटर्न" बन सकता है। राजस्व, नीति और वैश्विक साझेदारी — तीनों पर गहरी चोट पड़ सकती है।

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