
जस्टिस सुदर्शन रेड्डी: एक ऐसे न्यायाधीश जिन्होंने न्यायपालिका को राजनीति से दूर रखा
कानून के राज के प्रति प्रतिबद्ध, न्यायमूर्ति रेड्डी ने लोकतांत्रिक मूल्यों को भी मजबूती से कायम रखा और वे अपने ऐतिहासिक फैसलों, खासकर सलवा जुडूम के फैसले, के लिए जाने जाते हैं।
कई लोगों के लिए, INDIA गठबंधन द्वारा पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी को उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में नामित करना एक सराहनीय निर्णय प्रतीत होता है। हर दृष्टिकोण से, न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी इस संवैधानिक पद के लिए अत्यंत योग्य हैं। कानून के शासन के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाले एक न्यायाधीश के रूप में उन्होंने भारतीय लोकतांत्रिक ढांचे में संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए अपना जीवन समर्पित किया है।
भारतीय संविधान के स्तंभों में से न्यायपालिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। कुछ न्यायाधीशों ने अपनी अटूट ईमानदारी, विशिष्ट दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक सिद्धांतों में विश्वास के कारण इतिहास में अपनी छाप छोड़ी है और न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी निश्चित ही उनमें से एक हैं।
विधि शिक्षा की यात्रा
1948 में जन्मे न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी ने हैदराबाद में विधि शिक्षा प्राप्त की और लॉ कॉलेज से कानून की डिग्री ली। छात्र जीवन में ही उन्होंने विधिक व्यवस्था के प्रति गहरी प्रतिबद्धता, संवैधानिक मूल्यों की गहन समझ और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण प्रदर्शित किया।
1971 में उन्होंने अपने वकालत करियर की शुरुआत की और उच्च न्यायालयों व सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक मामलों पर पैरवी की। जनहित याचिकाओं और संवैधानिक मुद्दों पर उनके बेखौफ तर्कों ने उन्हें पहचान दिलाई। 1995 में उन्हें आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया और बाद में 2007 में वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने। उनके फैसलों में लगातार संविधान के प्रति सम्मान, जनता के अधिकारों की रक्षा और पारदर्शी शासन के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता झलकती रही।
उन्होंने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया और आम नागरिकों तक न्याय की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए कई पहलें शुरू कीं।
न्यायिक ईमानदारी
न्यायमूर्ति रेड्डी के करियर का सबसे उल्लेखनीय पहलू न्यायपालिका को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखने का उनका दृढ़ विश्वास है। उनके ऐतिहासिक फैसले आज भी विधि पेशेवरों के लिए मार्गदर्शक बने हुए हैं। राष्ट्रीय महत्व के मामलों में उनके निर्णयों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
आज के राजनीतिक रूप से अशांत माहौल में न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी जैसे व्यक्तित्व को नामित करना नैतिकता और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में खड़े होने का प्रतीक है। इंडिया गठबंधन का यह निर्णय न्यायिक ईमानदारी और संवैधानिक पदों की गरिमा के प्रति उनके सम्मान को दर्शाता है। न्यायमूर्ति रेड्डी को लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए भी सराहा जाना चाहिए। भारत के उपराष्ट्रपति पद पर उनकी उपस्थिति संविधान की गरिमा को बढ़ाएगी और नैतिक मूल्यों को कायम रखेगी। यह भूमिका न्याय के प्रति समर्पित जीवन को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
ऐतिहासिक सलवा जुडूम फैसला
विशेष चर्चा के योग्य है सलवा जुडूम मामले में उनका ऐतिहासिक फैसला, जो भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस निर्णय ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और संवैधानिक मूल्यों को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में, 5 जुलाई 2011 को, न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी ने न्यायमूर्ति एस.एस. निज्जर के साथ मिलकर एक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। (इस फैसले पर पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सकता है, जिसे लेखक ने अनुवाद करने का सौभाग्य पाया और मालुपु पब्लिकेशंस ने प्रकाशित किया)।
यह मामला छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासी युवाओं को माओवादियों से लड़ने के लिए *सलवा जुडूम* नाम से हथियारबंद करने से संबंधित था। सर्वोच्च न्यायालय इस पर विचार कर रहा था कि राज्य की यह प्रतिरोधी रणनीति—जिसमें विशेष पुलिस अधिकारी (SPOs) के रूप में आदिवासी युवाओं को नियुक्त कर उन्हें हथियार दिए गए थे—कानूनी और संवैधानिक है या नहीं।
निर्णय के मुख्य बिंदु:
सलवा जुडूम असंवैधानिक घोषित: अदालत ने कहा कि आदिवासी नागरिकों को हथियारबंद करना संविधान के खिलाफ है।
नागरिकों को हथियार देना अनैतिक और खतरनाक : अप्रशिक्षित ग्रामीणों को एसपीओ बनाकर हथियार देना अत्यंत अनैतिक और जोखिमपूर्ण है।
मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: यह नीति संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है।
तुरंत समाप्ति का आदेश: अदालत ने सलवा जुडूम गतिविधियों को तत्काल रोकने और नागरिकों को दिए गए हथियार वापस लेने का आदेश दिया।
सरकार की जिम्मेदारी: फैसले में स्पष्ट किया गया कि माओवादी समस्या का समाधान कानूनी और सुरक्षित तरीकों से होना चाहिए, न कि नागरिकों को लड़ाकों में बदलकर।
इस ऐतिहासिक फैसले के माध्यम से, जस्टिस सुदर्शन रेड्डी ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा को लेकर सरकार को एक स्पष्ट और सशक्त संदेश दिया। यह मानवाधिकारों और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह फैसला भारतीय न्यायिक इतिहास में “न्यायिक मानववाद” का एक चमकता हुआ उदाहरण बनकर खड़ा है।
अच्छे विचारों को अपनाना
हाल ही में प्रीएम्बल ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन नामक पुस्तक (जिसके लेखक इस लेख के लेखक ही हैं) से जुड़े एक सार्वजनिक संबोधन में जस्टिस सुदर्शन रेड्डी ने उन वरिष्ठ व्यक्तियों की आलोचना की जो यह तर्क देते हैं कि भारतीय संविधान वास्तव में भारत का नहीं है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जिस दिन संविधान सभा ने संविधान तैयार किया था, उसी दिन ऑर्गनाइज़र अखबार के संपादकीय में तिरंगा झंडे और संविधान को मानने से साफ इनकार कर दिया गया था। उन्होंने घोषित किया था कि वे न तो इसे स्वीकार करेंगे और न ही मानेंगे।
जस्टिस रेड्डी ने बौद्धिक बहस का हवाला देते हुए डॉ. बी.आर. आंबेडकर का उत्तर याद दिलाया, जिन्होंने गर्व से कहा था कि अगर भारत के संविधान ने दुनिया के विभिन्न स्रोतों से प्रेरणा ली है तो इसमें शर्म की कोई बात नहीं है। उन्होंने कहा था, “अच्छे विचारों को अपनाना बुद्धिमानी है, चाहे वे कहीं से भी आए हों।”
राज्यों का संघ
संविधान लागू होने से पहले, जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया था, जो प्रस्तावना (Preamble) का आधार बना। उन्होंने राज्यों को अधिक अधिकार देने और केवल आवश्यक शक्तियां केंद्र सरकार के पास रखने की परिकल्पना की थी। यह प्रस्ताव 31 अप्रैल 1946 को पेश किया गया था, जो विभाजन योजना से भी पहले था।
जस्टिस रेड्डी ने उन आलोचकों से सवाल किया जो नेहरू के योगदान को कमतर आंकते हैं—क्या वे उनकी उस गहराई को समझ भी सकते हैं जो उनकी प्रसिद्ध कृति डिस्कवरी ऑफ इंडिया में झलकती है? इस किताब में नेहरू ने उपनिषदों, हिमालय, गंगा, आर्य सभ्यता और मोहनजोदड़ो पर गहन चिंतन किया था। उन्होंने ऐसे लोगों को चुनौती दी जो विद्वान होने का दिखावा करते हैं, लेकिन नेहरू को अनुचित तरीके से दोष देते हैं।
गांधीजी की दूरदृष्टि
महात्मा गांधी का हवाला देते हुए जस्टिस रेड्डी ने कहा, “मैं अपनी सभी खिड़कियाँ खुली रखता हूँ ताकि जहाँ से भी नए विचार आएँ, वे अंदर आ सकें।”
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग आंबेडकर और गांधी के बीच कृत्रिम टकराव पैदा करने की कोशिश करते हैं और फिर ऐसी गलत व्याख्याओं से आनंद उठाते हैं।
लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों का प्रतीक
जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी न्यायिक नैतिकता, मानवाधिकार और संवैधानिक मर्यादा के प्रतीक माने जाते हैं। उपराष्ट्रपति पद के लिए उनका नामांकन भारत में लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों को संरक्षित रखने की व्यापक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
उनका न्यायिक करियर, खासकर सलवा जुडूम पर दिया गया फैसला, एक स्थायी विरासत है जो यह दर्शाता है कि लोकतांत्रिक समाज में कानून न्याय और करुणा का साधन कैसे बन सकता है।