
उत्तर भारत में मंडल की राजनीति वाम दलों पर पड़ी भारी, क्यों और कैसे
सड़कों पर अब लाल सलाम का नारा कम सुनाई देता है। उत्तर भारत के हिंदी राज्यों में बिहार- यूपी में वाम दल कभी ताकत हुआ करते थे। लेकिन अब वो ताकत छीड़ पड़ चुकी है।
CPM CPI Politics: देश की सियासत में कभी वामदलों की तूती बोलती थी। लेकिन अब वो आवाज कहीं खो गई है। वाम दलों के कार्यकर्ता सड़कों पर नजर तो आते हैं। लेकिन वो तेवर, वो बोल शायद लोगों को लुभा नहीं पा रहे। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा से लाल सलाम की गूंज ऐसे लगता है कि खामोश हो गई है। केरल ही मात्र एक ऐसा राज्य है जहां लाल सलाम की गूंज है। इन सबके बीच तमिलनाडु के मदुरै में सीपीएम की 24वीं कांग्रेस की बैठक हुई। उस बैठक में एमए बेबी को जनरल सेक्रेटरी बनाया गया। सभी कामरेड एक सुर में बोल पड़े कि उत्साह कम नहीं हुआ है। पूरे जोश खरोश के साथ मैदान पर उतरेंगे। यानी कि कैडर्स में संदेश देने की कवायद है कि हिम्मत और हौसला बनाए रखो।
बिहार में 25 साल बाद वाम दलों ने लोकसभा की दो सीटें आरा और काराकाट जीती। महागठबंधन की माले ने दोनों सीटों पर जीत दर्ज की थी।
बिहार में वाम दलों का वोट प्रतिशत तीन से चार फीसद ही रहा है। लेकिन आम चुनाव 2024 में वोट प्रतिशत में भी कुछ बढ़ोतरी हुई।
उत्तर भारत में वाम दल क्यों कमजोर हुए
यहां हम बात करेंगे कि उत्तर भारत के राज्यों में वाम दल कमजोर क्यों हुए। इसके साथ यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि अगर दिल्ली और पंजाब में आप की मौजूदगी, यूपी में समाजवादी पार्टी की मौजूदगी, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, पश्चिम बंगाल में टीएमसी की सरकार यानी कि इन दलों की मौजूदगी या सरकार सिर्फ एक जगह है वैसी सूरत में इनके अस्तित्व पर संकट की बात कम कही जाती है तो केरल में वामदलों की सरकार होने के बाद भी अस्तित्व पर संकट की बात क्यों कही जा रही है।द फेडरल देश से खास बातचीत में राजनीतिक विश्लेषक अरुण पांडे ने बिहार में वाम दलों की राजनीति पर बड़ी बात कही। वाम दलों की राजनीति पर ग्रहण को समझने के लिए आपको 1990 के दौर में चलना होगा। उस समय देश की सियासत में मंडल की राजनीति ने जोड़ पकड़ी। पहले गरीब, शोषित और वंचित को एक वर्ग के तौर पर देखा जाता था। लेकिन बिहार में लालू प्रसाद के उभार ने उस वर्ग को जाति में बदल दिया। अब गरीब वर्ग नहीं बल्कि जातियों में विभक्त हो गए और उसका असर वाम दलों पर नजर आने लगा। इसके साथ ही लालू प्रसाद यादव ने बताना शुरू किया जो लोग गरीबों की बात करते हैं वो लोग कौन हैं।
वहीं इस विषय पर द फेडरल देश से खास बातचीत में यूपी के मशहूर राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान ने कहा कि बिहार के ही संदर्भ में आप यूपी को समझ सकते हैं। यूपी में वामदलों का जोर बहुत हद तक पूर्वांचल के इलाकों में रहा है। मंडल कमीशन की राजनीति ने पिछड़े नेताओं को उभार दिया। लोग भी गरीबी को वर्ग की जगह जाति के संदर्भ में देखने लगे। उसका असर यह हुआ कि वाम दल अप्रसांगिक होते गए।
शरत प्रधान से द फेडरल देश का अगला सवाल यह था कि देश में कई ऐसे दल हैं जिनकी पहचान राज्य तक सीमित है और हम उनके अस्तित्व को लेकर उस तरह से बात नहीं करते है। ऐसे में वाम दलों पर संकट की बात कहना कहां तक उचित है। इस सवाल के जवाब में शरत प्रधान कहते हैं कि आप बिहार में आरजेड, यूपी में समाजवादी पार्टी, बंगाल में टीएमसी, आंध्र प्रदेश में टीडीपी और दिल्ली-पंजाब में आम आदमी पार्टी को देखें तो पाएंगे कि इनका जन्म और उभार कब हुआ। इन सभी दलों का उदय तब हुआ जब भारत की सियासत करीब पांच से सात दशक पूरी कर चुकी थी। इनका उदय स्वतंत्र भारत में हुआ। लेकिन वाम दल जब अस्तित्व में आए तो उनकी लड़ाई ना सिर्फ ब्रिटिश बल्कि कांग्रेस के विचारों से थी। यानी वाम दलों के साथ विचारधार का समृद्ध आधार था। मौजूदा समय में ऐसा नहीं है कि वो विचाराधारा शून्य हैं। दरअसल उनकी जमीन को कुछ दलों ने हथिया लिया।
राजनीतिक तौर उत्तर भारत के दोनों सूबे उत्तर प्रदेश और बिहार संवेदनशील है। 1947 में देश को जब आजादी मिली तो सत्ता में कांग्रेस आई। लेकिन ऐसा नहीं था कि उसे संघर्ष नहीं करना पड़ता था। सदन से लेकर सड़क तक जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की आलोचना वाम दलों के नेता करते थे। कांग्रेस के मुकाबले संख्या भले ही कम होती थी। लेकिन जमीन पर तेवर में कमी नहीं। बिहार के बेगूसराय को लेनिनग्राड कहा जाता था। वहीं यूपी में घोसी और गाजीपुर के सीट के बारे में कहा जाता था कि यह दोनों सीटें सीपीआई के लिए पश्चिम बंगाल हैं। जमीनी तौर पर कामरेड गरीब मजलूम की लड़ाई लड़ते थे। जिसके पीछे कोई खड़ा नहीं होना चाहता था उसकी वो आवाज बन जाते थे। लेकिन बदलते समय के साथ उन्होंने खुद को नहीं बदला और उसका असर यह हुआ कि बिहार और यूपी में लाल झंडा पकड़ने वालों की कमी हो गई।