क्यों राज्यों के लिए मुसीबत बन सकता है केंद्र का G RAM G प्लान? Talking Sense with Srini
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क्यों राज्यों के लिए मुसीबत बन सकता है केंद्र का G RAM G प्लान? 'Talking Sense with Srini'

योजना का नाम बदलने से भी राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। विपक्षी दलों ने इसे महात्मा गांधी की विरासत को कमजोर करने की कोशिश बताया है, जबकि सरकार का कहना है कि ये बदलाव उसके दीर्घकालिक विकास दृष्टिकोण के अनुरूप हैं।


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भारत की प्रमुख ग्रामीण रोजगार योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) बीते दो दशकों में अपने सबसे बड़े पुनर्गठन के दौर से गुजर रही है। मोदी सरकार द्वारा संसद में पेश नए विधेयक के तहत इस योजना का नाम बदलकर G RAM G कर दिया गया है। इस बदलाव के साथ ही फंडिंग व्यवस्था, केंद्र–राज्य संतुलन और रोजगार नीति को लेकर राजनीतिक विवाद और चिंताएं तेज हो गई हैं।

'Talking Sense with Srini' कार्यक्रम में The Federa के एडिटर-इन-चीफ एस. श्रीनिवासन ने कहा कि इस नए ढांचे में सबसे बड़ा बदलाव फंडिंग पैटर्न से जुड़ा है। प्रस्तावित व्यवस्था के तहत अब केंद्र सरकार मजदूरी लागत का केवल 60 प्रतिशत वहन करेगी, जबकि शेष 40 प्रतिशत राज्यों को देना होगा। इसके अलावा प्रशासनिक और सामग्री लागत का बोझ भी राज्यों पर ही रहेगा। अब तक MGNREGA एक अधिकार-आधारित और लगभग पूरी तरह केंद्र-वित्तपोषित योजना के रूप में काम करती रही है।


राज्यों पर बढ़ता वित्तीय दबाव

श्रीनिवासन ने इसे एक बड़ा बदलाव बताते हुए चेतावनी दी कि राज्य पहले से ही गंभीर वित्तीय संकट में हैं। अर्थशास्त्रियों और राज्यों के आकलन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि इस अतिरिक्त बोझ से राज्यों पर हर साल दसियों हजार करोड़ रुपये का दबाव पड़ सकता है। स्थिति इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि 2024–25 में MGNREGA का बजट पिछले साल की तुलना में 20 प्रतिशत से अधिक घटाया गया है, जबकि मजदूरों का बकाया लगातार बढ़ रहा है।

उन्होंने यह भी बताया कि काम की योजना और आवंटन की प्रक्रिया में बदलाव किया जा रहा है। पहले जहां मांग-आधारित मॉडल के तहत राज्य स्थानीय जरूरतों के अनुसार परियोजनाएं तय करते थे, अब उनकी जगह केंद्र द्वारा तय “नॉर्मेटिव अलोकेशन” लागू होंगे। इन तय मानकों से अधिक खर्च होने पर उसकी जिम्मेदारी राज्यों की होगी। इससे योजना का अधिकार-आधारित स्वरूप कमजोर पड़ता है और केंद्रीकरण बढ़ने की आशंका पैदा होती है।

काम के दिनों में बढ़ोतरी या सिर्फ दिखावा?

नए विधेयक में काम के गारंटीड दिनों को 100 से बढ़ाकर 125 करने का प्रावधान है। हालांकि, श्रीनिवासन ने इसकी व्यावहारिक उपयोगिता पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हाल के वर्षों में औसतन एक श्रमिक को 55 दिनों से भी कम काम मिला है और बहुत कम लोग मौजूदा 100 दिन की गारंटी पूरी कर पाते हैं। उनके अनुसार, जब तक फंडिंग की कमी और भुगतान में देरी जैसी समस्याओं का समाधान नहीं होता, तब तक काम के दिनों में बढ़ोतरी केवल कॉस्मेटिक बदलाव बनकर रह जाएगी।

एक अन्य प्रावधान के तहत कृषि के चरम मौसम में 60 दिनों तक काम रोकने की बात कही गई है। इसका उद्देश्य खेती में मजदूरों की कमी को रोकना बताया गया है, लेकिन श्रीनिवासन ने चेतावनी दी कि इससे गैर-कृषि ग्रामीण श्रमिकों पर असर पड़ेगा और प्रवासन-प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार के विकल्प सीमित हो सकते हैं।

राजनीतिक प्रतिक्रिया और व्यापक सवाल

योजना का नाम बदलने से भी राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। विपक्षी दलों ने इसे महात्मा गांधी की विरासत को कमजोर करने की कोशिश बताया है, जबकि सरकार का कहना है कि ये बदलाव उसके दीर्घकालिक विकास दृष्टिकोण के अनुरूप हैं। श्रीनिवासन ने अंत में कहा कि असली विरोधाभास अब भी बना हुआ है। अगर अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और बेरोजगारी घट रही है तो देश की सबसे बड़ी ग्रामीण रोजगार योजना के इस तरह के पुनर्गठन से मैक्रो इकॉनॉमिक दावों और जमीनी हकीकत के बीच के अंतर पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।

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